विनोद कुमार शुक्ल को श्रद्धांजलि!

0

Parichay Das

— परिचय दास —

।। एक ।।

विनोद कुमार शुक्ल का न रहना किसी एक व्यक्ति का न रहना नहीं है, यह उस मौन का उठ जाना है जिसमें हिंदी गद्य ने वर्षों तक अपनी सबसे कोमल, सबसे जिद्दी और सबसे मानवीय उपस्थिति दर्ज की थी। उनके न रहने की सूचना ऐसे आती है जैसे सुबह की हल्की धूप अचानक किसी वजह से कमरे में न पहुँचे—कोई शोर नहीं, कोई धमाका नहीं, बस एक सूक्ष्म-सी कमी, जो धीरे-धीरे पूरे दिन में फैल जाती है।

उनकी स्मृति किसी स्मारक की तरह नहीं खड़ी होती, वह पास बैठ जाती है। चुपचाप। जैसे कोई परिचित आदमी बिना कहे कुर्सी खींच ले और खिड़की के बाहर देखता रहे। विनोद कुमार शुक्ल की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि वे उपस्थित रहते हुए भी अनावश्यक रूप से दिखाई नहीं देते थे। उनकी भाषा भी वैसी ही थी—दिखने से ज़्यादा रहने वाली। शब्दों के भीतर ठहरने वाली।

वे जिस तरह लिखते थे, उसमें दुनिया को बदलने का शोर नहीं था, पर दुनिया को अलग तरह से देखने की दृढ़ता थी। उनके यहाँ क्रांति नारे में नहीं, दृष्टि में घटित होती है। उनके पात्र कोई असाधारण काम नहीं करते, वे बस मौजूद रहते हैं—अपने छोटे-छोटे कामों, डर, इच्छाओं और संकोचों के साथ। लेकिन यही मौजूदगी धीरे-धीरे हमें हमारी अपनी अनुपस्थितियों का एहसास करा देती है।

उनके न रहने का दुःख इसलिए भी गहरा है कि वे हिंदी के उन लेखकों में थे जिनकी उपस्थिति से भाषा सुरक्षित लगती थी। जैसे कोई बहुत शोरगुल वाले कमरे में एक शांत व्यक्ति बैठा हो—आप जान लेते हैं कि सब कुछ अभी पूरी तरह बिगड़ा नहीं है। विनोद कुमार शुक्ल का होना इस बात की गारंटी था कि हिंदी गद्य में अभी करुणा, विनम्रता और अव्यक्त सौंदर्य के लिए जगह बची हुई है।

उनकी रचनाओं में घर एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन वह घर सुविधा या स्थायित्व का प्रतीक नहीं, बल्कि एक नाजुक आश्रय है। ऐसा आश्रय जिसे हर समय छोड़े जाने का डर रहता है। उनके यहाँ आदमी और घर एक-दूसरे को संभालते हैं, और कभी-कभी एक-दूसरे से चूक भी जाते हैं। शायद इसी वजह से उनके लिखे हुए घरों में हमें अपने ही घरों की हल्की-सी उदासी दिखाई देती है।

विनोद कुमार शुक्ल का न रहना उस भाषा का भी थोड़ा-सा न रहना है, जो बहुत कम बोलकर बहुत कुछ कह लेती थी। आज के समय में, जब हर बात को ज़ोर से कहने की होड़ है, उनकी चुप भाषा और भी ज़्यादा जरूरी लगती है। वे बताते थे कि धीरे बोलना कमजोरी नहीं है, बल्कि एक तरह की नैतिकता है। यह नैतिकता सुनने की जगह बनाती है—दूसरे के लिए, और अपने लिए भी।

उनके उपन्यासों और कहानियों में जो खाली जगहें हैं, वे उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं जितने शब्द। वे पाठक पर भरोसा करते थे। उन्हें यह नहीं लगता था कि पाठक को हर बात समझानी ज़रूरी है। वे संकेत करते थे, छोड़ देते थे, और जानते थे कि पाठक उस छोड़ी हुई जगह में अपना जीवन रख देगा। शायद इसी वजह से उनकी रचनाएँ पढ़ते हुए हमें यह भ्रम होता है कि हम कुछ पढ़ नहीं रहे, बल्कि कुछ याद कर रहे हैं।

उनकी स्मृति में आते ही कोई बड़ा दृश्य नहीं उभरता—कोई मंच, कोई सम्मान, कोई चमक नहीं। आता है तो एक साधारण-सा आदमी, जिसके हाथ में शायद एक काग़ज़ हो, या जो बस टहलते हुए आसपास को देख रहा हो। उनके देखने का ढंग ही उनका लेखन था। वे चीज़ों को ऐसे देखते थे जैसे उन्हें पहली बार देख रहे हों, और फिर उन्हें ऐसे लिखते थे जैसे उन्हें आख़िरी बार देख रहे हों।

विनोद कुमार शुक्ल की भाषा में एक अद्भुत संकोच है। वह अपने ही सौंदर्य से थोड़ा डरती है, जैसे ज़्यादा सुंदर हो जाने से कहीं असत्य न हो जाए। यह संकोच आज के समय में दुर्लभ है। आज भाषा अक्सर आत्ममुग्ध होती जा रही है—अपने वाक्यों से प्रेम करती हुई। शुक्ल जी की भाषा वाक्यों से नहीं, मनुष्यों से प्रेम करती है।

उनके पात्र अक्सर किसी बड़े उद्देश्य के लिए संघर्ष नहीं करते, लेकिन वे जीवन के छोटे-छोटे भारों को ढोते रहते हैं। कभी नौकरी का डर, कभी बेघर होने की आशंका, कभी किसी रिश्ते की अस्पष्टता। ये भार इतने छोटे होते हैं कि साहित्य में अक्सर अनदेखे रह जाते हैं, लेकिन जीवन में यही भार सबसे भारी होते हैं। विनोद कुमार शुक्ल ने इन्हीं भारों को साहित्य की गरिमा दी।

उनके न रहने से जो खालीपन बना है, वह तुरंत महसूस नहीं होता। यह खालीपन धीरे-धीरे खुलता है—किसी किताब को पढ़ते हुए, किसी वाक्य को लिखते हुए, किसी साधारण अनुभव को शब्द देने की कोशिश करते हुए। अचानक लगता है कि जिस तरह से इसे कहा जा सकता था, वह तरीका अब हमारे पास नहीं है। या शायद है, लेकिन उसे पाने के लिए जिस धैर्य और विनम्रता की ज़रूरत थी, वह उनसे सीखनी थी।

वे भाषा के आचार्य नहीं थे, न ही किसी विचारधारा के प्रवक्ता। वे बस एक लेखक थे—लेकिन उस अर्थ में, जिसमें लेखक होना एक नैतिक स्थिति बन जाता है। वे सत्ता से नहीं, भाषा से जुड़े हुए थे। और भाषा के साथ उनका संबंध उपभोग का नहीं, सहवास का था। वे भाषा का इस्तेमाल नहीं करते थे, उसके साथ रहते थे।

उनकी स्मृति हमें यह भी सिखाती है कि साहित्य में चमक जरूरी नहीं है। जरूरी है टिके रहना। धीरे-धीरे। बिना हड़बड़ी के। बिना शोर के। विनोद कुमार शुक्ल का लेखन इसी टिके रहने का उदाहरण है। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि वे महान हैं, लेकिन उनका काम यह कहता रहेगा कि सादगी भी एक गहन कला हो सकती है।
उनके जाने के बाद उनकी किताबें और भी शांत हो गई हैं। अब उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि वे किसी और ही समय से आई हैं—या शायद किसी ऐसे समय से, जो अभी पूरी तरह आया नहीं है। उनका लेखन भविष्य की एक नैतिक कल्पना है, जिसमें मनुष्य अभी पूरी तरह कठोर नहीं हुआ है।

विनोद कुमार शुक्ल का न रहना हमें यह याद दिलाता है कि साहित्य सिर्फ़ शब्दों का काम नहीं है, यह मनुष्य होने की एक सतत कोशिश है। वे इस कोशिश में ईमानदार थे। शायद इसी वजह से वे इतने अकेले और इतने अपने थे।

उनकी स्मृति में कोई शोर नहीं होना चाहिए। बस एक खुली खिड़की, थोड़ी-सी धूप, और भाषा का वह मौन, जिसमें हम आज भी उन्हें सुन सकते हैं—अगर हम थोड़ा रुक सकें, और थोड़ा चुप हो सकें।

।। दो ।।

विनोद कुमार शुक्ल की मनुष्यता कोई सिद्धांत नहीं थी जिसे वे लिखकर साबित करते हों; वह उनका स्वभाव थी—ऐसी आदत जो बिना बताए, बिना जताए उनके जीवन और लेखन में घुली रहती थी। उनके बारे में जो किस्से सुनने में आते हैं, वे किसी महान लेखक की छवि को चमकाने वाले नहीं हैं बल्कि एक साधारण, संकोची और भीतर से उजले मनुष्य की उपस्थिति को दर्ज करते हैं।

एक किस्सा बार-बार याद किया जाता है कि वे किसी साहित्यिक गोष्ठी या मंच पर बहुत कम बोलते थे। जब उनसे अपेक्षा की जाती कि वे ‘कुछ कहें’, तो वे अक्सर यह कहकर बच निकलते—“जो कहना था, वह लिख दिया है।” यह वाक्य किसी अहंकार से नहीं, बल्कि भाषा के प्रति गहरे सम्मान से उपजा था। उन्हें लगता था कि शब्द मंच पर बोलकर हल्के हो जाते हैं। यह मनुष्यता ही थी—अपने लिखे पर भी जरूरत से ज़्यादा अधिकार न जताना।

कहा जाता है कि वे अपने पाठकों से भी एक तरह की बराबरी का रिश्ता रखते थे। जो लोग उनसे मिलने आते, वे किसी ‘बड़े लेखक’ से मिलने नहीं जाते थे, बल्कि किसी ऐसे व्यक्ति से, जो ध्यान से सुनता है। वे सवालों के जवाब तुरंत नहीं देते थे। पहले सुनते थे, फिर कुछ देर रुकते थे, जैसे भीतर जाँच रहे हों कि जवाब ज़रूरी है भी या नहीं। कई बार उनका चुप रह जाना ही जवाब होता था। यह चुप्पी असहज नहीं करती थी; वह सामने वाले को थोड़ा और ईमानदार बना देती थी।

एक प्रसंग यह भी सुनने में आता है कि किसी युवा लेखक ने उनसे अपनी रचना पर टिप्पणी चाही। विनोद कुमार शुक्ल ने पूरी रचना पढ़ी, फिर बस इतना कहा—“यहाँ आप जल्दी में हैं।” न उन्होंने दोष गिनाए, न सुधार की सूची थमाई। बस ‘जल्दी’ की पहचान करवा दी। उस लेखक के लिए यह टिप्पणी आजीवन की सीख बन गई—कि लिखना दरअसल अपने भीतर की जल्दी से बाहर आना है। यह आलोचना नहीं, देखभाल थी।

उनकी मनुष्यता का एक बड़ा पक्ष यह था कि वे कभी किसी को छोटा महसूस नहीं कराते थे। चाहे सामने कोई वरिष्ठ हो या नवोदित, वे बातचीत का स्वर वही रखते—धीमा, सादा, बिना किसी बौद्धिक दबाव के। यह उनके लेखन जैसा ही था। जैसे उनकी भाषा पाठक पर हावी नहीं होती, वैसे ही वे स्वयं किसी पर हावी नहीं होते थे। यह व्यवहार आज के साहित्यिक संसार में दुर्लभ है, जहाँ अक्सर संवाद भी प्रदर्शन बन जाता है।

उनके जीवन के छोटे-छोटे किस्सों में यह भी शामिल है कि वे रोज़मर्रा की चीज़ों को असाधारण ध्यान से देखते थे। सड़क पर चलते हुए कोई पेड़, कोई खाली घर, कोई चुप आदमी—ये सब उनके लिए ‘विषय’ नहीं, ‘साथी’ थे। एक बार किसी ने उनसे पूछा कि आप इतने साधारण लोगों पर क्यों लिखते हैं? उन्होंने कहा—“क्योंकि मैं भी तो उन्हीं में से हूँ।” इस उत्तर में कोई रणनीति नहीं थी, बस एक स्वीकार था।

उनकी मनुष्यता का एक पहलू यह भी था कि वे सफलता से असहज रहते थे। पुरस्कार, सम्मान—इन सबको वे स्वीकार तो करते थे, लेकिन उनके व्यवहार में उसका कोई असर नहीं दिखता था। वे वही रहते थे—उसी कस्बे में, उसी तरह की दिनचर्या में। जैसे उन्हें डर हो कि ज़्यादा ‘बड़ा’ हो जाना कहीं उनके देखने की क्षमता को न छीन ले। यह डर नहीं, एक सजगता थी—अपने भीतर के मनुष्य को बचाए रखने की।

उनके विद्यार्थियों और परिचितों के बीच यह बात मशहूर थी कि वे कभी किसी को उपदेश नहीं देते थे। अगर कोई जीवन की उलझन लेकर आता, तो वे समाधान नहीं बताते थे, बस उस उलझन को ध्यान से सुनते थे। कई बार इतना ही काफ़ी होता था। उनकी मौजूदगी ही भरोसा बन जाती थी—जैसे कोई कह रहा हो: “तुम जैसा हो, वैसा होना संभव है।”

उनकी मनुष्यता का सबसे मार्मिक पक्ष शायद यह था कि वे भाषा के ज़रिये किसी को चोट नहीं पहुँचाते थे। न व्यंग्य में, न आलोचना में, न आत्मकथा में। उनकी भाषा में क्रूरता नहीं है। असहमति है लेकिन दया के साथ। यह दया किसी नैतिक ऊँचाई से नहीं आती, बल्कि इस समझ से आती है कि हर मनुष्य अपने-अपने डर के साथ जी रहा है।

उनके बारे में कहा जाता है कि वे अपने पात्रों को भी वैसे ही छोड़ देते थे, जैसे जीवन उन्हें छोड़ देता है—पूरी तरह हल किए बिना। यह उनके जीवन व्यवहार से जुड़ा हुआ था। वे लोगों को बदलने की कोशिश नहीं करते थे। बस उन्हें देखने की कोशिश करते थे। और यही देखने की कोशिश उनकी सबसे बड़ी मनुष्यता थी।

विनोद कुमार शुक्ल के किस्से दरअसल किसी महान घटनाक्रम के किस्से नहीं हैं। वे ऐसे क्षणों के किस्से हैं, जहाँ कोई व्यक्ति थोड़ा और मनुष्य हो जाता है—बिना बताए, बिना जताए। आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तब ये किस्से और भी ज़रूरी हो जाते हैं। क्योंकि इन्हीं में वह विनम्र रोशनी बची है, जो बताती है कि बड़ा लेखक होना दरअसल बड़ा आदमी होने से नहीं, बल्कि छोटा बने रहने की क्षमता से आता है। उनकी मनुष्यता का यही सबसे सच्चा किस्सा है—कि वे जैसे लिखते थे, वैसे ही जीते थे। और जैसे जीते थे, वैसा ही हमें चुपचाप देखना सिखा गए।

।। तीन।।

विनोद कुमार शुक्ल की कृतियों पर बात करना दरअसल उस भाषा पर बात करना है, जो अपने व्याकरण से नहीं, अपनी नैतिकता से पहचानी जाती है। उनकी रचनाएँ किसी सिद्धांत को प्रमाणित नहीं करतीं, वे जीवन को रहने देती हैं। यही वजह है कि उनकी कृतियों से उदाहरण लेते हुए समालोचना करना भी किसी कसौटी पर परखना नहीं, बल्कि उनके साथ धीरे-धीरे चलना है।
उनके उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ को देखें। यह उपन्यास कथ्य के स्तर पर लगभग ‘कुछ नहीं होने’ का उपन्यास है। एक साधारण आदमी, एक साधारण नौकरी, एक साधारण घर—लेकिन इसी साधारणता में असाधारण साहित्यिक हस्तक्षेप छिपा है। नायक की सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि उसकी कमीज़ फट गई है बल्कि यह है कि वह अपने जीवन को ठीक से पहन नहीं पा रहा। कमीज़ यहाँ सिर्फ़ वस्त्र नहीं, जीवन की वह व्यवस्था है जो बार-बार असहज हो जाती है। व्यावहारिक उदाहरण के तौर पर, उपन्यास में कमीज़ को सिलवाने की चिंता जितनी बार आती है, उतनी बार जीवन की सिलाई उधड़ती है। यह कोई प्रतीकात्मक चमत्कार नहीं बल्कि रोज़मर्रा की असुविधा का गहन चित्रण है। विनोद कुमार शुक्ल दिखाते हैं कि गरीबी या मध्यवर्गीय असुरक्षा कोई नाटकीय त्रासदी नहीं, बल्कि लगातार चलने वाला छोटा-सा तनाव है।

इसी उपन्यास में घर का चित्रण देखें। घर किसी स्थिरता का प्रतीक नहीं है। वह बार-बार ऐसा लगता है जैसे अभी छूट जाएगा। यह व्यावहारिक अनुभव लगभग हर नौकरीपेशा आदमी का है—घर होना भी एक अस्थायी स्थिति है। विनोद कुमार शुक्ल इस अस्थायित्व को किसी भाषण में नहीं बदलते, बस उसे वैसे ही रख देते हैं। यही उनकी ललितता है—वे जीवन को समझाते नहीं, उसे रहने देते हैं।

उनकी कहानियों में यह दृष्टि और भी सूक्ष्म हो जाती है। उदाहरण के लिए, उनकी कहानी ‘पेड़ पर कमरा’ में कल्पना का प्रयोग किसी फैंटेसी के लिए नहीं, बल्कि यथार्थ की सीमा को थोड़ा-सा फैलाने के लिए है। पेड़ पर बना कमरा असंभव नहीं लगता, बल्कि ऐसा लगता है जैसे लेखक यह कह रहा हो कि मनुष्य को कभी-कभी ज़मीन से थोड़ा ऊपर उठकर अपने जीवन को देखना चाहिए। यह कोई दार्शनिक घोषणा नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक अनुभव है—जब हम रोज़मर्रा से थोड़ी दूरी बनाते हैं, तब चीज़ें साफ़ दिखने लगती हैं। कहानी में पेड़, कमरा और आदमी—तीनों एक-दूसरे पर हावी नहीं होते। यह सह-अस्तित्व ही विनोद कुमार शुक्ल की कथा-नैतिकता है।

उनकी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह कथ्य से आगे निकलने की कोशिश नहीं करती। उदाहरण के लिए, उनकी कविता में—जहाँ वे कहते हैं कि “मैं बहुत छोटा आदमी हूँ”—यह कथन आत्महीनता नहीं, बल्कि एक नैतिक स्थिति है। यहाँ ‘छोटा’ होना सत्ता, महत्वाकांक्षा और प्रदर्शन से दूरी बनाना है। यह कविता पढ़ते हुए लगता है कि लेखक स्वयं को बड़ा सिद्ध करने की जगह जीवन को थोड़ा बड़ा देखने की कोशिश कर रहा है। यह आज के समय में अत्यंत व्यावहारिक और दुर्लभ दृष्टि है।

उनकी कृतियों में पात्र अक्सर निर्णय नहीं लेते, वे परिस्थितियों के साथ धीरे-धीरे चलते हैं। यह आलस्य नहीं, बल्कि जीवन की वास्तविक गति का स्वीकार है। उदाहरण के तौर पर, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ जैसे कथनों में खिड़की कोई रोमांटिक प्रतीक नहीं, बल्कि देखने की एक सीमित संभावना है। दीवार पूरी तरह टूटती नहीं, खिड़की पूरी तरह खुलती नहीं—बस उतनी जगह बनती है, जितनी ज़रूरी है। यह मध्यवर्गीय जीवन का बिल्कुल सटीक अनुभव है, जहाँ न पूरी आज़ादी होती है, न पूरी कैद।

उनकी रचनाओं में हास्य भी व्यावहारिक जीवन से आता है। यह हास्य किसी घटना पर नहीं, स्थिति पर आधारित होता है। जैसे कोई पात्र बहुत गंभीर होकर किसी साधारण बात की चिंता करता है—और वही चिंता हमें मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है। यह मुस्कान लेखक की चतुराई से नहीं, जीवन की विडंबना से पैदा होती है। विनोद कुमार शुक्ल इस विडंबना को उजागर करते हैं, लेकिन उसका शोषण नहीं करते।

उनकी कृतियों में प्रकृति का प्रयोग भी उल्लेखनीय है। पेड़, हवा, धूप—ये सब किसी सौंदर्य-प्रदर्शन के लिए नहीं आते। वे पात्रों के जीवन का हिस्सा हैं। उदाहरण के लिए, जब किसी कहानी में धूप आती है, तो वह दृश्य को सुंदर बनाने के लिए नहीं, बल्कि समय के बीतने का संकेत देने के लिए आती है। यह प्रकृति का उपयोग नहीं, प्रकृति के साथ रहना है।

समालोचना की दृष्टि से देखें तो विनोद कुमार शुक्ल का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने हिंदी गद्य को एक नई संवेदनात्मक गति दी। उन्होंने दिखाया कि कथा में ‘कम होना’ भी एक सौंदर्य हो सकता है। कम घटनाएँ, कम संवाद, कम नाटकीयता—लेकिन अधिक जीवन। यह शैली जोखिम भरी थी, क्योंकि इसमें लेखक के पास छिपने के लिए कोई शोर नहीं होता। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल ने इस जोखिम को स्वीकार किया।

उनकी कृतियाँ हमें यह व्यावहारिक उदाहरण देती हैं कि साहित्य केवल असाधारण स्थितियों का दस्तावेज़ नहीं है। वह साधारण जीवन का भी गहन अध्ययन हो सकता है। उन्होंने यह भी दिखाया कि भाषा को सजाने की नहीं, संभालने की ज़रूरत होती है। उनकी भाषा हमें प्रभावित नहीं करती, वह हमें रहने देती है।

विनोद कुमार शुक्ल की ललित समालोचना करते हुए यही कहना पड़ता है कि उनकी कृतियाँ किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचातीं। वे हमें रास्ते में छोड़ देती हैं—लेकिन ऐसा नहीं कि हम भटक जाएँ। बल्कि ऐसा कि हम अपने जीवन को थोड़ा और ध्यान से देखने लगें। यही उनकी साहित्यिक उपलब्धि है, और यही उनकी सबसे व्यावहारिक विरासत।

।। चार ।।

उनकी स्मृति में लौटते हुए यह भी महसूस होता है कि उन्होंने हमें जल्दी समझ में आने वाली दुनिया नहीं दी। उनकी दुनिया धीरे खुलती है—जैसे सुबह का कमरा, जिसमें आँखें खुल जाने के बाद भी चीज़ें साफ़ दिखने में थोड़ा समय लेती हैं। यह विलंब ही उनकी रचनात्मकता की नैतिकता है। वे पाठक को हड़बड़ी से बाहर निकालते हैं। आज के समय में, जहाँ सब कुछ तुरंत चाहिए, वहाँ उनका लेखन एक तरह का प्रतिरोध है—बिना घोषणा के, बिना झंडे के।

विनोद कुमार शुक्ल का न रहना इस बात की भी क्षति है कि अब कोई हमें इतनी सादगी से जटिल बना कर नहीं दिखाएगा। वे साधारण जीवन को महिमामंडित नहीं करते थे, न ही उसकी दयनीयता का प्रदर्शन करते थे। वे बस उसे उसके पूरेपन में रखते थे—अधूरा, असुविधाजनक, लेकिन फिर भी जीने लायक। उनके पात्रों में कोई महानता नहीं, लेकिन गरिमा है। यह गरिमा किसी उपलब्धि से नहीं आती, बल्कि सहने, निभाने और चुप रहने की क्षमता से आती है।

उनके यहाँ दुःख भी शोर नहीं करता। वह बैठा रहता है। जैसे कोई पुरानी कुर्सी, जिस पर कोई कुछ देर के लिए बैठ जाए और उठते समय कुर्सी वहीँ रह जाए। दुःख उनके लेखन में घटना नहीं, स्थिति है। शायद इसी वजह से उनका दुःख कभी हमें थकाता नहीं, बल्कि थोड़ा और संवेदनशील बना देता है। वह हमें रोने के लिए मजबूर नहीं करता, बल्कि देखने के लिए विवश करता है।

उनकी भाषा में जो कोमल हास्य है, वह भी स्मृति में टिकने वाला है। वह हँसी नहीं, मुस्कान है—जो अक्सर वाक्य के आख़िर में नहीं, बीच में कहीं ठहर जाती है। यह हास्य किसी चुटकुले से नहीं आता, बल्कि जीवन की असंगतियों से पैदा होता है। जैसे कोई आदमी बहुत गंभीर होकर कोई मामूली बात कह दे, और उसी में जीवन की पूरी विडंबना खुल जाए। विनोद कुमार शुक्ल इस विडंबना को पहचानते थे, लेकिन उसका मज़ाक नहीं बनाते थे।

उनके न रहने के बाद यह सवाल भी मन में उठता है कि क्या आज की भाषा में इतना धैर्य बचा है कि वह वैसी रचनाओं को जन्म दे सके? क्या आज का लेखक इतना भरोसा कर सकता है कि पाठक शोर के बिना भी उसके साथ रहेगा? विनोद कुमार शुक्ल का लेखन इस भरोसे की अंतिम बड़ी मिसालों में से एक था। वे पाठक को उपभोक्ता नहीं मानते थे बल्कि सहयात्री मानते थे।
उनकी स्मृति में यह बात भी उभरती है कि वे कभी साहित्यिक व्यक्तित्व बनने की कोशिश में नहीं थे। न उनकी भाषा में आत्मप्रचार था, न उनके जीवन में किसी तरह का प्रदर्शन। वे मंचों से ज़्यादा अपने कमरे में, अपने कस्बे में, अपनी टहल में मौजूद थे। शायद इसी वजह से वे इतने सघन थे। उनकी ऊर्जा बाहर नहीं, भीतर की ओर जाती थी।

उनका न रहना यह भी बताता है कि अब हिंदी साहित्य में वह दृष्टि और दुर्लभ हो जाएगी, जो सत्ता, बाज़ार और विचारधाराओं के बीच फँसे बिना मनुष्य को देख सके। वे किसी खेमे के लेखक नहीं थे। वे मनुष्य के लेखक थे—उस मनुष्य के, जो अक्सर किसी खेमे में फिट नहीं बैठता। यही वजह है कि उनके पात्र इतने अपने लगते हैं। वे हमारे जैसे हैं—थोड़े असमंजस में, थोड़े डरे हुए, और फिर भी जीते हुए।

उनकी रचनाओं में प्रकृति भी कोई भव्य दृश्य नहीं है। वह आसपास की चीज़ है—पेड़, रास्ता, हवा, धूप। लेकिन यह प्रकृति मनुष्य के ऊपर नहीं, उसके साथ रहती है। जैसे जीवन का एक और साधारण साथी। इस साधारणता में ही एक गहरी पारिस्थितिकी है, जो बिना उपदेश दिए हमें सह-अस्तित्व का अर्थ समझा देती है।

विनोद कुमार शुक्ल की स्मृति हमें यह भी सिखाती है कि लेखन हमेशा किसी बड़े विषय से नहीं आता। वह छोटे अनुभवों से आता है—एक कमरे की चुप्पी, एक अधूरी बातचीत, एक अनकहा डर। उन्होंने इन्हीं अनुभवों को इतना ध्यान से देखा कि वे साहित्य बन गए। आज जब अनुभवों को भी ‘कंटेंट’ बना दिया गया है, उनकी यह दृष्टि और भी मूल्यवान लगती है। उनके न रहने के बाद उनकी किताबें शायद ज़्यादा पढ़ी जाएँगी, ज़्यादा उद्धृत होंगी, ज़्यादा चर्चा में आएँगी लेकिन यह चर्चा भी तभी सार्थक होगी, जब उसमें थोड़ा-सा मौन बचा रहेगा। क्योंकि उनके लेखन को समझने के लिए उतना ही पढ़ना जरूरी है, जितना चुप रहना।

विनोद कुमार शुक्ल का न रहना हमें यह भी याद दिलाता है कि साहित्य में समय लगता है। जल्दी लिखी गई चीज़ें जल्दी भूल भी जाती हैं। उनका लेखन धीरे लिखा गया था, इसलिए वह धीरे-धीरे हमारे भीतर जगह बनाता है। यह जगह किसी विचार की नहीं, एक संवेदना की है।

उनकी स्मृति में कोई स्मरण-सभा नहीं चाहिए, कोई ऊँचा स्वर नहीं चाहिए। बस किसी दिन उनकी कोई पंक्ति पढ़ते हुए अगर हम अचानक रुक जाएँ—और महसूस करें कि यह पंक्ति हमें थोड़ा बेहतर मनुष्य बना रही है—तो वही उनकी सबसे सच्ची स्मृति होगी।

विनोद कुमार शुक्ल का न रहना अंततः हमें यह सिखाता है कि किसी लेखक की सबसे बड़ी उपस्थिति उसके न रहने के बाद शुरू होती है। अब वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन हमारी भाषा में, हमारी दृष्टि में और हमारे चुप रहने के ढंग में कहीं न कहीं वे मौजूद रहेंगे। बस इतना ही कि अब उनकी यह उपस्थिति और भी नाज़ुक हो गई है। उसे संभाल कर रखना होगा—धीरे, ध्यान से और बिना शोर के।


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment