इक्कीसवीं सदी में हमारी राष्ट्रीयता का आधार और देशभक्ति का अर्थ क्या है

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— आनंद कुमार —

नुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के कारण अपनी सामूहिकता को कई आधारों पर सुनिश्चित किया करता है।‘अपनों’ और ‘गैरों’ की पहचान के लिए स्पष्ट मापदंड बनाता है। इस प्रक्रिया में आधुनिक विश्व-व्यवस्था में 16-17वीं शताब्दी से राष्ट्रों का निर्माण, राष्ट्रीयता का सम्मान और देशभक्ति को सर्वोच्च नागरिक कर्तव्य के रूप में अपनाया जाने लगा। आर्थिक सीमाओं से चिह्नित, सांस्कृतिक आत्म-गौरव से लैस और राजनितिक सत्ता से भरपूर ‘राष्ट्र’ मनुष्यों की सर्वोत्कृष्ट पहचान के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। राष्ट्रध्वज, राष्ट्र-गीत राष्ट्र-प्रतीक आदि के जरिये सब अपनी अपनी पहचानों को जानने-अपनाने लगे। राष्ट्रों की पहचान को स्थिर करने में भाषाविदों, कवियों, व्यापारियों-उद्योगपतियों, मध्यमवर्ग, सैनिकों और सेनाओं तथा राजनीतिज्ञों की केंद्रीय भूमिका रही।

राष्ट्र परिवार, कुटुम्ब, गाँव-नगर, धर्म और भाषा को शामिल करता हुआ मानव समाज का सर्वाधिक व्यापक दायरा बना।इस राजनीतिक-आर्थिक सीमांकन में क्षेत्र, भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति और सभ्यता का अपना अपना महत्त्व होता है। फिर  राष्ट्र-राज्य की स्थापना और राष्ट्रीयता की रचना से सामूहिकता को स्थायी आधार मिलता है। क्योंकि इससे नागरिकता बनती है और राष्ट्र-राज्य नागरिक के रूप में चिन्हित सभी व्यक्तियों के प्रति उत्तरदायी होता है।

भारतीय राष्ट्रीयता के आधार तत्त्व 

हर समाज में राष्ट्रीयता की एक निश्चित परिभाषा होती है। लेकिन यह देश-काल-पात्र सापेक्ष होती है। इसमें भौगोलिक आधारशिला पर आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक तत्त्वों के संयोजन से राष्ट्रनिर्माण की जरूरतों का सन्दर्भ होता है। लेकिन आजकल कुछ व्यक्तियों और संगठनों ने इस जटिल सामाजिक प्रक्रिया को कुछ प्रतीकों, नारों और शर्तों में समेटने का अभियान चला रखा है। भारत तो बहुत ही विविधतापूर्ण और गहरी जड़ोंवाली संस्कृति से उत्पन्न पहचान का वारिस है। इसलिए इसे किसी एक भाषा, भूषा, भोजन, भवन शैली में समेटना किसी भी तरह से मुमकिन नहीं है। अगर इस दबाव को बढ़ाया गया तो राष्ट्रनिर्माण का काम रुक जाएगा और देश में दरारें पैदा करनेवाली हलचलें बढ़ जाएंगी। इसलिए भारतीय संस्कृति की प्रकृति, अपनी राष्ट्रीयता की विशेषता और देशप्रेम परंपरा को ठीक से समझाना चाहिए। नहीं तो हम अनर्थ करने के अपराधी होंगे।

पुरखों ने विदेशियों से अलग हमारे पुराणों में भारत राष्ट्र को एक देशज प्राकृतिक – भौगोलिक पहचान दी है :

उत्तरं यत समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं।

वर्षं तात भारतं नाम भारती यत्र संतति।।

(विष्णु पुराण, स्कन्ध 2, श्लोक 3; काल – लगभग 450 ईस्वी)

अर्थात, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में समुद्र से आबद्ध भूभाग का नाम भारत है और इसकी संतति ( निवासी) भारती कहलाते हैं। यह धरतीमाता के एक विशिष्ट भूभाग से गुंथी हुई अस्मिता और पहचान है। इसमें धर्मों, भाषाओं, नस्लों, आदि का सतत प्रवाह और समन्वय होता आया है। इसीलिए भारत के लोगों की स्मृति में राष्ट्रीयता को धर्म, भाषा और जाति से ऊपर उठाकर भारतीयता के रूप में परिभाषित किया गया है।

भारतीयता क्या है? हमारी संस्कृति के आचार्यों और अध्येताओं ने भारतीय संस्कृति की विशिष्टता के रूप में तीन बातों को रखांकित किया है।

एक, भारतीय संस्कृति में समाज में स्वाभाविक व्यवस्था का आधार धर्म और ज्ञान को माना गया है। भारत में धर्म का अर्थ वह दैवी न्याय है जिसके ऊपर कोई दूसरी शक्ति नहीं है। जो नैतिक कार्य-कारण का कानून है। यहाँ धर्म को ही परमात्मा का दूसरा रूप माना गया है। यह सर्वाधिकारी आत्मा है। जो सभी व्यक्तियों में अन्तरस्थ है।

भारतीय वांग्मय अर्थात वेदों-उपनिषदों-पुराणों में यह मान्यता व्यापक है कि अदृष्ट यथार्थ का शाश्वत नियम या धर्म चरम सत्य की अभिव्यक्ति के रूप में पूरी सृष्टि के हर तत्त्व को एकसाथ जोड़ते हुए जीवन की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है और जीवन को आच्छादित किये रहता है। इसमें सफल जीवन निर्वाह के लिए मनुष्य को एक नैतिक अनुशासन या आध्यात्मिक आधार की आवश्यकता होती है।

दो, विविधता और उसके प्रति सहिष्णुता। ऋग्वेद में कहा गया है कि वह एक अद्भुत सत्य है जिसे विभिन्न प्रकार से वर्णित किया गया है – एकम् सत्, विप्रं बहुधा वदन्ति। सहिष्णुता अथवा दूसरे के विचारों के प्रति सम्मान सदा से भारतीय जीवन की विशेषता रही है।

तीसरे, समन्वय की सतत प्रक्रिया। यहाँ अनेक धर्म प्रवर्तक पैदा हुए और इस देश में धर्म और संस्कृति का गहरा सम्बन्ध रहा। वेदों-उपनिषदों पर आधारित हिन्दू धर्म और अवैदिक बौद्ध और जैन धर्म ने हमारी संस्कृति के प्रवाह को गहरे तक प्रभावित किया है।

‘हिन्दू’ विशेषण का स्वीकार भी इसी समन्वय प्रवृत्ति का प्रतीक है। क्योंकि ‘हिन्दू’ शब्द वेद-पुराण आदि प्राचीन धर्म-ग्रंथों में कहीं नहीं मिलता। प्राय: ढाई हजार साल पहले ईरान और ग्रीस की पाश्चात्य जातियों ने सिन्धु नदी और सिन्धु देश के नाम बदलकर हिन्धु, हिन्दू, इंडस, और इण्डिया बना दिया।

हमारी संस्कृति का प्रवाह इतिहास 

संस्कृति विशेषज्ञों के अनुसार,  आज भारत की विराट परंपरा को निसंकोच ‘हिन्दू धर्म और संस्कृति’ के रूप में संबोधित किया जाता है। लेकिन काल-विभाजन की दृष्टि से भारतीयता की रचना प्रक्रिया को प्राय: चार युगों में देखा जा सकता है : 1. पहले युग का विस्तार वैदिक काल से लेकर रामायण-महाभारत की रचना तक माना जा सकता है। इसमें तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व से लेकर पांच सौ वर्ष ई.पू. का कालखंड है। 2. दूसरा काल भारतीय संस्कृति का उत्कर्ष युग है। कालिदास, भारवी और माघ इसके प्रतिनिधि कवि हैं। इस बीच की सबसे बड़ी घटना बौद्ध धर्म का उदय और दर्शन विस्तार है। इस युग में हिन्दू धर्म में सांख्य से प्रेरित वेदांत का प्राधान्य था। इसका प्रतिपादन भगवद्गीता में हुआ। 3. हमारी संस्कृति का तीसरा काल 12वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक फैला है। श्रीहर्ष से शुरू और रामानंद- रविदास-कबीर-नानक-फरीद-चैतन्य-मीरा-तुलसीदास से जुड़ा यह दौर भक्त-विचारकों और आंदोलनों का भी है। इसी कालखंड में इस्लाम के साथ संबंध बना। लेकिन समन्वय की प्रक्रिया आधी-अधूरी रही। अदालतों, बाजारों और व्यापार में सम्मिलित व्यवहार था। देशी भाषाओँ में साझेदारी हुई। संगीत और साहित्य में योगदान था।

लेकिन आध्यात्मिक क्षेत्रों में सीमित संवाद हो पाया। सिख धर्म की स्थापना और सूफी संतों द्वारा परस्पर प्रेम का प्रसार महत्त्वपूर्ण शुरुआतें थीं। लेकिन इसे हिन्दू दृष्टि से पराधीनता का युग भी माना गया क्योंकि बीच-बीच में विदेशी हमलावरों से भारत का जन-जीवन आक्रांत हुआ। यह राजाओं और नवाबों द्वारा परस्पर कलह और साम्राज्य-विस्तार के युद्ध थे जिनमें जनसाधारण पिसता था। महमूद गजनवी जैसे शुरुआती आक्रान्ताओं को छोड़कर, ज्यादातर युद्धों में देशी मुसलमान शासक और विदेशी हमलावर आमने सामने थे। गज़नवी की सेना में भी एक तिहाई सिपाही हिन्दू थे। पंडित और मौलवी एक दूसरे की आस्थाओं और विश्वासों को नीची निगाहों से देखते थे।

फैजी, दारा शिकोह, राजा राममोहन राय जैसे अपवादों को छोड़कर संस्कृत और फारसी-अरबी की ज्ञान धाराओं में निकटता नहीं हो पाई थी। हिन्दुओं ने सीमित संख्या में अरबी-फारसी का अध्ययन किया। मुसलमानों में संस्कृत के अध्येता तो और भी कम हुए। हिन्दुओं और मुसलमानों की बहुसंख्यक जनता अपनी अपनी शिक्षा पद्धति के घेरे में रही। फिर 19वीं शताब्दी से भारतीय संस्कृति अंग्रेजी राज और पश्चिमी शिक्षा के जरिये पश्चिमीकरण के प्रभाव में आई। धार्मिक नव जागरण हुआ। इस पूरे कालखंड में धार्मिक गुरुओं-देवियों, धर्म-सुधारकों, संत-कवियों द्वारा भी समन्वय और परिवर्तन में बहुत योगदान रहा है।

धर्म- समन्वय के साथ ही कला और विज्ञान, धर्म और दर्शन, तथा प्राच्य और पाश्चात्य मूल्यों के समन्वय की भी चुनौती रही है। आज हम इसे प्राच्य और पाश्चात्य तथा परम्परा और आधुनिकता के बीच समन्वय के रूप में चिह्नित करते हैं। राममोहन राय, सर सैयद अहमद, अरविन्द, टैगोर, गाँधी से लेकर भगत सिंह, नेहरू, सुभाष, नायकर, आंबेडकर तक सघन आत्म-साक्षात्कार के इस दौर से ही स्वराज का सपना और सच पैदा हुआ।

देशप्रेम और राज्य के कर्तव्य  

हर राष्ट्र-राज्य अपने नागरिकों से देशभक्ति और देशप्रेम की अपेक्षा रखता है। इसके बदले में नागरिकों को न्याय, अस्मिता, गरिमा, और सुरक्षा का आश्वासन मिलता है। लेकिन राष्ट्रों की रचना के साथ ही राष्ट्रों के बीच होड़ और असमानता का सच भी आकार लेता है। राष्ट्र-गौरव के बहाने मनुष्यों का एक भूगोल आधारित समूह अपने पड़ोस से लेकर सुदूर बसे समूहों के हितों की अनदेखी और अवहेलना में जुट जाता है। इससे राष्ट्रों के अन्दर तो शांति और एकता और राष्ट्रों के बीच अशांति और अराजकता का वीभत्स सच भी आकर लेने लगा। इसे यूरोपीय राष्ट्रों, विशेषकर पहले स्पेन और पुर्तगाल और बाद में इंग्लैण्ड और फ्रांस, और उसके साथ-साथ हालैंड, और बेल्जियम तक ने साम्राज्य निर्माण अपना जन्मजात अधिकार समझा। अन्य महाद्वीपों में उपनिवेशों की स्थापना का सिलसिला बनाकर एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमरीका जैसे महाद्वीपों से लेकर छोटे-छोटे टापुओं को कब्जे में लिया। सबका मनमाना दोहन किया। देश में राष्ट्रवाद का मजबूत होना यूरोप में संहारक युद्ध और दुनिया के लिए साम्राज्यवाद के रूप में अभिशाप सिद्ध हुआ।

19वीं शताब्दी में यूरोप में राष्ट्र निर्माण के लिए भाषाई एकता को राष्ट्रीयता का आधार बनाया गया। लेकिन बीसवीं शताब्दी के मध्यकाल तक यूरोप महाद्वीप में भाषाई राष्ट्रवाद ने भयंकर युद्धों और नरसंहार को उत्पन्न किया। वर्ष 1914-18 और 1939-45 में तो राष्ट्रवाद ने क्रूरता की अति करके यूरोप में राष्ट्रवाद के प्रति मोहभंग का माहौल बनाया। राष्ट्रीयता से पहले स्थानीयता और प्रादेशिकता और राष्ट्रीयता से ऊपर अंतरराष्ट्रीयता की अनिवार्यता के जरिये राष्ट्रीय अहंकार को निर्मूल करने की पहल की जरूरत पैदा हुई। इससे एक तरफ संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गयी और दूसरी तरफ यूरोपीय देशों के महासंघ का निर्माण हुआ है।

(बाकी हिस्सा कल )

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