— डॉ. अनिल ठाकुर —
आजकल बिहार की राजनीति में भूचाल सा आया हुआ है। बिहार की धरती आरंभ से ही राजनीतिक आंदोलन की उर्वरा धरती रही है, वो गांधी का चंपारण आंदोलन हो या जेपी आंदोलन का आगाज। लेकिन आजकल बिहार की राजनीति में परिवारवाद की बहार है। खासकर लोकजनशक्ति पार्टी के बिखराव के बाद स्पष्ट रूप से दिख रहा है। परिवारवाद का राजनीति में अंतिम परिणाम क्या होता है वो लोकजनशक्ति पार्टी के अंदर दिख रहा है। जब तक रामविलास पासवान जिंदा थे तब तक पार्टी पर उनका एकछत्र राज था। राजनैतिक विश्लेषक उन्हें मौसम वैज्ञानिक भी कहते थे। लोकजनशक्ति पार्टी का गठन 2003 में उन्होंने किया था। ये भी एक दिलचस्प कहानी है। 2002 में हुए गुजरात दंगों के बाद जनता दल तथा एनडीए से उन्होंने अपना नाता तोड़ लिया था लेकिन फिर से 2014 में एनडीए से अपना रिश्ता बना लिया। हालांकि बीच में वे यूपीए का हिस्सा थे तथा मंत्रिमंडल के सदस्य भी थे। हालांकि उनका राजनीतिक कैरियर 1969 एवं 1977 से देखा जा सकता है। अभी मैं उन पहलुओं पर नहीं जाऊंगा। अभी तो बिहार की वर्तमान राजनीति के भूचाल पर विश्लेषण की आवश्यकता है।
आज लोकजनशक्ति पार्टी दो खेमों बंट चुकी है। लोकजनशक्ति पार्टी के दो खेमों में एक का नेतृत्व चिराग पासवान और दूसरे खेमे का नेतृत्व उनके चाचा पशुपति कुमार पारस के पास है। लेकिन यह लड़ाई सिर्फ चाचा और भतीजे की नहीं है। यह लड़ाई पार्टी में वर्चस्व की ही नहीं है। यह लड़ाई तो परिवारवाद का परिणाम है। जैसे परिवार में संपत्ति विभाजन को लेकर सदियों से होता रहा है। यह कोई नई बात नहीं है। ये तो परंपरा से चलता आ रहा है।
वैसे किसी दल का निर्माण किसी एक निश्चित विचारधारा पर होता रहा है। पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए एक विचारधारा की आवश्यकता होती है। इसलिए उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पार्टी का निर्माण भी किया जाता रहा है। भारत भी कोई अछूता नहीं है। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस का गठन किया गया था। देश आजाद हुआ तो गांधी चाहते थे कि कांग्रेस को अराजनैतिक संस्था का रूप दे दिया जाए लेकिन कांग्रेस के कुछ बड़े नेता यह नहीं चाहते थे। जिसका परिणाम सत्तर-अस्सी के दशक में देखने को मिला। जो परिवारवाद की गिरफ्त में आ गया। उसी को लेकर जेपी आंदोलन (1974) का निर्माण भी हुआ जो परिवारवाद के खिलाफ था। जिसमें यही परिवारवादी नेता शामिल थे।
जेपी देश में संपूर्ण क्रांति के द्वारा एक बड़ा बदलाव चाहते थे। उस आंदोलन का आधार सिर्फ सत्ता परिवर्तन का नहीं था।
उस दौर में परिवारवाद के साथ-साथ भ्रष्टाचार का भी बोलबाला था। इस आंदोलन ने गुजरात-बिहार से चलकर पूरे देश को एक दिशा देने का काम किया था। पूरे देश का युवा एवं छात्र सड़क पर आ गया था। सही में लगा था कि देश में एक बड़ा बदलाव होनेवाला है। सिर्फ सत्ता परिवर्तन ही नहीं होगा, भ्रष्टाचार एवं परिवारवाद से निजात भी मिलनेवाली है। डॉ लोहिया ने जिस गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया था वह सफल हो जाएगा। जेपी ने यहां तक कह दिया कि यह संपूर्ण क्रांति डॉ लोहिया का सप्त क्रांति सिद्धांत ही है। जेपी व लोहिया के शिष्यों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा भी लिया। कुछ हदतक सफलता भी मिली।
सत्ता परिवर्तन भी हुआ। लेकिन जेपी का यह भ्रम बहुत जल्दी ही खत्म हो गया। जेपी ने परिवारवाद के खिलाफ लड़ाई शुरू की थी, धीरे-धीरे देश परिवारवाद की गिरफ्त में पूरी तरह आ गया है। उन्हीं के शिष्यों ने खुलकर उन सिद्धांतों की धज्जियां उड़ाई हैं। वैसे आज कोई भी दल परिवारवाद से बचा नहीं है। ज्यादातर क्षेत्रीय दल इसके ज्यादा दोषी रहे हैं। वैसे तो पूरे देश में सभी दलों में परिवारवाद का वर्चस्व देखने को मिलता है। यह परिवारवाद कोई विचारधारा पर नहीं है। इस परिवारवाद का मुख्य आधार व्यक्तिवाद रहा है। जिसे बाद में जातिवाद का जामा पहना दिया गया। यह मामला सिर्फ जातिवाद तक सीमित नहीं रहा। आज वह जातिवाद के समानांतर धर्म आधारित सांप्रदायिकता पर पहुंच चुका है। आज वर्तमान में बड़े पैमाने पर फल-फूल रहा है।
हालांकि इसकी शुरुआत विशेष रूप से प्रधानमंत्री वीपी सिंह के समय मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के समय से हुई थी। बाद में अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंक दिया गया। हालांकि इसके लिए प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी कम दोषी नहीं थे। जिनके कामों में राम मंदिर का ताला खुलवाने, शाहबानो केस से लेकर पोप को बुलवाना तक शामिल है। और इन कामों ने देश को मंडल कमंडल के दौर में पहुंचा दिया। पाल ब्रास ने तो भारतीय राजनीति को मंडल बनाम कमंडल के रूप में परिभाषित किया। लेकिन इसके लिए किस-किस राजनीतिक दल को दोषी माना जाए।
खैर यहां हम भारतीय राजनीति में परिवारवाद की बात कर रहे थे। जो राजनीतिक दल कांग्रेस के परिवारवाद के खिलाफ संघर्षरत थे आज वही सबसे ज्यादा परिवारवाद की गिरफ्त में आ चुके हैं। वो मुलायम सिंह की पार्टी हो या लालू प्रसाद यादव की पार्टी या रामविलास पासवान की पार्टी। वैसे कुछ वामपंथी नेताओं को छोड़कर सभी राष्ट्रीय पार्टियां भी उसके हिस्से बन चुकी हैं। हालांकि केरल में वामपंथी नेताओं पर भी ये आरोप चला आ रहा है। खैर हम बिहार के संदर्भ में बात कर रहे थे कि लोकजनशक्ति पार्टी की टूट का क्या कारण रहा है? उसका क्या भविष्य होगा?
पता नहीं ये तो भविष्य के गर्भ में है। लेकिन पार्टी में कलह का कारण सिर्फ सत्ता पाने या पार्टी के ऊपर अपना वर्चस्व स्थापित करने की लड़ाई नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव रहा। पहले नेता वैचारिक आधार पर संघर्ष करते थे। उनका मुख्य उद्देश्य सिर्फ सत्ता पाना नहीं रहता था। वे विचारधारा को ध्यान में रखकर संघर्ष करते थे। जो विचारधारा के आधार पर सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की बात करते थे।
अब तो नेता चांदी के चम्मच में दूध पीकर राजनीति करते हैं। अब विचारधारा कोई अहमियत नहीं रखती है। लोकजनशक्ति पार्टी का संकट उसी का परिणाम है।
जिस तरह से पार्टी में बिखराव हुआ या टूट हुई वह एक दिन का परिणाम नहीं है। रामविलास पासवान के जाने के बाद यह बिखराव तय था। जब कोई पार्टी विचारधारा को त्याग देती है तो उसका यही हश्र होता है। जो इस पार्टी के अंदर भी देखने को मिला। क्योंकि उस परिवारवाद में चिराग पासवान बनाम परिवार के अन्य सदस्यों का झगड़ा था जो होना ही था। जो अन्य पार्टियों में भी दिखता रहा है। अब लोकजनशक्ति पार्टी का कलह परिवार के बीच से निकल कर सड़क पर आ चुका है। सभी एक दूसरे पर दोषारोपण करते मिलेंगे।
हालांकि दोष कुछ हद तक बिहार के मुख्यमंत्री पर भी मढ़ा जा रहा है। लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उतना दोष नहीं दिया जा सकता। इसमें बिहार चुनाव के दौरान जिस तरह से चिराग पासवान ने चुनाव लड़ने का निर्णय लिया वो एक कारण हो सकता है लेकिन सबकुछ नहीं हो सकता है। यह नेतृत्व की क्षमता पर निर्भर करता है कि आप कैसे सबको लेकर चलते हैं। यहीं चिराग पासवान असफल रहे। शायद रामविलास पासवान होते तो ऐसा नहीं होता। यदि नेतृत्व को सही समझ होती तो शायद ऐसा नहीं होता।
चिराग पासवान को बिहार के पार्टी अध्यक्ष के रूप में पशुपति कुमार पारस को नहीं हटाना चाहिए था। लेकिन गलती की गई जो बाद में नासूर बन गई। पार्टी को हर समय तानाशाही तरीके से नहीं चला सकते। वो परिवार की पार्टी हो या राष्ट्रीय हो। जबतक नेतृत्व मजबूत रहेगा तबतक नहीं बिखरेगी लेकिन जैसे ही नेतृत्व कमजोर होगा पार्टी बिखर जाएगी। वही हुआ भी। हालांकि राजनीतिक चिंतक मिशेल ने माना है कि दल में लोकतंत्र नहीं होता है। सिर्फ कोई भी दल लोकतंत्र का वाहक होता है। उसके अंदर लोकतंत्र का अभाव रहता है।
लेकिन दलों की भूमिका लोकतंत्र के लिए अहम होती है। क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बेहतर तरीके से चलाने के लिए कोई दूसरा विकल्प फिलहाल नहीं है। यदि वो लोकतांत्रिक तरीके से काम करें। विचारधारा को महत्त्व दें ना कि व्यक्ति को।
इसलिए लोकजनशक्ति पार्टी कोई अपवाद नहीं है। अब दोनों गुट अपनी ताकत दिखाने में लगे हैं। एक गुट के पास पांच सांसद हैं वहीं चिराग पासवान अकेले सांसद बच गए हैं। दोनों गुट चुनाव आयोग से लेकर लोकसभा अध्यक्ष के पास जा चुके हैं। हालांकि लोकसभा अध्यक्ष ने पारस गुट को लोकसभा में मान्यता दे दी है। अब चुनाव आयोग को तय करना पार्टी का चुनाव निशान किसे देते हैं। लेकिन उससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि जनता किसके साथ है। वैसे चिराग पासवान पांच जुलाई से रामविलास पासवान के जन्मदिन पर बिहार में यात्रा शुरू करने जा रहे हैं। देखना है इस कोराना के दौर कितने सफल होते हैं। वहीं पारस गुट भी अपनी ताकत का एहसास दिलाने में लगा है। पारस गुट भी देशभर में रामविलास पासवान के जन्मदिन पर कार्यक्रम करने जा रहा है। अब बिहार की जनता तय करेगी कि रामविलास पासवान के असली वारिस कौन हैं?
वैसे पारस गुट बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पक्ष में दिख रहा है। वहीं चिराग पासवान को तय करना है कि वह राम के हनुमान बनकर बीजेपी के साथ रहते हैं या आरजेडी के साथ जाते हैं। क्योंकि आरजेडी की तरफ से निमंत्रण भी आ रहा है। लेकिन अंतिम निर्णय चिराग पासवान को लेना है। यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा। लेकिन बिखराव का एक बड़ा कारण पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक निर्णय ना लेकर व्यक्तिवाद ज्यादा दिखा। जो बिखराव का बड़ा कारण बना है।
वैसे अब राजनीति करने का सबसे आसान रास्ता ढूंढ़ लिया गया है, वो है जाति एवं धर्म का आधार। उसकी आड़ में सारे सर्टिफिकेट मिल जाते हैं।
खासकर यह रवैया गांधी, आंबेडकर, लोहिया एवं जेपी की दुहाई देनेवाले नेताओं का है जो अपने को इनका शिष्य मानते हैं। उनलोगो ने राजनीति को एक नये मुकाम पर पहुंचा दिया है। आज तो राजनीति सत्ता की राजनीति बन चुकी है। विचारधारा तो बची ही नहीं है।
जबकि आज देश को एक अलग पहचान की राजनीति की आवश्यकता है जहां महंगाई, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, जातिवाद एवं परिवारवाद के खिलाफ लड़ने की जरूरत है। गांधी, आंबेडकर, जेपी, लोहिया के सपनों का भारत बनाने की आवश्यकता है। इन महान विभूतियों ने समाज को बदलने का काम किया। उसे पूरा करने की जरूरत है। आज जिनको इसके खिलाफ लड़ना था वही सबसे ज्यादा परिवारवाद की गिरफ्त में हैं। यदि इस तरह की राजनीति चलती रही तो देश और समाज को बड़ा दुष्परिणाम भुगतना पड़ेगा। देश और समाज को इस आग में झुलसना भी पड़ेगा।
लेकिन इन परिवारवादी नेताओं को भी समय नहीं बख्शेगा। उन्हें भी जवाब देना पड़ेगा। आज देश भ्रष्टाचार, मंहगाई के साथ-साथ सांप्रदायिकता, जातिवाद एवं परिवारवाद की प्रयोगशाला बन चुका है। इसके बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है।