— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
महज निर्वाचन का होना या जनता द्वारा सरकार में परिवर्तन देश में अत्याचार के विरुद्ध गारंटी नहीं है… उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन.वी. रमना ने यह बात कुछ दिनों पूर्व जस्टिस पी. डी. देसाई स्मृति व्याख्यान में कही। कुछ महीने पहले स्वीडन के एक संस्थान वी-डेम ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में भारत के जनतंत्र को एक ‘निर्वाचनीय एकतंत्र’ कहा था। इतना ही नहीं, भारत में राजनीतिक दलों के लिए येन केन प्रकारेण चुनाव जीतना ही राजनीतिक साध्य बनकर रह गया है।
इससे ऐसा लगने लगा है कि निर्वाचन जनतंत्र का पर्याय बन गया है जबकि निर्वाचन प्रतिनिधिमूलक जनतंत्र में वयस्क नागरिकों के द्वारा अपने जन प्रतिनिधियों को चुनने की प्रकिया है जिसमें व्यक्तिगत उम्मीदवार या दलीय उम्मीदवारों के बीच खुले मुकाबले में जीतनेवाले जन प्रतिनिधि होते हैं और वे शासकीय संस्था में विधायन से लेकर सारे शासकीय निर्णय करते हैं किंतु निष्पक्ष निर्वाचन प्रक्रिया के अभाव में राजनीतिक दल जातीय या सांप्रदायिक उन्माद पैदा करके, धनबल और बाहुबल से चुनाव में जीत हासिल कर एक बहुमततंत्र या एकतंत्र स्थापित कर सकता है।
यद्यपि उपरोक्त कथनों का अर्थ भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था में कुछ वर्षों में बढ़ती अनुदारवादी और अलोकतांत्रिक प्रकृति की ओर इशारा करना है लेकिन देश अतीत में आपातकाल का दुखद राजनीतिक अनुभव कर चुका है। यहाँ भारतीय जनतंत्र के महज चुनावीतंत्र बनकर रह जाने से उत्पन्न संकट और उसके कुछ राजनीतिक निवारण को केंद्र में रखा गया है।
भारत में गणतंत्रीय संसदीय लोकतंत्र की राजनीतिक प्रणाली को अपनाया गया। संविधान लागू होने के बाद 1951-52 से निर्वाचन की प्रक्रिया के द्वारा लोकसभा, राज्यों की विधानसभा से लेकर राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यसभा, विधान परिषद तथा पंचायती राज की संस्थाओं के लिए जन प्रतिनिधि चुने जाते रहे हैं। अतः अन्य देशों की जनतंत्र प्रणाली की तरह निर्वाचन की प्रक्रिया भारत के भी प्रतिनिधिमूलक जनतंत्र की संवैधानिक अनिवार्यता है।
किंतु एक स्वतंत्र तथा निष्पक्ष निर्वाचन प्रक्रिया सुनिश्चित किये बिना भारतीय जनतंत्र को मजबूत व सुरक्षित नहीं बनाया जा सकता। सरकार के कार्यपालक अंग के किसी भी हस्तक्षेप से मुक्त संघीय निर्वाचन आयोग तथा राज्यों में पंचायती राज के निर्वाचन के लिए राज्य निर्वाचन आयोग का गठन आवश्यक है। साथ ही निर्वाचन की प्रक्रिया में धन, बल तथा अन्य किसी भी अवैधानिक शक्ति के प्रयोग को रोकना निर्वाचन करानेवाली संस्था की जिम्मेदारी है।
वस्तुत: जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के निर्वाचन की प्रक्रिया में सभी सामाजिक, धार्मिक, लैंगिक तथा अन्य समूहों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की आवश्यकता है किंतु जनतंत्र में राजनीतिक दलों के उदय और विकास के बाद निर्वाचन दलीय व्यवस्था पर आधारित हो गया है और निर्वाचन में व्यक्तियों के बजाय दलीय प्रतिनिधित्व हो गया है। जन प्रतिनिधि के लिए दलों के द्वारा उम्मीदवारों के चयन में नागरिकों या मतदाताओं की कोई भूमिका नहीं है। परिणामत: राजनीतिक दलों के द्वारा उम्मीदवारों के चयन में क्षेत्र में लोकप्रियता व जन सरोकार की जगह धन, बल या जातिगत व धार्मिक आधार अधिक प्रभावकारी कारक हो गया है।
इतना ही नही, निर्वाचन में मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए दलों के घोषणापत्र या दल के द्वारा भविष्य में तय की जानेवाली नीतियों व राजनीतिक कार्यक्रमों को अधिक प्रचारित करने के बजाय जाति, धर्म आदि आधारों को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसी स्थिति में दलीय आधार पर निर्वाचन अंततः जनतंत्र का पर्याय बन जाता है अर्थात निर्वाचन जनतंत्र में साधन की जगह साध्य बन जाता है।
चुनावी जीत हासिल करना ही दलों के लिए जनतंत्र का जश्न है। जबकि हमारे राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की कमी और उनके आर्थिक स्रोतों के विषय में पारदर्शिता का अभाव स्वस्थ जनतंत्र के लिए बाधक रहा है!
भारत में निर्वाचन प्रक्रिया को स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा पारदर्शी बनाने के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने चुनाव सुधारों की आवश्यकता पर जोर डाला था और ‘लोकतंत्र के लिए नागरिक’ (सिटिजंस फॉर डेमोक्रेसी) संगठन की ओर से 1974 में जस्टिस वीएम तारकुंडे की अध्यक्षता में एक चुनाव सुधार समिति का गठन किया था जिसने चुनाव सुधार के संबंध में कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये थे। सरकार ने भी समय-समय पर चुनाव सुधार के लिए कई चुनाव सुधार समिति बनाई थी जिसमें जनता दल की सरकार के समय दिनेश गोस्वामी समिति (1990) तथा संयुक्त मोर्चा सरकार के समय इंद्रजीत गुप्ता समिति ने चुनाव सुधार के लिए कई आवश्यक सुझाव दिये थे। निर्वाचन में राजनीतिक दलों के धन के प्रभाव को रोकने के लिए राज्य के द्वारा फंडिंग का इंद्रजीत गुप्ता समिति का सुझाव सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था जो अभी तक सपना ही है।
भारतीय जनतंत्र में राजनीतिक दलों में लगातार बढ़ती अलोकतांत्रिक कार्यप्रणाली, दलों में वंशवाद व परिवारवाद, दलों के आर्थिक स्रोतों में अपारदर्शिता, उम्मीदवारों के चयन में धनबल, बाहुबल, अपराधियों व दलबदलुओं को बढ़ती प्राथमिकता तथा निर्वाचन के बाद अपने तथाकथित घोषणापत्रों के प्रति पूरी उदासीनता और जन-प्रतिनिधियों का अपने निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी न होना आदि ऐसी बुराई हैं जिन्हें दूर करने के लिए स्वतंत्र, निष्पक्ष व जन-सरोकारी चुनाव सुधार समिति की नितांत आवश्यकता है। इस संबंध में निम्न आवश्यक सुधारों की पहल विचारणीय विषय है :
दलीय उम्मीदवारों के चयन में जन भागीदारी की जरूरत
जनतंत्र में जनता मतदान के द्वारा प्रतिनिधियों को चुनती है किंतु प्रतिनिधियों के लिए उम्मीदवारों के चयन में मतदाता की कोई हिस्सेदारी न हो तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया विरोधाभासी दिखायी देती है। सामान्यतः राजनीतिक दल निर्वाचन क्षेत्रों से अपने दल के उम्मीदवार का चयन करते हैं और जनता मतदाता के रूप में उन्हीं उम्मीदवारों में से किसी को मतदान करने के लिए बाध्य होती है। मूलतः यह राजनीतिक दलों के बीच का मुकाबला बनकर रह जाता है। राजनीतिक दलों में भी उम्मीदवारों के चयन की कोई वस्तुपरक पारदर्शी पद्धति नहीं होती।
इतना ही नहीं, कई बार किसी निर्वाचन क्षेत्र से ऐसे उम्मीदवार उतारे जाते हैं जो उस निर्वाचन क्षेत्र के निवासी भी नहीं होते। इस प्रकार ऐसा व्यक्ति चुनाव जीतकर उस क्षेत्र का जन-प्रतिनिधि बन जाता है जिसे उस क्षेत्र की ना तो समझ होती है और ना ही क्षेत्र की समस्याओं की कोई जानकारी। वस्तुतः यह प्रक्रिया जनतंत्र के मूल सिंद्धांत के विरुद्ध है क्योंकि जनतंत्र में मतदाता और उम्मीदवार के बीच सीधा संबंध जरूरी है तभी वो सही मायने में जन-प्रतिनिधि कहला सकता है।
ऐसे में जनतंत्र समय के साथ दलीय जनतंत्र बनकर रह जाता है और दल के शिखर पर बैठे कुछ महत्त्वपूर्ण नेताओं के द्वारा सारे निर्णय लेकर दल के कार्यकर्ताओं पर थोप दिया जाता है।
दल के अंदर हाईकमान की संस्कृति तथा अल्पतंत्र का लौह आवरण दल को पूरी तरह से अलोकतांत्रिक बनाता है। सच तो यह है कि जनतंत्र में राजनीतिक दलों के बढ़ते प्रभाव के कारण जनतंत्र के मूल उदेश्य लुप्त हो गए हैं। इसलिये एम.एन. रॉय तथा जयप्रकाश नारायण जैसे राजनीतिक विचारकों ने दलीय लोकतंत्र की जगह दलविहीन लोकतंत्र की वकालत की थी।
दलों का घोषणापत्र के प्रति उत्तरदायी होना
निर्वाचन प्रक्रिया में दलों के द्वारा चुनाव घोषणापत्र निकाला जाता है। यह घोषणापत्र दल के द्वारा जनता से चुनाव पूर्व किया गया राजनीतिक वायदा होता है जिसके आधार पर सिद्धांतत: मतदाता उस दल के उम्मीदवार को मतदान करता है किंतु यदि मतदान के बाद वो दल या उसका जीता हुआ प्रतिनिधि उन वायदों को अपने कार्यकाल में पूरा नहीं करता तो जनता के पास क्या विकल्प रह जाता है? अगले चुनाव की प्रतीक्षा, ताकि उस उम्मीदवार को चुनाव में पराजित किया जा सके किंतु यदि दल उस उम्मीदवार को उस क्षेत्र से प्रत्याशी न बनाये और किसी दूसरे व्यक्ति को उम्मीदवार बना दे तो मतदाता क्या करे?
इस परिस्थिति में मतदाता के पास एक विकल्प है कि उस दल को ही मतदान ना करे किंतु यदि दूसरे विजयी दल या उम्मीदवार के द्वारा भी ऐसा ही होता है तो मतदाता क्या करेगा? अतः किसी अन्य विकल्प की आवश्यकता है ताकि दल और उम्मीदवार को मतदाता के प्रति उत्तरदायी बनाया जा सके। इस संबंध में कार्यकाल के बीच जन-प्रतिनिधि को मतदाता के द्वारा वापस बुलाने का अधिकार (राइट टु रिकॉल) एक जरूरी राजनीतिक सुधार हो सकता है। मूलतः जन-प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार भारतीय राजनीति में जयप्रकाश नारायण के द्वारा प्रस्तावित विचार था जिसकी नितांत आवश्यकता है।
निर्वाचन में उम्मीदवारों के बीच मतदाता को किसी भी उम्मीदवार की योग्यता में विश्वास नहीं होने की सूरत में मतपत्र में ‘नोटा’ का प्रावधान किया गया है ताकि सभी उम्मीदवारों को योग्य ना समझने की स्थिति में उन्हें नकारा जा सके और पुन: चुनाव कराया जा सके। नोटा का प्रावधान हो और नोटा की संख्या बहुमत में होने पर चुनाव दुबारा कराने का प्रावधान न हो तो यह अधूरा प्रयास होगा और इससे उम्मीदवारों की योग्यता सुनिश्चित करने में मतदाताओं को कोई सहायता नहीं मिलेगी।
छोटे निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव व्यय कम होगा
राष्ट्रीय स्तर या राज्य के स्तर पर निर्वाचन क्षेत्रों का आकार और मतदाताओं की बड़ी संख्या भी चुनाव के पूर्व उम्मीदवारों और मतदाता के बीच सीधा संपर्क बनाने में बहुत बड़ी बाधा है और चुनाव के पश्चात भी क्षेत्र की जनता और जन प्रतिनिधि के बीच सीधा संपर्क बनाने में मुश्किल पैदा करती है। इतना ही नहीं, आकार और जनसंख्या की विशालता के कारण चुनाव प्रचार का व्यय भी काफी हो जाता है। अतः न मतदाता को लाभ और न उम्मीदवारों को फ़ायदा। निर्वाचन क्षेत्रों का लघु आकार और कम संख्या से जनतंत्र को मजबूती मिल सकती है। अतः चुनाव की प्रक्रिया में ऐसे सुधारों की नितांत आवश्यकता है। इन चुनाव सुधारों के लिए जनमत का निर्माण तभी संभव है जब तमाम जन संगठन और नागरिक समाज इन सुधारों की मांग करें और जन संचार माध्यम इन मांगों के समर्थन में जनमत का निर्माण करने में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाएं।
निष्पक्ष निर्वाचन, जन प्रतिनिधित्व के लिए उम्मीदवारों के चयन में क्षेत्र के मतदाताओं की भागीदारी, निर्वाचन के पश्चात जन-प्रतिनिधियों का क्षेत्र की जनता के प्रति उत्तरदायित्व तथा चुनाव व्यय की कमी करने के लिए निर्वाचन क्षेत्र के आकार और खासकर मतदाता-संख्या में कमी आवश्यक चुनाव सुधार व जनतंत्र को धरातल पर उतारने की दिशा में उचित राजनैतिक कदम हो सकता है।
इस संबंध में एक महत्त्वपूर्ण चुनाव सुधार जिसकी मांग लगातार होती रही है वो है एक तरफ चुनाव आयोग के आयुक्तों के चयन में सरकार की भूमिका को समाप्त करना तथा उनके निर्वाचन में पारदर्शी चयन प्रक्रिया अपनाना, और चुनाव में राज्य के द्वारा मान्यता प्राप्त उन राजनीतिक दलों को वित्तीय सहायता जो आंतरिक लोकतंत्र अपनाते हैं और उम्मीदवारों के चयन में जनभागिता तथा चुनाव प्रचार में संविधान के प्रावधानों व मूल्यों का पालन करते हैं।
अतः अब जनतंत्र के जनतांत्रिकीकरण की जरूरत है, इसके लिए मतदाताओं का सशक्तीकरण आवश्यक है। उसको सही और प्रामाणिक सूचना पाने का अधिकार है जो तभी संभव है जब जनसंचार माध्यम स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा निर्भीक हों और इसके लिए राज्य व कॉरपोरेट के नियंत्रण से मुक्त वैकल्पिक जनसंचार माध्यम नागरिक समाज के सहयोग से विकसित करने की आवश्यकता है। निष्पक्ष निर्वाचन के बिना जनतंत्र में ईमानदार तथा जन-सरोकारी व उत्तरदायी जन-प्रतिनिधियों का चुनाव संभव नहीं।