(इस पत्र में फादर स्टेन स्वामी ने अपनी उन सभी गतिविधियों का जिक्र किया है जिनके कारण उन्हें राजद्रोह का आरोपी बनाया गया। यह पत्र उन्होंने अंग्रेजी में तब लिखा था जब झारखंड के आदिवासियों के पत्थलगढ़ी आंदोलन का समर्थन करने के कारण अधिकारियों ने उनके खिलाफ राजद्रोह का केस बनाया था। यह पत्र पहली बार 1 अगस्त 2018 को प्रकाशित हुआ था। उनकी स्मृति में वह खुला पत्र यहां प्रकाशित किया जा रहा है जो बताता है कि असल में उनका गुनाह क्या था।)
पिछले दो दशक में मैंने स्वयं को आदिवासियों के साथ और गरिमा तथा आत्मसम्मान से जीने के उनके संघर्ष के साथ जोड़ लिया है। जिन मसलों से वे जूझ रहे हैं, एक लेखक के तौर पर, मैंने उनका विश्लेषण करने की कोशिश की है। इस प्रक्रिया में मैंने अनेक नीतियों से, और देश के संविधान की रोशनी में सरकार के बनाए अनेक कानूनों से अपनी असहमति जाहिर की है। सरकार और सत्ताधारी वर्ग के अनेक कदमों की वैधता, संवैधानिकता और औचित्य पर मैंने सवाल उठाये हैं।
जहां तक पत्थलगढ़ी मुद्दे की बात है, मेरा सवाल था कि “आदिवासी ऐसा क्यों कर रहे हैं?” मैं मानता हूं कि उनका इस हद तक शोषण व उत्पीड़न किया जाता रहा है जो असह्य है। उनकी भूमि से प्राप्त होनेवाले खनिजों ने उद्योगपतियों और कारोबारियों को तो मालामाल किया है, पर इस खनन ने आदिवासियों को इस हद तक कंगाल बना दिया है कि वे भुखमरी के कगार पर पहुंच गये हैं, भूख से मौतें भी होती हैं।
उनकी भूमि से जो प्राप्त होता है उसमें उनका कोई हिस्सा नहीं है। इसके अलावा, उनके हित में बनायी गयी नीतियों और कानूनों पर जानबूझ कर अमल नहीं किया जाता है। सो, अब वे अपने को एक ऐसी स्थिति में पाते हैं जहां उन्हें लगता है ‘बहुत हो चुका’, और वे पत्थलगढ़ी के जरिए अपनी ग्राम सभा का सशक्तीकरण करके अपनी अस्मिता की पुनर्खोज करना चाहते हैं। उनकी यह मुहिम समझी जा सकती है।
कुछ सवाल जो मैंने उठाये हैं, इस प्रकार हैं –
1. मैंने संविधान की पांचवीं अनुसूची का क्रियान्वयन न किये जाने पर सवाल उठाये हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद 244 (1) स्पष्ट रूप से कहता है कि जनजातीय सलाहकार परिषद (टीएसी), जिसके सदस्य सिर्फ आदिवासी समुदाय से होंगे, वैसे हरेक मामले में राज्य के राज्यपाल को सलाह देगी, जो मामले आदिवासियों के संरक्षण, हित और विकास से संबंधित होंगे। राज्यपाल आदिवासी जनता का संवैधानिक संरक्षक है और वह आदिवासी जनता के हित को सदा ध्यान में रखते हुए कानून बना सकता (सकती) है और संसद या विधानसभा द्वारा बनाये गये अन्य कानून को रद्द कर सकता (सकती) है। जबकि हकीकत यह है कि लगभग सात दशक में किसी भी राज्य में राज्यपाल ने आदिवासियों के हक में अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल नहीं किया है, इस बिना पर या इस बहाने से कि उन्हें निर्वाचित सरकार के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से काम करना है। शायद ही कभी टीएसी की मीटिंग होती है, और होती भी है तो राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा बुलायी जाती है और सत्ताधारी पार्टी के द्वारा नियंत्रित होती है। इस तरह टीएसी एक नख-दंत विहीन संस्था होकर रह गयी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आदिवासी संवैधानिक धोखाधड़ी के शिकार हैं।
2. मैंने यह सवाल उठाया है कि पंचायत (अधिसूचित क्षेत्रों तक विस्तार अधिनियम) यानी‘पेसा’, 1996 को क्यों ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है जिसने पहली बार इस तथ्य को रेखांकित किया कि भारत के आदिवासियों की, ग्राम सभा के जरिये, स्वशासन की एक समृद्ध सामाजिक व सांस्कृतिक परंपरा है। जबकि सच्चाई यह है कि संसद से बने इस कानून को सभी नौ राज्यों में जान-बूझकर क्रियान्वित नहीं किया गया है। इसका अर्थ यही है कि पूंजीवादी शासक वर्ग नहीं चाहता कि आदिवासी अपने ऊपर स्वयं राज करें।
3. मैंने सुप्रीम कोर्ट के समाता फैसले, 1997 पर सरकार की खामोशी को लेकर सवाल उठाया है, यह फैसला अधिसूचित क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों के लिए बड़ी राहत लेकर आया था। सर्वोच्च अदालत का यह फैसला ऐसे वक्त आया था जब वैश्वीकरण, उदारीकरण, बाजारीकरण और निजीकरण की नीतियों के फलस्वरूप कॉरपोरेट घरानों ने खासकर मध्य भात के आदिवासी क्षेत्रों में खनिजों के लिए धावा बोलना शुरू किया था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आदिवासियों को कुछ अहम हिफाजत की गुंजाइश देता था ताकि वे अपनी भूमि से खनिज निकालने के काम में कुछ दखल रख सकें जो उनके आर्थिक विकास में मददगार साबित हो। जबकि सच्चाई यह है कि राज्य (यानी हमारी सरकारों) ने सर्वोच्च अदालत के इस फैसले की पूरी तरह अनदेखी कर रखी है। प्रभावित समुदायों की तरफ से अदालत में कई अर्जिंया दायर की गयीं, पर औपनिवेशिक जमाने के ‘सर्वोपरि अधिकार के कानून’ का इस्तेमाल आदिवासी की जमीन के स्वामित्व-हरण और खनिज भंडारों की लूट के लिए किया जाता रहा है।
4. मैंने यह सवाल उठाया है कि वनाधिकार कानून, 2006 को सरकार ने आधे-अधूरे मन से लागू किया है। हम जानते हैं कि जल, जंगल, जमीन, आदिवासियों की गुजर-बसर का आधार हैं। जबकि दशकों से जंगलों पर उनके परंपरागत हक बड़े व्यवस्थित ढंग से कुचले जाते रहे हैं। लंबे अरसे बाद, आखिरकार सरकार को लगा कि आदिवासियों और जंगलों में परंपरागत रूप से रहनेवाले अन्य समुदायों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है। इस विसंगति को दूर करने के लिए यह कानून बनाया गया था। जबकि जो अपेक्षा की गयी थी, वास्तविकता उससे बहुत अलग है। वनाधिकार कानून लागू होने यानी 2006 से 2011 के बीच पट्टे के लिए 30 लाख आवेदन किये गये, जिनमें से केवल 11 लाख मंजूर किये गये, 14 लाख आवेदन खारिज कर दिये गये, और 5 लाख आवेदन लंबित हैं। हाल में झारखंड सरकार औद्योगिक इकाइयां बिठाने के लिए जमीन अधिग्रहीत करने की प्रक्रिया में ग्राम सभा से कतराने की कोशिश कर रही है।
5. मैंने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर सरकार की निष्क्रियता को लेकर सवाल उठाया है जिस फैसले में कहा गया है कि‘भूमि का मालिक भूमि के नीचे के खनिज का भी मालिक है।’ सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले में कहा कि ‘हमारी राय में कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है जो घोषित करता हो कि भूमि के नीचे की सारी खनिज संपदा के अधिकार राज्य में निहित हैं, दूसरी तरफ, भूमि के नीचे की खनिज संपदा पर स्वामित्व सामान्यतः भूमि के स्वामी का होना चाहिए, बशर्ते उसे भूमि के स्वामित्व से, किसी वैध प्रक्रिया के जरिये, वंचित न कर दिया गया हो।’ आदिवासियों की जमीन के नीचे की खनिज संपदा की लूट सरकार और कंपनियां कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने देश में 219 खदानों में से 214 खदानों को गैरकानूनी घोषित करते हुए उन्हें बंद करने का आदेश दिया था तथा अवैध खनन के लिए उन पर जुर्माना भी लगाया था। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों ने इन गैरकानूनी खदानों को, नीलामी के जरिये पुनः आवंटित करके, कानून-सम्मत बनाने की चोर-गली निकाल ली!
6. मैंने सुप्रीम कोर्ट की उस राय की अनदेखी किये जाने पर सवाल उठाया है जिसमें उसने कहा था कि‘किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य-भर होने से किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं माना जा सकता, जब तक उसने हिंसा न की हो या लोगों को हिंसा करने के लिए न उकसाया हो, या हिंसा करके या हिंसा के लिए भड़का करके सार्वजनिक अव्यवस्था न फैलायी हो।’ शीर्ष अदालत ने ‘सिर्फ संबद्धता के आधार पर दोषी मानने के सिद्धांत’ को खारिज कर दिया। यह आम जानकारी में है कि कई युवक और युवतियां सिर्फ नक्सलियों के मददगार होने के शक की बिना पर जेलों में बंद हैं। गिरफ्तारी के बाद उन पर और भी धाराएं लगा दी गयी हैं। यह बहुत आसान बहाना है, अगर पुलिस किसी को गिरफ्तार करना चाहती है। इसके लिए किसी सबूत या गवाह की जरूरत नहीं पड़ती। सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना भी किसी को अपराधी नहीं बना देता। लेकिन जिनके पास कानून व्यवस्था की शक्तियां हैं उनका व्यवहार सुप्रीम कोर्ट की राय से कितना अलहदा है!
7. भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में झारखंड सरकार ने हाल में जो संशोधन किये हैं, मैंने उन पर सवाल उठाया है। ये संशोधन आदिवासियों के लिए मौत की घंटी हैं। ये संशोधन किसी भी परियोजना के‘सामाजिक प्रभाव आकलन’ (सोशल इम्पैक्ट एसेसमेंट) की जरूरत को खत्म कर देंगे, जिसका प्रावधान पर्यावरण तथा प्रभावित समुदाय के सामाजिक संबंधों और सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के उद्देश्य से किया गया था। सबसे खतरनाक पहलू यह है कि सरकार किसी भी कृषिभूमि के गैर-कृषि उपयोग की इजाजत दे सकती है।
8. मैंने भूमि बैंक (लैंड बैंक) पर सवाल उठाया है जिसे मैं आदिवासियों की बरबादी का सबसे नया षड्यंत्र मानता हूं। फऱवरी 2017 में‘मोमेंटम झारखंड’ के दौरान सरकार ने घोषित किया कि लैंड बैंक में 21 लाख एकड़ जमीन है जिसमें से 10 लाख एकड़ जमीन उद्योगपतियों को देने के लिए तैयार है।
‘गैर मजुरवा जमीन’ (परती जमीन) ‘खास’ (निजी) भी हो सकती है और ‘आम’ (साझा) भी। आदिवासी परिवार या समुदाय पारंपरिक रूप से ऐसी जमीन (जमाबंदी) का हक रखते और उपयोग करते आए हैं। यह बड़ी हैरानी की बात है कि सरकार ने सारे ‘जमाबंदी’ पट्टों को निरस्त कर दिया है और दावा कर रही है कि सारी ‘गैर मजुरवा’ जमीन सरकार की है और इसे वह किसी को भी (पढ़िए औद्योगिक घरानों को), छोटी या बड़ी औद्योगिक इकाइयां बिठाने के लिए आवंटित करने को स्वतंत्र है।
आदिवासियों की जमीन किस तरह छीनी जा रही है इस बारे में वे अंधेरे मे हैं। जनजातीय सलाहकार परिषद ने अपनी मंजूरी नहीं दी है, जो कि पांचवीं अनुसूची के मुताबिक जरूरी है, संबंधित ग्राम सभाओं ने अपनी रजामंदी नहीं दी है, जो कि पेसा अधिनियम के मुताबिक जरूरी है, प्रभावित आदिवासी आबादी ने अपनी सहमति नहीं दी है, जो कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 के मुताबिक जरूरी है।
ऊपर्युक्त मुद्दे मैं बराबर उठाता रहा हूं।
अगर ये मुद्दे उठाने से मैं ‘देशद्रोही’ हो जाता हूं तो यही सही!
(‘सबरंग इंडिया’से साभार )