क्रांति का बिगुल : पांचवीं और अंतिम किस्त

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— अनिल सिन्हा —

आजाद दस्ता

ह आंदोलन का तीसरा चरण था और सबसे साहसिक। मार्च, 1943 में नेपाल की तराई में जयप्रकाश नारायण ने आजाद दस्तों का गठन किया। आंदोलन के धीमा पड़ने के बाद उठाये गये इस कदम का उद्देश्य यह था कि जब तक क्रांति का दूसरा उभार आए, लोगों को सरकार से लड़ने के लिए तैयार रखा जाए और सरकार को असानी से शासन चलाने नहीं दिया जाए। इसके पहले दिल्ली में भूमिगत गतिविधियों के लिए बनी केंद्रीय संचालक मंडल की एक बैठक हुई जिसमें इसके स्वरूप की चर्चा हुई।

नेपाल की तराई में कोसी नदी में बकरो का टापू नामक जगह में शुरू हुए इस आजाद दस्ते के सुप्रीम कमांडर जेपी थे और इसके प्रचार प्रमुख थे डॉ राममनोहर लोहिया। बिहार के लिए जो दस्ता बना था, उसके कमांडर सूरज नारायण सिंह बने।

आजाद दस्ते के बारे में डॉ लोहिया की ओर से निकाली गयी पुस्तिकाओं से पता चलता है कि यह हथियारबंद क्रांति के परंपरागत तरीके से अलग था और इसमें हत्या नहीं करने की सिफारिश की गयी थी। इसमें तोड़फोड़ पर जोर था ताकि अंग्रेजी शासन को पंगु बनाया जा सके। जन-उभार के जरिए थाने आदि पर कब्जा करने की सीख दी गयी थी। हथियारों का इस्तेमाल पुलिस से लड़ने तक सीमित था। इसमें जुलूस पर गोली चलानेवाले पुलिस की बंदूक छीनने की इजाजत तो है, लेकिन खुद गोली चलाने की नहीं।

आजाद दस्ता की सबसे चर्चित कार्रवाई मई, 1943 में जेपी और लोहिया को हनुमान नगर में पुलिस की हिरासत से छुड़ाने की थी। सूरज नारायण सिंह के नेतृत्व में हुई इस कार्रवाई ने लोगों में जोश भर दिया। आजाद दस्ते से प्रशिक्षित लोगों ने दिसंबर 1943 में जेपी की गिरफ्तारी के बाद भी छापामार लड़ाई जारी रखी और उन्होंने प्रशासन को काफी परेशान किया। उनका प्रभाव गंगा और कोशी तथा आसपास की पहाड़ियों में था। कई समूह बन गये थे जिनपर केंद्रीय नियंत्रण नहीं रह गया था। ये समूह 1944 के अंत तक चलते रहे लेकिन धीरे-धीरे उनका सफाया हो गया। इनकी भूमिका राबिनहुड वाली थी। ये पैसे और अनाज लूटकर किसानों और गरीबों में बांट देते थे। ये पुलिस और जमींदारों के अत्याचार के विरोध में लड़ते थे।

बिहार के इन इलाकों में ये क्रांतिकारी लोगों की सामूहिक स्मृति का हिस्सा बन गये हैं और लोककथाओं के नायक हैं। ऐसा ही एक नाम पूर्णिया जिले के ऩक्षत्र मालाकार का है जिसकी कहानी प्रसिद्ध लेखक फणीस्वरनाथ रेणु ने अपने उपन्यास ‘मैला आंचल’ में लिखकर उसे अमर बना दिया है।

मालाकार 1936 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की ओर से सोनपुर में आयोजित एक ग्रीष्म विद्यालय में आए तो जयप्रकाश नारायण ने उनका नाम नछत्तर माली से बदलकर नक्षत्र मालाकार रख दिया था। जेपी इस विद्यालय के प्रिंसिपल थे।

दिसंबर, 1943 में दिल्ली से पंजाब जाते हुए जेपी पकड़े गए और उन्हें लाहौर के किले में बंद कर दिया गया। छह महीने बाद, लोहिया को 19 मई, 1944 को बंबई से गिरफ्तार किया गया। दोनों के सिर पर दस-दस हजार का इनाम था। वहां उन्हें और उनके साथियों, रामनंदन मिश्र आदि को घोर यातनाएं दी गयीं। लेकिन लाहौर किले के इन कैदियों को तब तक नहीं छोड़ा गया जब तक आजादी मिलने की हलचल शुरू नहीं हो गयी। उनकी रिहाई के लिए महात्मा गांधी को जोर लगाना पड़ा। कैबिनेट मिशन के भारत आने के बाद उन्हें 11 अप्रैल 1946 को आगरा जेल से रिहा किया गया तो अपार भीड़ उनके स्वागत के लिए खड़ी थी। दोनों जहां-जहां गये उनके स्वागत में काफी भीड़ उमड़ पड़ती थी।

भूमिगत आंदोलन का संचालन करनेवाली दो प्रमुख हस्तियों- अच्युत राव पटवर्धन और अरुणा आसफ अली को अंत तक पकड़ा नहीं जा सका।

तूफान के बाद

भारत छोड़ो के प्रस्ताव में नये भारत की तस्वीर रखी गयी थी। आंदोलन का आकर्षण ऐसा था कि इसमें लोगों ने मजहब, विचारधारा, जाति तथा क्षेत्र के बंधनों को तोड़कर हिस्सा लिया। मुस्लिम लीग के विरोध के कारण मुसलमानों ने बड़ी संख्या में हिस्सा नहीं लिया, लेकिन उन्होंने इसे अपना परोक्ष समर्थन दिया। मजहबी एकता ऐसी रही कि कुछ समय पहले तक जो सांप्रदायिक तनाव का माहौल था, वह गायब हो गया। सांप्रदायिक झगड़े की कोई घटना नहीं हुई। गांधीजी ने हिंदू-मुस्लिम एकता की जो अपील की थी, वह असरकारी सिद्ध हुई।

आंदेालन को हर तबके का समर्थन मिला। इसमें सरकारी कर्मचारी भी शामिल थे, दस्तावेज बताते हैं कि कई कर्मचारियों पर आंदोलन का साथ देने का आरोप था। बिहार में सैकड़ों पुलिस कांस्टेबलों ने विद्रोह किया।

आंदोलन को लेकर गांधीजी का रवैया गिरफ्तारी के बाद भी आक्रामक बना रहा और उन्होंने 8 अगस्त, 1942 के प्रस्ताव को वापस लेने या उससे अलग रहने के ब्रिटिश सरकार के आग्रह को खारिज कर दिया। उन्होंने हिंसक घटनाओं के लिए सरकार को जिम्मेदार बताया और कहा कि कांग्रेस-नेताओं की गिरफ्तारी पर जनता खुद पर नियंत्रण खो बैठी। वह आखिर तक इस आरोप पर डटे रहे कि हिंसा की जिम्मेदारी सरकार की है।

उन्होंने अंग्रेजों पर आरोप लगाया कि युद्ध में मित्र-राष्ट्रों के हितों से ज्यादा उन्हें भारत पर अपने कब्जे को कायम रखने से मतलब है। उन्होंने साफ कर दिया कि कांग्रेस-नेताओं की रिहाई और दमन रोकने से ही कोई मेल-मिलाप का रास्ता निकल सकता है।

पुणे के आगा खां पैलेस में अपने दो निकटतम व्यक्तियों, सचिव महादेव देसाई और पत्नी कस्तूरबा, की चिता को आग लगाने के बाद लोगों से बातचीत-संवाद से दूर रखने की पाबंदी को उन्होंने 21 महीने तक सहा और इस दौरान, कांग्रेस-नेताओं की रिहाई और दमन रोकने की मांग को लेकर और गतिरोध दूर करने के लिए उन्होंने 21 दिनों का अनशन किया जो 73 वर्ष की उम्र में प्राणघातक हो सकता था। डॉक्टरों की राय को ध्यान में रखकर अंग्रेज सरकार ने तो मान ही लिया था कि वह इस बार बचेंगे नहीं, और वायसराय लिनलिथगो ने उनकी अंत्येष्टि की तैयारी भी कर ली थी। गांधी ने त्याग और साहस का वैसा ही उदाहरण पेश किया जैसा उनके जैसे महानायक से लोग उम्मीद करते हैं।

(समाप्त )

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