— रितु कौशिक —
आठ महीनों से किसान आंदोलन को नजदीक से देख रही हूं। हजारों किसानों से रूबरू होने का मौका मिला। एक बात दावे से कह सकती हूं कि सरकार यदि सोच रही है कि बल प्रयोग से या फिर थका कर किसान आंदोलन को कुचल देगी तो यह सरकार की बड़ी गलतफहमी है। इन साढ़े आठ महीनों में किसानों ने प्रकृति की मार आंधी, तूफान, बारिश, बेइंतहा सर्दी और गर्मी को झेला है, सड़क पर खुले आसमान के नीचे बिना किसी मूलभूत सुविधा के जीना सीखा है। वहीं दूसरी तरफ सरकार की ओर से शुरू से ही आंदोलन के प्रति आम जनता के मन में नकारात्मक भाव और विरोधी भावना भरने के लिए कहा जा रहा है कि जो आंदोलन कर रहे हैं वे असली किसान नहीं हैं। किसानों के लिए खालिस्तानी, आतंकवादी, पाकिस्तानी, नक्सली, मवाली जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की गयी, पर किसानों ने सारी साजिशों को नाकाम कर दिया। इतना ही नहीं, रास्ते पर लोहे की कीलें बिछाकर आंदोलनकारियों का रास्ता रोकने का प्रयास किया गया। समय-समय पर बिजली और पानी की आपूर्ति रोक दी गयी। लेकिन सरकार के हर तरीके के अवरोध, बेरुखी, असहयोग और हमले की चुनौतियों का आंदोलनकारी किसानों ने एकजुट होकर सामना किया और एकता, भाईचारे व आपसी प्रेम की एक नयी मिसाल पेश की है। अब किसानों ने समझ लिया है कि सिर्फ उनके लिए नहीं, देश की बाकी जनता के लिए भी ये कृषि कानून मुसीबत साबित होंगे। इसीलिए तीनों कृषि कानून किसानों के लिए जीवन मरण का प्रश्न बन गये हैं।
किसान आंदोलन की नियति और अंतिम परिणाम तो अभी भविष्य के गर्भ में है पर इन साढ़े आठ महीनों में किसानों ने जो उपलब्धियां हासिल की हैं वे ऐतिहासिक हैं। इन उपलब्धियों को हासिल करने में सदियां गुजर जाती हैं।
लौटा खोया हुआ आत्मसम्मान
किसान आंदोलन की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस आंदोलन ने किसानों के आत्मसम्मान और आत्मविश्वास में अभूतपूर्व बढ़ोतरी की है। इस आंदोलन ने कृषि को एक सम्मानजनक व्यवसाय का दर्जा दिया है। इस पूंजीवादी व्यवस्था में और विशेष रूप से पिछले सौ सालों के दरम्यान किसानों के पेशे को एक महत्त्वहीन कार्य समझा जाता रहा है। लेकिन इस आंदोलन ने किसानों में आत्मगौरव का भाव जगाया है। आज देशभर में किसानों को सम्मान की दृष्टि से देखा जा रहा है। यहां तक कि किसानों को केंद्र में रखकर गाने बनाये जा रहे हैं। जो नौजवान स्वयं को किसान कहने पर शर्म महसूस करते थे, आज वे ही नहीं, बल्कि जिनका किसानी से दूर-दूर का भी नाता नहीं है, वे छात्र और नौजवान भी ‘आई एम फार्मर’, ‘नो फार्मर नो फूड’ की टी-शर्ट पहनकर गर्व महसूस कर रहे हैं। इस आंदोलन ने कृषि के पेशे को और किसान को जो महत्त्व प्रदान किया है वह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। आज तो पूरा देश किसानों को ‘अन्नदाता’ कहकर पुकारने लगा है। कोई भी कौम कितनी ही गरीब और मजलूम क्यों न हो, यदि वह आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के बोध से भरपूर हो तो दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक नहीं सकती। यही इतिहास है।
एक राजनैतिक शक्ति बनते किसान
इस किसान आंदोलन ने किसानों को एक राजनैतिक ताकत के रूप में खड़ा किया है। इस आंदोलन से पहले तक किसान राजनीतिक रूप से संगठित शक्ति नहीं थे। आज सरकार किसानों की ताकत का लोहा मानने पर मजबूर हो गयी है। क्योंकि किसानों ने संगठित ताकत के रूप में सरकार को टक्कर दी है। और जनता की यही संगठित शक्ति चुनाव में भी सरकार को हरा सकती है। इस आंदोलन से पहले किसानों की पहचान जाट, गुर्जर, अहीर, कुर्मी आदि के रूप में होती थी। हरियाणा और पंजाब के किसानों को, सवर्ण और दलित किसानों को, आपस में लड़ाया जाता था। सरकारें और राजनीतिक पार्टियां किसानों से दगा करती थीं, छल करती थीं, उनपर साल भर जुल्म करती थीं पर चुनाव आते ही किसानों को जात-पांत, धर्म, प्रांत में बांट दिया जाता था। किसान भी अपनी असल पहचान भूल कर आपस में जात, धर्म में बँटकर वोट करते थे। इस तरह, किसानों की समस्या कभी सामने नहीं आयी, चुनाव का मुद्दा नहीं बन पायी। इसलिए इस देश में किसान हमेशा जुल्म और शोषण का शिकार होते रहे हैं।
लेकिन अब इस आंदोलन ने किसानों की एक संगठित राजनीतिक शक्ति को जन्म दिया है। भाजपा को डर सता रहा है कि किसानों की राजनैतिक शक्ति बंगाल के बाद कहीं उत्तरप्रदेश में भी उसका सफाया न कर दे। इसीलिए आज भारतीय जनता पार्टी के किसी भी नेता की यह हिम्मत नहीं हो रही है कि वह किसानों के खिलाफ या किसान आंदोलन के खिलाफ कोई बयान दे। और अंदर की बात यह है कि संभावित राजनैतिक नुकसान के मद्देनजर अब बीजेपी में अंतर्विरोध बढ़ रहा है। अब यह बात बीजेपी के लोग ही बोलने लगे हैं कि मोदी जी के अहंकार के कारण पूरी पार्टी डूब रही है।
आंदोलन का विस्तार
इस देश में जनांदोलनों का बहुत समृद्ध इतिहास रहा है। कई जनांदोलन तो ऐसे भी हुए जिन्होंने विश्व इतिहास में अमिट छाप छोड़ी है। भारत छोड़ो आंदोलन, जेपी आंदोलन, नक्सलबाड़ी विद्रोह, अन्ना आंदोलन से लेकर इतिहास में दर्ज मोपला विद्रोह, तेभागा आंदोलन, नील किसानों का आंदोलन, संथाल विद्रोह, संन्यासी विद्रोह आदि, फेहरिस्त बहुत लंबी है। हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि वर्तमान किसान आंदोलन को इन्हीं ऐतिहासिक आंदोलनों की कतार में रखा जाएगा। आनेवाली पीढ़ी को हम बता सकते हैं कि हमने अपने जीवनकाल में इस किसान आंदोलन को देखा है, इसमें भाग लिया है।
एक अर्थ में यह किसान आंदोलन अनोखा है और वह है इसका विस्तार और दीर्घकालिकता। यह आंदोलन साढ़े आठ महीनों से चल रहा है और आंदोलनकारियों का जज्बा कायम है। यही नहीं, इसका विस्तार अन्य राज्यों में भी होता जा रहा है। दक्षिण के राज्यों में भी। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो आंदोलन इतना सघन हो चुका है कि बीजेपी के नेताओं के लिए गांवों में घुस पाना बहुत मुश्किल हो गया है। बीजेपी के नेताओं ने तय किया था कि वे गांव-गांव जाकर किसानों को कृषि कानूनों के फायदे बताएंगे। लेकिन वे जहां भी गये, उन्हें किसानों के संगठित विरोध का सामना करना पड़ा।
बढ़ती परिपक्वता
आंदोलनकारी किसानों ने अपनी ताकत और हौसले के साथ-साथ परिपक्वता का भी परिचय दिया है। उनके सामने बहुत सारी चुनौतियां आयीं। कभी स्थानीय लोगों को किसानों के खिलाफ भड़काकर आंदोलन को खत्म करने का प्रयास किया गया, किसी किसान को आंदोलन स्थल पर जिंदा जला डालने का आरोप लगाया गया, पानी व बिजली काट दी गयी, वार्ता के नाम पर किसानों की एकता को तोड़ने का प्रयास किया गया, कुछ गुंडों के द्वारा आंदोलन स्थल पर पत्थरबाजी करवायी गयी। सरकार और गोदी मीडिया के द्वारा किसान आंदोलन के प्रति देश की जनता में एक नकारात्मक सोच बनाने की कोशिश की गयी और कुछ हद तक ऐसी सोच बनी भी, लेकिन किसानों ने अद्भुत सूझ-बूझ का परिचय देते हुए हर सवाल का बहुत ही धैर्य और सच्चाई के साथ जवाब देकर देश भर में बनायी गयी नकारात्मक सोच को सकारात्मक सोच में तब्दील कर दिया और हर साजिश नाकाम कर दी। देश की जनता में किसान आंदोलन के प्रति विश्वास व समर्थन और दृढ़ हुआ।
सरकार ने बार-बार यही जताया कि किसान इन कृषि कानूनों की बारीकियां समझते नहीं हैं। पर इस आंदोलन ने आम किसानों को भी इन बारीकियों और सैद्धांतिक विषयों के बारे में जागरूक किया है। आज सरकारी कृषि उपज मंडिया खत्म होने से किसानों को होनेवाले नुकसान और एमएसपी की गारंटी का कानून बन जाने पर होनेवाले फायदे के बारे में साधारण किसान को भी मालूम है। इसीलिए जब मीडिया ने यह झूठ फैलाया था कि किसानों को बरगलाकर आंदोलन में लाया गया है, उन्हें कृषि कानूनों के बारे में जानकारी नहीं है, तो किसान आंदोलन के नेतृत्व ने चुनौती दी थी कि इतने बड़े आंदोलन में से किन्हीं भी दस किसानों को चुन लें और उनसे टीवी पर लाइव डिबेट करा लें, और देख लें कि किसानों को तीनों कानूनों के बारे में पता है या नहीं, तो गोदी मीडिया की हिम्मत नहीं हुई कि वह इस चुनौती को स्वीकार करे।
संसद के मानसून सत्र के दौरान संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर दिल्ली के जंतर मंतर पर जो किसान संसद हुई उसकी एक-एक दिन की कार्यवाही, हर पहलू पर गहन चर्चा और कृषि कानूनों की बारीकी से छानबीन से एक बार फिर जाहिर हुआ कि किसान अपने मुद्दों को लेकर कितने सचेत, संजीदा और संकल्पबद्ध हैं।
(बाकी हिस्सा कल)