स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के मन की जो दशा थी उससे देश की मनोदशा का भी पता चलता है? पिछले दिनों जारी इंडिया टुडे के ताजातरीन ‘मूड ऑफ द नेशन सर्वे’ के निष्कर्षों से गुजरते से मुझे अहसास हुआ कि प्रधानमंत्री की मनोदशा और देश की मनोदशा के बीच रिश्ता बैठाया जा सकता है। 15 अगस्त के दिन लाल किले के प्राचीर पर प्रधानमंत्री की घबराहट उनकी देह-भंगिमा से छिपाये ना छिप रही थी। इंडिया टुडे का यह सर्वे पहले की तरह सौ टंच खरा तो रहा नहीं फिर भी छह माह के अंतराल से नियमित रूप से हो रहा यह देशव्यापी सर्वे नेताओं और पार्टियों की लोकप्रियता के आकलन का एक मजबूत आधार बना हुआ है। सर्वेक्षण की नवीनतम कड़ी सत्ताधारी दल के आत्म-विश्वास के गुब्बारे की हवा निकालने के लिए काफी है लेकिन विपक्ष ने अगर कोई आस लगा रखी है तो फिर यह सर्वे उस आस को भी खामखयाली साबित करने के लिए काफी है।
लोकसभा के चुनाव अभी हो जाएं तो किस पार्टी को कितनी सीटें मिल सकती हैं, इसे लेकर सर्वे में जो अनुमान लगाये गये हैं, यहां मेरी मुराद उससे कत्तई नहीं (वैसे यहां दर्ज करते चलें कि इंडिया टुडे के इस सर्वे के मुताबिक अभी की हालत में बीजेपी बहुमत के आंकड़े से पीछे रह जाएगी हालांकि एनडीए को इतनी सीटें मिल जाएंगी कि सरकार बन जाए)। सच कहूँ तो मध्यावधि ओपिनियन पोल की सूरत में भी मैं ऐसे अनुमानों को कभी गंभीरता से नहीं लूंगा और जहां तक इस सर्वे में सीटों के बारे में लगाये गये अनुमान का सवाल है, उसे लेकर गंभीरता से सोचने-विचारने के कारण और भी कम हैं क्योंकि ‘मूड ऑफ द नेशन सर्वे’ के इस चरण के लिए लोगों से जो साक्षात्कार लिये गये हैं उनमें से आधे तो टेलीफोन के जरिए संपन्न हुए।
सर्वे के चाशनी लिपटे संपादकीय को परे करते हुए देखें तो इस सर्वेक्षण से निकलते एक गरजदार निष्कर्ष का ताल्लुक प्रधानमंत्री मोदी की तेजी से घटती लोकप्रियता से है। अगले प्रधानमंत्री के रूप में आप किसे देखना चाहते हैं, ये सवाल जब साल 2020 के अगस्त में पूछा गया था तो 66 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने मोदी का नाम लिया। इस साल के जनवरी में ऐसा कहनेवालों की तादाद घटकर 38 प्रतिशत पर पहुँची और इस साल के अगस्त में मोदी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखनेवालों की संख्या सरककर 24 फीसद पर जा पहुंची है।
ओपिनियन पोल करने में बिताये अपने बीसेक बरसों में, मैंने कभी ऐसा होते नहीं देखा कि किसी प्रधानमंत्री की लोकप्रियता इस तेजी से घटी हो।
उम्मीद के अनुरूप इंडिया टुडे ग्रुप ने अपना ध्यान एक अन्य सूचकांक पर लगाया जो एक अर्थ में नाक को हाथ घुमाकर पकड़ने की कोशिश कहा जाएगा। लेकिन हां, इस कवायद से जो निष्कर्ष निकलता है उससे भाजपा को कम धक्का लगेगा। सर्वे के मुताबिक प्रधानमंत्री की अप्रूवल रेटिंग 74 प्रतिशत से कम होकर 54 प्रतिशत पर आ गयी है। अब इसमें कोई शक नहीं कि मोदी अपने निकटतम प्रतिद्वन्द्वी से बाकियों की तुलना में दौड़ में दोगुना आगे हैं लेकिन अब ये फासला इतना नहीं रहा कि उसे पाटा ही नहीं जा सके।
अगर बंगाल के चुनाव से ये जाहिर हुआ था कि मोदी की लोकप्रियता को भुनाकर राज्य के चुनाव नहीं जीते जा सकते तो ओपिनियन पोल के इस चरण से प्रधानमंत्री की लोकप्रियता ही सवालों के घेरे में आ गयी है।
पहले वाली बात नहीं रही अब
लोकप्रियता के घटने की वजह क्या हो सकती है? वह वजह तो नहीं ही है जो मोदी-आलोचक चाहेंगे कि हो। मोदी की लोकप्रियता के घटने की वजह ये नहीं कि सेक्युलरिज्म, संघवाद या लोकतंत्र पर हमला हुआ है। सच तो ये है कि धारा 370 को हटता देखना चाहनेवाले और अयोध्या को लेकर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पसंद करनेवालों की तादाद बीते एक साल में बढ़ी ही है। हां, सरकार जो लोकतांत्रिक अभिव्यक्तियों पर लगाम कस रही है, उसे लेकर लोगों में बेचैनी शुरू हुई है। सर्वे के केवल 40 फीसदी उत्तरदाताओं का मानना है कि उन्हें विरोध करने की आजादी है जबकि 51 प्रतिशत ऐसा नहीं मानते। लोकतंत्र खतरे में है- ऐसा सोचनेवालों की तादात कमो-बेश उतनी ही है जितनी कि इससे असहमति जतानेवाले लोगों की : सर्वे के 45 प्रतिशत उत्तरदाताओं का कहना है कि हां, लोकतंत्र खतरे में है जबकि 47 प्रतिशत उत्तरदाता ऐसा नहीं मानते। हमें इस रुझान पर बेशक नजर रखनी चाहिए लेकिन जहां तक अभी के वक्त का सवाल है, ये निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि लोकतंत्र को खतरे में मानने के कारण लोगों में प्रधानमंत्री की लोकप्रियता घट रही है।
लचर और हद दर्जे की नुकसानदेह साबित हो रही विदेश नीति, जिसमें लद्दाख की भारत-चीन सीमा पर पलटबाजी करना शामिल है, प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के घटने की वजह नहीं। चीन के सीमा-अतिक्रमण को मोदी सरकार ने अच्छे से निपटाया, ऐसा माननेवालों की तादाद उन लोगों की तुलना में लगभग दोगुनी है जो मानते हैं कि सीमा-अतिक्रमण का निपटारा मोदी सरकार ने खराब या फिर बहुत खराब तरीके से किया। जाहिर है, सरकार ने अपने प्रचार-तंत्र के जरिये बड़ी कामयाबी से लोगों के बीच एक झूठ को फैलाया है। कम से कम अभी तक तो ये झूठ अपना काम करता दिख रहा है।
लेकिन कोविड से निपटारे को लेकर सरकार का जो रुख रहा, वह एक अलग ही कहानी बयान करता है। अब सच्चाई को छिपाने के लिए सरकार चाहे जितना जोर लगा ले लेकिन जिन लोगों ने अपने प्रियजन को मरते देखा और महामारी की चोट को अपने दिल पर सहा है, उनके अनुभवों को झुठलाया नहीं जा सकता। अचरज नहीं कि सर्वे के 71 प्रतिशत उत्तरदाता मानते हैं कि कोरोना महामारी से मरनेवालों की तादाद सरकार के बताये आंकड़े से कहीं ज्यादा है। इसका दोष देने के मामले में भी उत्तरदाताओं की ईमानदारी झलकती है : कुल 44 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों को कोविड से निपटारे में हुए गड़बड़झाले के लिए दोषी माना है जबकि केवल 13 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने इसके लिए अकेले केंद्र सरकार को जिम्मेवार ठहराया और 10 प्रतिशत उत्तरदाता ऐसे हैं जो सिर्फ राज्य सरकार को दोषी मानते हैं। इनका ये भी कहना है कि विपक्ष ने महामारी के दौरान गैर-जिम्मेदाराना बर्ताव किया। फिर भी, सर्वे के इन तथ्यों के आधार पर इतना तो मानना ही होगा कि कोविड महामारी से निपटारे को लेकर प्रधानमंत्री का जो रवैया रहा उसके बारे में लोगों में बीते एक साल में नकारात्मक धारणा बनी है।
अब पहले की तुलना में कहीं ज्यादा लोग कहने लगे हैं कि कोविड महामारी और इस महामारी के कारण पैदा हुए आर्थिक संकट से निपटने में मोदी सरकार लचर या फिर बहुत ज्यादा लचर साबित हुई बनिस्बत उन लोगों के जो अब भी कहते हैं कि कोविड के कारण पैदा आर्थिक संकट से उबारने के लिए मोदी सरकार ने क्या खूब काम किया।
ना-उम्मीदी का आलम
लोगों में मोदी सरकार को लेकर अगर बेचैनी बढ़ रही है तो उसकी असली वजह है आर्थिक संकट, जो महामारी के शुरू होने के तुरंत पहले से लेकर महामारी के दौरान और महामारी के उतार के बाद भी जारी है। कुछ आंकड़े तो पहले से ही बता रहे हैं और उन आंकड़ों में इस सर्वे के तथ्यों से ये बतानेवाले साक्ष्यों में इजाफा हुआ है कि लोग नौकरियां ही नहीं गंवा रहे बल्कि उनकी आस भी टूट रही है। मूड ऑफ द नेशन सर्वे के 86 प्रतिशत उत्तरदाताओं का कहना है कि उनके परिवार ने जीविका का साधन गंवाया है या फिर उनकी आमदनी घटी है। सर्वे के केवल 17 प्रतिशत उत्तरदाताओं का मानना है कि आगे के दिनों में उनके परिवार की आमदनी बढ़ सकती है जबकि 34 फीसद उत्तरदाताओं का कहना है कि भविष्य में उनके परिवार की आमदनी और भी कम होगी।
छह माह पहले देश के आर्थिक भविष्य को लेकर सवाल पूछा गया था तो आशावादियों की संख्या निराशावादियों की तुलना में दोगुना थी। लेकिन अब निराशावादियों की संख्या आशावादियों से ज्यादा हो गयी है।
अपनी आर्थिक दशा को लेकर लोगों में जो नकारात्मक धारणा पैठ बना रही है, उसकी छाया के दायरे में मोदी सरकार के पूरे सात साल हैं : सर्वे में जितने उत्तरदाताओं ने कहा कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से उनकी आर्थिक दशा बिगड़ी है लगभग उतनी ही तादाद यह कहनेवालों की है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से उनकी आर्थिक दशा सुधरी है।
लोगों में व्याप्त ना-उम्मीदी की इस दशा के कारणों की पड़ताल करने पर दो बातें नजर आती हैं। इसमें पहला है कीमतों में इजाफा। अब यहां दो चीजों यानी लोग जिसे महंगाई कहते हैं और अर्थशास्त्री जिसे मुद्रास्फीति कहते हैं, उसको एक मानकर चलने की जरूरत नहीं। अगर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर देखें तो देश में मुद्रास्फीति बढ़ रही है लेकिन बढ़वार के बावजूद वह अब भी 6 फीसदी के आसपास है, मतलब इसे बुरा कहा जाएगा लेकिन बहुत बुरा नहीं। लेकिन जब लोग महंगाई कहते हैं तो अकसर उनका आशय चीजों की खरीदारी की क्षमता के घटने यानी तुलनात्मक रूप से अपनी गरीबी के बढ़ने से होता है।
आश्चर्य नहीं कि मूड ऑफ द नेशन सर्वे के पिछले तीन चरणों से लगातार ये तथ्य निकलकर सामने आ रहा है कि ये सरकार मंहगाई रोकने के मोर्चे पर नाकाम हुई है। दूसरे नंबर पर है बेरोजगारी। अभी 59 प्रतिशत लोगों का मानना है कि जीविका की हानि उनकी सबसे बड़ी चिन्ता है।
क्या लोग इन आर्थिक समस्याओं के लिए मोदी सरकार को दोषी मानते हैं? हां, इस सर्वे से ये उत्तर जाहिर होता है। सर्वे के 60 प्रतिशत उत्तरदाताओं का मानना है कि सरकार ने महंगाई (मतलब लोगों की गरीबी) रोकने के लिए कुछ खास जोर नहीं लगाया। अर्थव्यवस्था को चलाने का जो राह-रवैया सरकार ने अपना रखा है उसे लेकर लोगों में नकारात्मक धारणा बन रही है। मोदी सरकार के लिए इससे भी बुरी खबर ये है कि ऐसे लोगों की तादाद अब बढ़कर 46 प्रतिशत हो गयी है जो मानते हैं कि इस सरकार की आर्थिक नीतियों से सिर्फ बड़े व्यापारियों को फायदा हो रहा है। मतलब सरकार में ‘हम दो’ और व्यापार में ‘हमारे दो’ की सच्चाई अब लोग समझने लगे हैं।
अगर सर्वे के ये निष्कर्ष प्रधानमंत्री के लिए ठहरकर सोचने का इशारा हैं तो विपक्ष के लिए भी। वजह ये कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में तो अच्छी-खासी कमी आयी है लेकिन इसकी तुलना में विपक्ष के किसी नेता की लोकप्रियता में नाटकीय ढंग से इजाफा नहीं हुआ है।
अगर आप सोनिया-राहुल और प्रियंका गांधी को कोई एक हस्ती मानकर चलें तो भी नजर यही आता है कि उनकी रेटिंग (साख) एक साल के भीतर 15 प्रतिशत से बढ़कर 18 प्रतिशत पर पहुंची है। अगर 2019 के चुनावों से तुलना करें इस ओपिनियन पोल में एनडीए के वोट शेयर में 5 प्रतिशत की कमी आयी है लेकिन कांग्रेस के खाते में कुछ हासिल नहीं हुआ। नेता और पार्टी दोनों ही के लिहाज से जो भी बढ़त हासिल हुई है वह पूरे विपक्षी खेमे में के अलग-अलग हिस्सों के बीच बंटी दिखती है।
सर्वे से निकलता राजनीतिक संदेश बड़ा स्पष्ट और पुरजोर है कि : सियासी रंगमंच पर खला (शून्य) बढ़ती जा रही है और इसे पाटने के लिए आता हुआ अभी कोई नहीं दिख रहा। देश बड़ी बेताबी से विकल्प की तलाश में है।
( द प्रिंट से साभार )