— श्रवण गर्ग —
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हिंदूवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत के बीच उम्र में एक सप्ताह से भी कम का फासला है। डॉ भागवत प्रधानमंत्री से केवल छह दिन बड़े हैं। यह एक अलग से चर्चा का विषय हो सकता है कि इतने बड़े संगठन के सरसंघचालक का जन्मदिन भाजपा-शासित राज्यों में भी उतनी धूमधाम से क्यों नहीं मनाया जाता जितनी शक्ति और धन-धान्य खर्च करके प्रधानमंत्री का प्रकटोत्सव आयोजित किया जाता है। और इस बार तो सब कुछ विशेष ही हो रहा है। वैसे मौजूदा हालात में डॉ भागवत के लिए जन्मदिन मनाने से ज्यादा जरूरी यही माना जा सकता है कि वे अपनी पूरी ऊर्जा सरकार, संगठन और हिंदुत्व को ताकत प्रदान करने में खर्च करें जो कि वे कर भी रहे हैं। इस काम के लिए वे देश भर में दौरे कर रहे हैं और भिन्न-भिन्न वर्गों के लोगों से बातचीत कर उनके मन की बात टटोल रहे हैं।
डॉ भागवत पिछले दिनों मुंबई में थे। वहां उन्होंने कहा था कि भारत में रहनेवाले सभी हिंदुओं और मुसलमानों के पुरखे एक ही हैं। सारे भारतीयों का डीएनए एक ही है। मतलब यह कि भारत के मुसलमानों को भी प्रकारांतर से हिंदू ही मान लिया जाना चाहिए। देश के मुसलमानों (और जो बँटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए और बाद में उसके भी विभाजन के बाद बांग्लादेशी हो गए) ने डॉ भागवत के कथन/दावे पर सामूहिक रूप से कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की है। वर्तमान की असहिष्णु राजनीतिक परिस्थितियों में ऐसा होना अनपेक्षित भी नहीं है।
अपने देशव्यापी ‘बौद्धिक जागरण’ के सिलसिले में डॉ भागवत ने पिछले ही दिनों ‘मिनी मुंबई’ के नाम से जाने जानेवाले इंदौर शहर की यात्रा की थी। देश का सबसे स्वच्छ शहर इंदौर इन दिनों साम्प्रदायिक तनावों (ताजा संदर्भ चूड़ी वाले का) और अन्यान्य कारणों से लगातार चर्चा में बना ही रहता है। अपनी यात्रा के दौरान डॉ भागवत ने उद्योगपतियों-युवा उद्यमियों, अखिल भारतीय स्तर पर हजारों छात्रों की कोचिंग क्लासें चलानेवाले ‘शिक्षविदों’, समाजसेवियों और स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) के संचालकों से ‘अनौपचारिक’ चर्चाएँ कीं। इस बात की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है कि डॉ भागवत ने शहर और प्रदेश में बिगड़ते साम्प्रदायिक माहौल को लेकर भी किसी से कोई चर्चा की या नहीं। इतनी भूमिका के बाद आलेख के मूल विषय पर आते हैं :
डॉ भागवत की इंदौर यात्रा को अपने पहले पन्ने की सबसे बड़ी और प्रमुख खबर के तौर पर पेश करते हुए दैनिक भास्कर ने लिखा : “युवा उद्यमियों से चर्चा में डॉ भागवत ने मीडिया पर भी बात की। उन्होंने कहा कि मीडिया को तथ्यात्मक खबरें छापना चाहिए और पॉजिटिव खबरों को बढ़ावा देना चाहिए। अच्छी बात यह है कि अब इस पर काम शुरू हुआ है। एक चैनल आया है जिस पर अच्छी खबरें ही दिखाई जाएँगी। बैठक में मौजूद एक सदस्य ने कहा यहाँ यह काम दैनिक भास्कर कर रहा है। सोमवार को उसमें सकारात्मक खबरें होती हैं। इस पर डॉ भागवत ने कहा, दैनिक भास्कर का सकारात्मक खबरों का प्रयोग मेरी जानकारी में है और यह बहुत अच्छा है। मैं शुरू से ही मीडिया को संदेश देता रहा हूँ कि निगेटिव खबरों को भी पॉजिटिव तरीक़े से छापें।’’
देश का लगभग पूरा ही ‘बड़ा वाला‘ मीडिया इस समय एकदम वही कर रहा है जैसा डॉ भागवत चाहते हैं। वह केवल सकारात्मक खबरें ही छाप रहा है। वह उन सकारात्मक खबरों को भी पूरी ताकत से दबा रहा है जो सरकारों को निगेटिव नजर आ सकती हैं। ‘अब चलेगी मर्जी पाठकों की’ के बुलंद दावों के साथ शुरू हुए मीडिया प्रतिष्ठान खुदी की मर्जी से ‘अब चलेगी सिर्फ सरकारों की’ वाले बन गए हैं। अंग्रेजी में कुछ अखबार अभी मिली-जुली मर्जी चलाए हुए हैं। चैनलों में भी अपवाद के लिए एक-दो मिली-जुली मर्जी वाले तलाशे जा सकते हैं। पाठकों, दर्शकों, संघ और सरकार से कुछ भी छुपा हुआ नहीं है।
मीडिया की ‘सकारात्मकता’ को लेकर कम से कम उन राज्यों के भाषाई मीडिया के प्रति तो डॉ भागवत को निश्चिन्त हो जाना चाहिए जो भाजपा के लिए निहायत जरूरी वोट बैंक का काम करते हैं। हिंदी राज्यों का तो लगभग समूचा मीडिया ही इस समय ‘सकारात्मक’ हो चला है। खबरों में सकारात्मकता बरतने को लेकर अब मुख्य शिकायत तो उन राजनीतिक दलों और उनके मीडिया प्रकोष्ठों (सेल) को लेकर ही बची है जो एक सम्प्रदाय विशेष को निशाने पर लेकर न केवल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ही कर रहे हैं ,समाज में गैर-जरूरी तनाव भी पैदा कर रहे हैं। इनमें निशाने पर मुख्यतः वे ही लोग हैं जिनके पुरखों को डॉ भागवत हिंदू मानते हैं। डॉ भागवत का एक संदेश इन दलों के लिए भी जरूरी हो गया है।
अंग्रेजी दैनिक ‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ ने हाल ही में एक खोजपूर्ण विश्लेषण प्रकाशित किया है। इसमें बताया गया है कि पाँच माह बाद ही उत्तर प्रदेश में होनेवाले प्रतिष्ठापूर्ण विधानसभा चुनावों को लेकर भाजपा द्वारा सोशल मीडिया पर चलायी गयी दो सप्ताह की प्रचार मुहिम की तीस प्रतिशत ‘पोस्ट्स’ में सिर्फ तालिबान की काबुल में वापसी को प्रमुख मुद्दा बनाया गया है। इसका उद्देश्य केवल प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी द्वारा कथित रूप से किये जानेवाले मुसलमानों के तुष्टिकरण को निशाने पर लेना है। भाजपा की सोशल मीडिया पोस्ट्स में बताया जा रहा है कि अफगानिस्तान में किस तरह से मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, कैसे लोग देश छोड़ने के लिए हवाई अड्डे की तरफ भाग रहे हैं, विमान कैसे खचाखच भरे हुए हैं और कि कैसे गलत तरीके से बुर्का पहनने पर महिलाओं पर कोड़े बरसाए जा रहे हैं।
डॉ भागवत से विनम्रतापूर्वक सवाल किया जा सकता है कि अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत की वापसी का अपने सोशल मीडिया चुनावी प्रचार में इस्तेमाल करके भाजपा उत्तर प्रदेश की कोई पाँच करोड़ मुसलमान आबादी और कोई सोलह करोड़ हिंदुओं को किस तरह का पॉजिटिव संदेश पहुँचाना चाहती है? डॉ भागवत के इंदौर शहर में इस कहे को कि ‘देश के बारे में सोचनेवाले सभी 130 करोड़ हिंदू हैं ‘, की इस तरह की भाजपाई सोशल मीडिया पत्रकारिता में किस सकारात्मकता की तलाश की जा सकती है? डॉ भागवत निश्चित ही ऐसा नहीं चाहते होंगे कि सत्ता की राजनीति प्रायोजित तरीके से जिन तालिबानी निगेटिव खबरों को सोशल मीडिया पर शेयर कर रही है उन्हें भी अखबार पॉजिटिव तरीके से प्रकाशित करें।
और इस सवाल का जवाब कहाँ पर तलाश किया जाए कि डॉ भागवत जिन उद्योगपतियों से चर्चा कर रहे हैं उनमें वे लोग शामिल नहीं हैं जिन्हें संघ का मुखपत्र ‘पांचजन्य’ राष्ट्र-विरोधी बताता है (यहाँ इंफ़ोसिस पढ़ें), वे बुद्धिजीवी शामिल नहीं हैं जिन्हें उनके वैचारिक विरोध के कारण प्रताड़ित किया जाता है और वे शिक्षाविद भी शरीक नहीं हैं जो (हिंदुत्व की) सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर प्रामाणिक तौर पर स्थापित इतिहास को बदले जाने का विरोध कर रहे हैं ! क्या सकारात्मकता का सारा ठीकरा मीडिया के माथे पर ही फोड़ा जाता रहेगा?
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