— राजू पाण्डेय —
कांग्रेस शासित प्रदेशों में से मध्यप्रदेश में पहले ही कांग्रेस ने अपने अंतर्कलह के कारण बहुत कठिनाई से अर्जित सत्ता गंवा दी थी। कांग्रेस शासित शेष तीन राज्यों पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में लंबे समय से पार्टी में असंतोष और गुटबाजी की चर्चाएं होती रही हैं। पंजाब में असंतुष्ट धड़े को सफलता मिली है और कैप्टन अमरिंदर सिंह के इस्तीफे के बाद दलित सिख चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब के मुख्यमंत्री बने हैं। इस पूरे प्रकरण को नवजोत सिद्धू की विजय और कांग्रेस आलाकमान के सम्मुख उनके बढ़ते कद के संकेत के रूप में देखा जा रहा है।
इन सभी राज्यों में स्थानीय क्षत्रपों की अतृप्त महत्त्वाकांक्षाओं के कारण ही कांग्रेस की सरकारें संकट में आयी हैं। कांग्रेस आलाकमान परिस्थिति के वस्तुनिष्ठ आकलन द्वारा कोई व्यावहारिक समाधान निकालने में नाकाम रहा है। आलाकमान की कार्यप्रणाली में इंदिरा गांधी के जमाने से चली आ रही उस वर्षों पुरानी रणनीति की झलक नजर आती है जिसके तहत जनाधार वाले क्षेत्रीय नेताओं के पर कतरे जाते थे और दरबारी किस्म के वफादार नेताओं को महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपे जाते थे। दुर्भाग्य से इंदिरा गांधी का करिश्मा और अपने बलबूते चुनाव जिताने की क्षमता गांधी परिवार के वर्तमान सदस्यों के पास नहीं है, इसलिए क्षेत्रीय नेतृत्व को सम्मान देना इनके लिए न केवल नैतिक रूप से उचित है बल्कि एकमात्र कूटनीतिक विकल्प भी है।
श्री नरेन्द्र मोदी अपने मन मंदिर के किसी गुप्त अंधकारमय कक्ष में श्रीमती इंदिरा गांधी की तस्वीर अवश्य सजाकर रखते होंगे क्योंकि उनकी कार्यप्रणाली में श्रीमती गांधी के शासनकाल की अनेक नकारात्मक विशेषताओं की झलक मिलती है जिनके लिए वे आलोचना की पात्र बनी थीं। पिछले मार्च से कर्नाटक, उत्तराखंड और गुजरात में भाजपा ने भी मुख्यमंत्री बदले हैं तथा अनेक प्रबल दावेदारों और वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा कर अल्प चर्चित चेहरों को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी है। वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी चुनाव जिताने की करिश्माई शक्ति रखते हैं इसलिए इन फैसलों पर पार्टी में कोई असंतोष व्यक्त कर पाने का साहस नहीं कर पाया है। लेकिन पंजाब में कांग्रेस द्वारा सुनील जाखड़, सुखजिंदर सिंह रंधावा आदि की उपेक्षा के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
पंजाब कांग्रेस के वर्तमान संकट को कांग्रेस आलाकमान ने सुलझाने के बजाय उलझाने में अपना योगदान दिया है। सच तो यह है कि आलाकमान के वरदहस्त के कारण ही नवजोत सिंह सिद्धू अमरिंदर सिंह पर लगातार हमलावर होते रहे। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि अमरिंदर सिंह की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट आयी थी। वे न तो जनता के लिए सहज उपलब्ध थे न विधायकों के लिए।
लेकिन इस बात को भी भुलाया नहीं जा सकता कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा को मिल रही असाधारण सफलताओं के बीच पंजाब में कांग्रेस को सत्तासीन करानेवाले अमरिंदर सिंह ही थे। पंजाब के विगत विधानसभा चुनावों के समय यह अमरिंदर ही थे जिन्होंने आलाकमान से कहा कि वह चुनाव प्रचार से दूरी बनाकर रखे और उन्हें फ्री हैंड दिया जाए। ऐसा साहसिक कदम आत्मघाती भी सिद्ध हो सकता था अगर अमरिंदर पराजित हो जाते किंतु उन्हें प्रभावशाली जीत मिली। इसके बाद यह स्वाभाविक ही था कि उन्हें कांग्रेस के एक प्रभावी कद्दावर नेता के रूप में देखा जाने लगा।
यदि कांग्रेस आलाकमान ने राजपरिवार के अमरिंदर को अपने फार्म हाउस से सत्ता का संचालन करने वाले, जनता और जनप्रतिनिधियों से कट चुके अलोकप्रिय मुख्यमंत्री के रूप में चिह्नित कर हटाया है तब भी इसे देर से उठाये गये एक सही कदम की संज्ञा दी जा सकती है। वह भी इतनी देर कि इस कदम के सुपरिणाम शायद ही मिल सकें। इतिहास भी कांग्रेस के इस निर्णय के साथ नहीं है।
कांग्रेस आलाकमान द्वारा 20 नवंबर 1996 को अर्थात 7 फरवरी 1997 को होनेवाले विधानसभा चुनावों से करीब ढाई माह पूर्व राजिंदर कौर भट्टल को हरचरन सिंह बरार के स्थान पर पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया गया था। कारण तब भी यही गुटबाजी और अंतर्कलह थे। तब कांग्रेस को 117 सदस्यीय विधानसभा में केवल 14 सीटें मिलीं थीं। चन्नी को जितना समय मिला है उसमें कभी न पूरी होने वाली लोकलुभावन घोषणाएं ही की जा सकती हैं।
यदि आलाकमान अमरिंदर की खुद्दारी और खुदमुख्तारी से परेशान था और उसने अमरिंदर के विरुद्ध व्याप्त असंतोष का आश्रय लेकर अपनी नाराजगी की अभिव्यक्ति की है तो हालात कांग्रेस के लिए अच्छे नहीं हैं। अगर जनता और जनप्रतिनिधियों से अमरिंदर ने दूरी बना ली थी तो क्या वे अपने नेता राहुल गांधी का ही अनुसरण नहीं कर रहे थे जो सबके लिए सहज उपलब्ध नहीं हैं और अमरिंदर के लिए तो कदापि नहीं थे। अमरिंदर, राहुल के पिता स्व. राजीव गांधी के स्कूली मित्र रहे हैं और राहुल उनके लिए पुत्रवत हैं। किंतु उनसे मिलने के लिए राहुल के पास समय न था। अमरिंदर को अपदस्थ करने के लिए नवजोत सिंह सिद्धू को प्रश्रय देना कांग्रेस आलाकमान की बड़ी चूक सिद्ध हो सकता है।
सिद्धू अतिशय महत्त्वाकांक्षी हैं, वे भाजपा में रह चुके हैं,कांग्रेस उनका वर्तमान ठिकाना है और मुख्यमंत्री पद न मिलते देख आम आदमी पार्टी में जाने में उन्हें देर न लगेगी जिसके प्रति वे अपना सकारात्मक रुझान पहले ही जाहिर कर चुके हैं। जब बतौर बल्लेबाज उन्होंने टेस्ट क्रिकेट में पदार्पण किया था तो उन्हें स्ट्रोकलेस वंडर कहा जाता था। कालांतर में उन्होंने अपने स्ट्रोक्स की रेंज बहुत बढ़ा ली थी और सिक्सर सिद्धू बन गए थे।
पहले क्रिकेट कमेंटेटर और अब बतौर राजनेता उनके पास अब भी स्ट्रोक्स की भरमार है। लेकिन दिक्कत यह है कि सही समय पर सही स्ट्रोक का चयन करने की उनकी क्षमता खत्म सी हो गयी है। अंग्रेजी और हिंदी के मुहावरों के कोश उन्हें कंठस्थ हैं। वे इनका प्रयोग परिस्थितियों के अनुसार कम ही करते हैं, वे इनके प्रयोग के लिए अवसर पैदा करने की कोशिश ज्यादा करते हैं और अनेक बार तो उनके यह शब्दालंकार खीज अधिक पैदा करते हैं, चमत्कार कम। कमेंटेटर और राजनेता दोनों ही भूमिकाओं में वे अपने बयानों को लेकर विवादित रहे हैं।
हो सकता है वक्ताओं की कमी से जूझ रही कांग्रेस यह सोचती हो कि विस्फोटक सिद्धू उसके लिए उपयोगी होंगे किंतु सिद्धू के पास शब्दों का जो गोला बारूद है वह आत्मघाती अधिक है। वे कांग्रेस में चली आ रही मणिशंकर अय्यर की परंपरा के योग्य उत्तराधिकारी हैं, नाजुक मौकों पर दिए गए जिनके बयान जीती बाजी को हार में तब्दील करने के लिए कुख्यात रहे हैं।
नाराज अमरिंदर पहले ही सिद्धू के इमरान और बाजवा से रिश्तों को लेकर सवाल उठा चुके हैं और उन्हें राष्ट्र विरोधी तक कह चुके हैं। इस प्रकार आगामी चुनावों के लिए भाजपा को बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल गया है।
जो भी हो, दलित मुख्यमंत्री बनाना एक स्वागत-योग्य कदम है। 1972 में मुख्यमंत्री बननेवाले ज्ञानी जैल सिंह ओबीसी वर्ग से थे। इसके बाद से पंजाब में मुख्यमंत्री पद के लिए जाट सिख समुदाय के नेता ही राजनीतिक दलों की पहली पसंद रहे हैं हालांकि इनकी आबादी 19 प्रतिशत ही है। प्रदेश की जनसंख्या के 32 प्रतिशत दलित समुदाय को पहली बार पंजाब की कमान दी गयी है।
क्या कांग्रेस चरणजीत सिंह चन्नी को आगामी विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में प्रस्तुत करने का साहस करेगी? यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही दलितों का समर्थन कांग्रेस को मिलेगा।
कांग्रेस आलाकमान ने पंजाब में राजपरिवार के सदस्य की छुट्टी कर एक दलित को सत्ता सौंपी है। क्या इस कदम से यह संकेत भी मिलता है कि छत्तीसगढ़ में ओबीसी वर्ग के भूपेश बघेल पर फिलहाल कोई संकट नहीं है क्योंकि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपनी दावेदारी ठोंक रहे टीएस सिंहदेव भी राजपरिवार के ही सदस्य हैं और उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस उन आरोपों को आधार प्रदान करना नहीं चाहेगी जिनके अनुसार कांग्रेस सवर्णों और अभिजात्य वर्ग की पार्टी है।
एक प्रश्न आयु का भी है। 79 वर्षीय अमरिंदर का स्थान लेनेवाले चन्नी मात्र 58 वर्ष के हैं। ऐसी दशा में क्या यह माना जाए कि 70 वर्षीय अशोक गहलोत के स्थान पर 44 वर्षीय सचिन पायलट पार्टी को नयी ऊर्जा दे सकते हैं।
कांग्रेस आलाकमान को अपने फैसलों में एकरूपता रखनी होगी तभी जनता में यह संकेत जाएगा कांग्रेस एक सुविचारित रणनीति के तहत वंचित समुदाय की राजनीति कर रही है और महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियों के लिए पार्टी में अब युवाओं को वृद्ध होने तक प्रतीक्षा नहीं करनी होगी।
पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस समर्थक बुद्धिजीवी वर्ग की रणनीति में एक स्पष्ट एवं निर्णायक बदलाव देखा जा रहा है। कांग्रेस को भाजपा को सत्ताच्युत करने में सक्षम किसी भी भाजपा विरोधी मोर्चे की धुरी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रकार पर्दे के पीछे से कांग्रेस पार्टी को संचालित करनेवाले पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को स्वतः ही मोदी से आमने सामने के संघर्ष के लिए विपक्ष के सेनापति का दर्जा मिल जाता है, वे विजयी होने पर प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार बन जाते हैं।
हमें यह तो स्वीकार करना ही होगा कि भाजपा को आगामी लोकसभा चुनावों में पराजित करने की कोई भी रणनीति कांग्रेस की उपेक्षा करके अथवा उसे पूर्ण रूप से खारिज करके तैयार नहीं की जा सकती। यह भी एक ध्रुव सत्य है कि नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस अविभाज्य रूप से अन्तरसम्बन्धित हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। यह रिश्ता इतना अनूठा और अपरिभाषेय है कि कांग्रेस की दुर्दशा के लिए नेहरू-गांधी परिवार को जिम्मेदार माननेवाले भी यह जानते हैं कि अगर कांग्रेस को सत्ता वापस कोई दिला सकता है तो वह नेहरू-गांधी परिवार ही है।
रुग्णता और आयु के कारण सोनिया गांधी की घटती सक्रियता के बीच यह चमत्कार करने के लिए इस परिवार के दो सदस्य हमारे बीच हैं- लगभग 17 वर्ष पुरानी अपनी राजनीतिक पारी का स्वरूप और दिशा निर्धारित करने में अब भी असमंजस के शिकार राहुल गांधी और बहुत देर से राजनीति में प्रवेश करनेवाली प्रियंका गांधी जिन्हें कांग्रेस में अपनी भूमिका तय करनी है। 17 वर्षों के राजनीतिक सफर के बाद राहुल आज कांग्रेस पार्टी के किसी महत्त्वपूर्ण पद पर नहीं हैं। जब कांग्रेस केंद्र में सत्ता में थी तब भी उन्होंने कोई महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व लेकर प्रशासनिक अनुभव प्राप्त करने की चेष्टा नहीं की थी।
राहुल राजनीति में सफल और लंबी पारी खेलने के लिए आवश्यक निरंतरता दिखाने में सफल नहीं हो पाए हैं। उन्होंने दरबारियों और चाटुकारों की पुरानी टीम को तो चलता किया लेकिन इनकी नयी टीम बना ली। जब शीर्ष नेतृत्व प्रादेशिक नेताओं के लिए सहज उपलब्ध नहीं रहता, उन्हें प्रत्यक्ष भेंट और सीधे संवाद का अवसर नहीं देता अपितु मध्यस्थों और बिचौलियों को प्रश्रय देता है तब गलतफहमी और दूरी बढ़ने की गुंजाइश हमेशा रहती है।
राहुल अपने प्रतिभावान युवा साथियों को लेकर क्यों असुरक्षित महसूस करते हैं यह समझ पाना कठिन है। इस असुरक्षा का केवल एक ही स्पष्टीकरण दिया जा सकता है- वे स्वयं गांधी परिवार की ताकत और करिश्मे को लेकर सशंकित हैं।
राहुल ने कई बार अपनी नेतृत्व क्षमता से प्रभावित किया है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के लिए अपरिहार्य समझे जानेवाले अजीत जोगी को दरकिनार कर नंदकुमार पटेल, भूपेश बघेल और टी एस सिंहदेव को छत्तीसगढ़ कांग्रेस को पुनर्जीवित करने का उत्तरदायित्व देना एक साहसिक निर्णय था। पिछले विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश में युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया की आक्रामकता और अनुभवी कमलनाथ की संगठन क्षमता का बेहतर उपयोग करना भी राहुल के नेतृत्व कौशल का प्रमाण था। राजस्थान कांग्रेस को दुबारा गढ़ने की जिम्मेदारी युवा सचिन पायलट को देकर राहुल ने एक चुनौतीपूर्ण पहल की थी और सचिन पायलट ने भी उन्हें सही साबित किया। पंजाब में भी कैप्टन अमरिंदर सिंह को विधानसभा चुनावों में फ्री हैंड देकर राहुल ने उदारता और दूरदर्शिता का परिचय दिया था।
हाल के डेढ़ साल में कोविड-19 विषयक राहुल के आकलन और भविष्यवाणियां आश्चर्यजनक रूप से सटीक रही हैं। उन्होंने कोविड-19 के मसले पर मोदी की तुलना में अलग ढंग से सोचा, वे अधिक तार्किक और विज्ञान सम्मत विचार प्रस्तुत करते रहे, उन्होंने सरकार को समयपूर्व चेतावनी भी दी और सकारात्मक सुझाव भी प्रस्तुत किये।
भाजपा ने कांग्रेस और गांधी परिवार पर निरंतर आक्रमण कर इस बात को परिपुष्ट किया है कि भारतीय राजनीति में यदि भाजपा का विकल्प कोई है तो वह गांधी परिवार के नेतृत्व वाली कांग्रेस ही है। किंतु कांग्रेस और राहुल को भावी विपक्षी गठबंधन के नेतृत्वकर्ता के रूप में प्रस्तुत करने की हड़बड़ी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं के संघर्ष को कुछ इस तरह हवा दे सकती है कि सारे विपक्षी दल एक मंच पर एकत्रित ही न हो पाएं। कांग्रेस यदि मुद्दों की राजनीति करे, एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम प्रस्तुत करे तो विपक्षी एकता का कठिन कार्य सरल हो सकता है। पूर्व में ऐसा हुआ भी है।
कांग्रेस चाहे तो वैकल्पिक मंत्रिपरिषद बना कर मोदी सरकार की हर नीति पर अपना पक्ष रख सकती है। राहुल को यह तय करना होगा कि वे किंग बनना चाहते हैं या किंगमेकर की भूमिका उन्हें अधिक उपयुक्त लगती है। यदि वे किंग बनना चाहते हैं तो उन्हें अधिक सक्रिय, सहज उपलब्ध, जनोन्मुख तथा आक्रामक होना होगा। बतौर किंगमेकर राहुल को कांग्रेसजनों के मध्य यह संदेश पहुंचाना होगा कि कांग्रेस के लिए यह निर्णायक संघर्ष है, अस्तित्व की लड़ाई है। यही बात अन्य विपक्षी दलों को भी समझानी होगी। उन्हें कांग्रेसवाद की सर्वसमावेशी प्रकृति को आचरण में लाना होगा।
राहुल एक अलग ढंग से मोदी का विकल्प प्रस्तुत करते हैं। मोदी की लार्जर दैन लाइफ छवि उन्हें जनता से बहुत ऊपर एक देवतुल्य व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करती है, जिसे केवल दूर से देखा जा सकता है, जिसकी केवल पूजा की जा सकती है किंतु जिससे संवाद नहीं किया जा सकता। मोदी की अभिव्यक्तियों और निर्णयों में कठोर यांत्रिकता दिखती है जिसमें भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। राहुल को एक आम मानव के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जो भूल और गलती करता है, गिरता और संभलता है। उनकी अपूर्णता, अपरिपक्वता और अनगढ़पन उन्हें आम आदमी के अधिक नजदीक ला सकते हैं। हमने लालू प्रसाद यादव की ठेठ ग्रामीण और अनगढ़ अभिव्यक्तियों के जादू को देखा है। जनता राहुल को उनकी कमियों और कमजोरियों के साथ भी अपना सकती है, शर्त यह है कि वे इनसे उबरने के लिए नायकोचित संघर्ष करते दिखें।