भ्रम पैदा करने का नाकाम प्रयास

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— रमाशंकर सिंह —

रिष्ठ पत्रकार श्री कुरबान अली जी ने एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के जनक नेताओं से लेकर सन 1977 तक के सभी वरिष्ठ नेताओं को सिद्धांतहीन, दिशाहीन एवं दिगभ्रमित साबित करने का असफल प्रयास किया है। उन नेताओं में आचार्य नरेंद्रदेव, डॉ. लोहिया, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, मधु लिमये, किशन पटनायक व राजनारायण जी सहित सभी को व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के लिए सिद्धांतों से हटकर साम्प्रदायिक पार्टी से सांठगांठ करने तक का बेबुनियाद आरोप लगाकर भ्रम पैदा करने का काम किया है जो कि निन्दनीय है।

अपने आरोप में कुरबान जी ने जिन बिंदुओं को आधार बनाया है उसका क्रमशः उल्लेख करते हुए उसकी सच्चाई से रूबरू कराना मैं अपना नैतिक कर्तव्य समझता हूं।

1. “25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुए डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि सोशलिस्ट व कम्युनिस्ट पार्टी ने संविधान की निन्दा की हैइस कथन में कम्युनिस्ट पार्टी का पक्ष मेरा विषय नहीं है लेकिन सोशलिस्ट पार्टी का एतराज जिन बिन्दुओं को लेकर था वो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संविधान व नीति वक्तव्य का हिस्सा हैं, वो एतराज यह था कि निजी संपत्तियों का राष्ट्रीकरण किये बिना सामाजिक बराबरी लाना व सबको समान मौलिक अधिकार बिना किसी रोक-टोक के देना इस संवैधानिक व्यवस्था से सम्भव नहीं होगा। इसी क्रम में सोशलिस्ट नेताओं ने संविधान सभा का ये कहते हुए बहिष्कार किया कि यह सभा बालिग मताधिकार द्वारा चुनी हुई सभा नहीं है। इन तीनों बिंदुओं पर डॉ. आंबेडकर को अवगत कराने के बाद भी कांग्रेस नेताओं के दबाव में इन तीनों बिंदुओं की उपेक्षा ही संविधान सभा के विरोध का कारण था, न कि डॉ. आंबेडकर का व्यक्तिगत विरोध।

2. डॉ. लोहिया की गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति पर प्रहार करते हुए लेखक ने लिखा है कि लोकसभा का चुनाव जीतने एवं नेहरू से व्यक्तिगत चिढ़ के कारण सन् 1963 में जनसंघ से चुनावी समझौता डॉ. लोहिया ने सिद्धांतों की बलि चढ़ाकर किया था। लेखक का ये कहना पूर्णतः गलत है, व किन्हीं खास कारणों से समाजवादियों का चरित्र हनन का प्रयास मात्र है क्योंकि गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति के तहत जनसंघ से चुनावी तालमेल का प्रयोग सन् 1963 में लोहिया ने किया था, जिसके परिणामस्वरूप सन् 1967 में नौ प्रदेशों में कांग्रेस को हरा कर गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। राजनीतिक इतिहासकार डॉ. लोहिया और जयप्रकाश नारायण व अन्य नेताओं के गैर-कांग्रेसी व संविद सरकारों के अस्तित्व में लाने को समाजवादियों का सफल प्रयोग मानते हैं।

3. सन् 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाये जाने के कारण का ठीकरा भी लेखक ने जयप्रकाश नारायण द्वारा सेना व पुलिस बलों को बगावत करने की अपील करने की घटना पर फोड़ा है जबकि एक नासमझ आदमी भी आपातकाल घोषित करने का कारण इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण चुनाव पेटीशन का इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला ही एकमात्र कारण मानता व जानता है। इसमें किसी तरह के भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं है।

4. लेखक द्वारा दलित आंदोलन से समाजवादियों के मुंह मोड़ लेने का प्रश्न भी उठाया गया है। इसके जवाब में पचास से सत्तर के दशक में सोशलिस्टों ने हरिजनों (आज के दलितों) पर हुए हर जुल्म-ज्यादती के खिलाफ आवाजें उठाईं, आंदोलन किया, लाठी-गोली खायी, जेल गये। उन्हीं आंदोलनों का हिस्सा हरिजनों को मंदिरों में प्रवेश कराने की लड़ाई लड़ते हुए राजस्थान के गणेश्वर धाम मंदिर आंदोलन व काशी विश्वनाथ मंदिर में हरिजनों का प्रवेश दिलाने के आंदोलन में स्व. राजनारायण जी को मिली यातनाएं व उनका उच्च जाति का होना भी नकारा जाना कहां तक न्यायसंगत माना जाएगा। रही बात, सत्तर के दशक के बाद हरिजनों का मंदिर प्रवेश आंदोलन क्यों बंद कर दिया गया, तो इसके लिए उस समय की परिस्थिति, जिसमें हरिजनों के मंदिर प्रवेश के प्रतिवाद में साम्प्रदायिक उच्च वर्ग के लोगों का जवाबी आंदोलन की संभावना को टालने के लिए सोशलिस्ट पार्टी ने आंदोलन स्थगित करने का निर्णय लिया था। इसमें किसी नेता विशेष की कमजोरी बताना किसी भी स्तर पर उचित एवं न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता है।

5. सोशलिस्टों का सन् 1950 से 1977 तक के राजनीतिक इतिहास में पिछड़ों-आदिवासियों- मुस्लिमों को उनका उचित सम्मान व भागीदारी नहीं देने के सन्दर्भ में –

सर्वविदित है कि पिछड़े पावें सौ में साठ के सिद्धांत पर 1963 में डॉ. लोहिया, मधु लिमये, किशन पटनायक के सांसद रहते हुए भी पिछड़े श्री मनीराम बागड़ी जी को सदन में अपना नेता चुना, सन् 1967 में 23 सांसदों के ग्रुप ने पिछड़े श्री रवि राय को संसदीय दल का नेता चुना तथा राज्यसभा में पिछड़े श्री गौड़ मुरहरी को नेता बनाया।

लेखक को शायद याद नहीं कि सोशलिस्ट पार्टी ने सन 1977 से पूर्व व बाद में जितने पिछड़ों को नेता बनाया उतना किसी अन्य दल का इतिहास नहीं है। लिस्ट लंबी है लेकिन कुछ उदाहरण- कर्पूरी ठाकुर (मुख्यमंत्री एवं पार्टी अध्यक्ष), रामसेवक यादव (राष्ट्रीय महामंत्री), डॉ. एम.ए. हलीम (उत्तर प्रदेश अध्यक्ष), रविराय (लोकसभा अध्यक्ष, एवं मंत्री, जॉर्ज फर्नाण्डीज (पार्टी अध्यक्ष एवं मंत्री), बी. सत्यनारायण रेड्डी (गवर्नर), रामनरेश यादव (मुख्यमंत्री), मुलायम सिंह यादव, रामसुन्दर दास, गोलप बोरबोरा, रामविलास पासवान, लालू यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, रामस्वरूप वर्मा, धनिकलाल मण्डल, बेनीप्रसाद वर्मा, उपेन्द्रनाथ वर्मा, भोला प्रसाद सिंह, रामशरणदास, मध्यप्रदेश में रामानंद सिंह (पिछड़े), मास्टर शरीफ व हामिद कुरैशी (मुस्लिम व पिछड़े), माधव सिंह ध्रुव (अनु.जनजाति), स्वयं लेखक (कुरबान अली) के पिता सन 1977 में सोशलिस्ट घटक से ही विधान परिषद सदस्य एवं पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बनाये गये, इत्यादि इत्यादि…..

अंत में लेखक ने स्वयं को समाजवादी आंदोलन के दस्तावेजों का संकलक बताया है। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि जो व्यक्ति मानसिक रूप से समाजवादी आंदोलन व उनके वरिष्ठतम नेताओं को ही गैर-सिद्धांतवादी मान रहा है वो समाजवादी आंदोलन के दस्तावेजों का संकलन कैसे व किस रूप में कर पाएगा, कदापि नही। यहां यह कहना उचित होगा कि उनके द्वारा समाजवादी आंदोलन के नाम पर वो सामग्री एकत्र करायी जाएगी जिसके लिए उन्हें प्रोजेक्ट दिया गया है। ये भाजपा व संघ की सोची-समझी साजिश का हिस्सा है कि कांग्रेस को गैर-सैद्धांतिक पहले ही छद्म लेखों व दस्तावेजों के जरिए किया जा चुका है, अब फासिस्टों के मुकाबले समाजवादी सोच व सिद्धांत ही बाधक बचता है जो डटकर इन शक्तियों का मुकाबला कर सकता है इसलिए तथाकथित सोशलिस्टों से ही सोशलिस्ट नेतृत्व व सिद्धांत पर ओछा लांछन लगाकर इतना बदनाम कर दो कि देश में फासिस्टों एवं साम्प्रदायिक ताकतों के मुकाबले कोई सिद्धांत खड़ा होने की हिम्मत न कर सके।

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