— राकेश कुमार सिन्हा —
कुल मिलाकर किसान आंदोलन ऐसी स्थिति में पहुंच गया है जहाँ सरकार, कम से कम अभी, उस पर कोई खुला प्रशासनिक हमला नहीं बोल सकती। इसकी एक वजह यह भी है कि सत्ताधारी पार्टी इस बात का आकलन नहीं कर पा रही है कि किसान आंदोलन के खुले दमन का उसकी चुनावी संभावनाओं पर क्या असर पड़ेगा। इसी में किसान आंदोलन की ताकत भी निहित है। इसके साथ ही किसान आंदोलन ने इतनी ऊर्जा, गति और जनसमर्थन हासिल कर लिया है कि इनके जल्दी चुक जाने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन ये चाहे कितना भी मजबूत क्यों न हो जाए, किसान आंदोलन का राजनीतिक असर तभी होगा जब वह चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकने की अपनी क्षमता को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित कर सके, वह भी स्वयं चुनाव में सीधे हिस्सा लिये बिना। यह किसान आंदोलन के लिए पहली बड़ी लोकतांत्रिक चुनौती है।
दूसरी बात यह है कि वर्तमान व्यवस्था में किसानों की समस्या का कोई समाधान नहीं है। हमारे देश की सच्चाई यह है कि हमारे पास एक बेहद कमजोर पूँजीवादी व्यवस्था है जिसे हमारे ऊपर वैश्विक पूँजीवाद द्वारा थोपा गया है। इसकी वजह से हमारे देश की नब्बे प्रतिशत आबादी के पास वह आर्थिक क्षमता ही नहीं है कि वह किसानों को उनकी फसल का उचित लाभकारी मूल्य देकर अपनी जरूरत के हिसाब से पौष्टिक भोजन प्राप्त कर सके। इस तरह की सीमित क्रयशक्ति वाले बाजार में कई तरह की विकृतियाँ आ जाती हैं। जिनमें एक तरफ तो किसानों के साथ दामों की लूट होती है तो दूसरी तरफ आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूखा और कुपोषित रह जाता है। ऐसी परिस्थिति में किसान अपनी पूरी क्षमता के हिसाब से अन्न उत्पादन कर सकने की स्थिति में भी नहीं होता क्योंकि इससे उसका घाटा और बढ़ जाएगा।
इन तीन कृषि कानूनों से कृषि के कॉरपोरेटीकरण के आसन्न खतरे के प्रति संगठित होने के अलावा किसान आंदोलन की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका देश के आम किसानों को देश पर लादी गयी अर्थव्यवस्था के उन सभी पहलुओं से रूबरू कराने की है जिनके कारण कृषि और किसान पिछले कई दशकों से लगातार बढ़ते हुए संकट की मार झेल रहे हैं। एक लंबा आंदोलन ही वर्तमान अर्थव्यवस्था के शोषणकारी स्वरूप को न सिर्फ किसानों बल्कि पूरे देश के सामने उजागर कर सकेगा और यह समझा सकेगा कि इस व्यवस्था में किसानों की समस्या का कोई समाधान नहीं है।
समाधान तो देश की युवा पीढ़ी मे लगातार बढ़ती बेरोजगारी का भी नहीं है और देश की नब्बे प्रतिशत आबादी में व्याप्त आर्थिक विपन्नता का भी नहीं है। इन सबको मिलाकर इस सच्चाई को सबके सामने स्पष्ट करने की जिम्मेदारी, कि अर्थव्यवस्था परिवर्तन के बिना देश की आर्थिक समस्याओं का कोई समाधान संभव नहीं है, ये जिम्मेदारी भी किसान आंदोलन की है और इसके लिए किसान आंदोलन को अपने दायरे को बढ़ाते हुए युवाओं को भी अपने में समेटना होगा।
एक वैकल्पिक, कृषि केंद्रित, ग्राम केंद्रित अर्थ-व्यवस्था की रूपरेखा तैयार करना और उसे देश की राजनीति के केंद्र में लाना, यह किसान आंदोलन की दूसरी बड़ी चुनौती है। यह सिर्फ एक बार करके खत्म हो जानेवाला काम नहीं है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था का दबाव भारत पर बना रहेगा और देशी पूँजीपति भी अपनी पूरी ताकत लगा देंगे इसी व्यवस्था को चलाये रखने के लिए। इसलिए भारत में एक जनआधारित नागरिक संगठन की जरूरत है जो गैरदलीय, गैरचुनावी राजनीतिक संगठन हो और चुनावों पर निर्णायक असर डाल सके और सत्ता में आनेवाली सरकार पर, नीतियां और कार्यक्रम के मामलों में नियंत्रण रख सके। यह अन्य चुनावी दलों के समानान्तर एक गैरदलीय राजनीतिक संगठन होगा और ऐसा संगठन किसान आंदोलन की धुरी पर ही बन सकता है।
इस संगठन को एक तरफ तो राजनीतिक दलों द्वारा बहुसंख्यक जनता को क्षेत्रीय, साम्प्रदायिक और जातीय आधार पर बाँट कर इस विभाजन का राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश का सामना करना पड़ेगा। इस तरह के विभाजन ने समाज में जो दरारें पैदा कर दी हैं उन्हें भरने का काम किसान आंदोलन शुरू कर चुका है। किसान ही देश का ऐसा सबसे बड़ा वर्ग है जो देश के हर राज्य में विद्यमान है। हर जगह किसानों के संगठन हैं जो अब साथ आते जा रहे हैं। किसानों की एकता देश की एकता और अखण्डता का सबसे सुदृढ़ आधार बन सकती है और इसका स्वरूप बनता हुआ दिखाई भी देने लगा है।
केंद्र और अनेक राज्यों के सत्ताधारी दलों ने साम्प्रदायिक खाई को लगातार गहरा किया है और इसी पर आधारित ध्रुवीकरण को अपना राजनीतिक हथियार बनाया है। किसान आंदोलन ने उस क्षेत्र से इस खाई को पाटने की सफल शुरुआत की है। जैसे-जैसे चुनाव पास आएंगे, सांप्रदायिकता को बढ़ाने के लिए नये-नये हथकंडे अपनाये जाएंगे। साम्प्रदायिकता से मुकाबला करने की किसान आंदोलन की रणनीति को उतना ही मजबूत और व्यापक बनाते रहना होगा।
सामाजिक एकीकरण की सबसे बड़ी चुनौती जातीय विभाजन से मुकाबला करने की है। देश का श्रमयोगी वर्ग, जिसे ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था में शूद्र कहा जाता है, कई तरह से विभाजित है। एक मोटा विभाजन तो दलित और पिछड़े वर्ग का है। (आदिवासी समाज इस जातिव्यवस्था से बाहर है और कुछ क्षेत्रों में सीमित है। आदिवासियों को साथ जोड़ने के लिए भी अलग से काम करना होगा)। दलित और पिछड़ा वर्ग, दोनों अनेकों जातियों में बँटे हुए हैं। इस सामाजिक विभाजन का आधार हमारी पारंपरिक ग्रामीण अर्थव्यवस्था में है। वह अर्थव्यवस्था तो टूट ही चुकी है लेकिन उससे जुड़ी जातिव्यवस्था और इसमें निहित शोषण, द्वेष और अलगाव न सिर्फ बने हुए हैं बल्कि कुछ बढ़ते हुए से लगते हैं।
सभी राजनीतिक दल इस व्यवस्था का अपने-अपने ढंग से फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। इसलिए देश का कोई भी दल समाज से जातिव्यवस्था को खत्म नहीं होने देना चाहता। इस सामाजिक विभाजन को उसकी पूरी गहराई और जटिलता में समझने और उसे खत्म करने की पहलकदमी की क्षमता सिर्फ किसान संगठन में ही है और यह उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। कृषि एवं ग्राम केंद्रित अर्थव्यवस्था की किसी भी सार्थक कोशिश की यह पूर्व शर्त भी है।
दूसरी तरफ किसान संगठनों को वैकल्पिक अर्थव्यवस्था की रूपरेखा तैयार करके उसे चुनावी राजनीति के भी केंद्र में लाने की जिम्मेदारी निभानी होगी। वैकल्पिक अर्थव्यवस्था की विस्तृत रूपरेखा हमारी चर्चा के दायरे के बाहर की चीज है। इसे तो किसान आंदोलन के अंदर एक लंबा और गहन विमर्श चलाकर ही विकसित किया जा सकता है और फिर इसे बार-बार, लगातार परिष्कृत करते हुए समय के साथ बनती, बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप ढालते भी रहना होगा।
फिर भी, मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि इस वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के अंतर्गत हमें कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्रों को एक तर्कसंगत तरीके से आपस में जोड़ते हुए कुछ इस तरह से देश के हर राज्य, हर जिले में हर प्रखण्ड और पंचायत स्तर तक विकेंद्रित रूप से फैलाना होगा कि इसमें पूरी आबादी के लिए एक स्वस्थ और गरिमामय जीवन व्यतीत करने लायक आय अर्जित करने का पूरा अवसर हो।
इस वैकल्पिक अर्थव्यवस्था को एक मूर्त रूप देकर वास्तविकता के धरातल पर उतारने के लिए किसान आंदोलन, और उसे केंद्र में रखकर बने नागरिक संगठन को लगातार हर राज्य और केंद्र के चुनाव में एक सशक्त हस्तक्षेप करना होगा जिससे सरकार उन राजनीतिक ताकतों की बने जो इस वैकल्पिक अर्थव्यवस्था को बनाने और चलाने के लिए प्रतिबद्ध हों। इसके लिए एक तरफ तो उन्हें हर राज्य में शहरों में वार्ड स्तर तक और ग्रामीण क्षेत्रों में ब्लाक स्तर तक अपने संगठन की शाखाएं विकसित करनी होंगी जो स्थानीय जनता को संगठन और उसके वैचारिक एजेंडे से जोड़ सके। दूसरी ओर उन्हें उन सभी राजनीतिक दलों को एकजुट करना होगा जो वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का ईमानदारी से समर्थन करते हों। इन राजनीतिक दलों को हर क्षेत्र से साझा उम्मीदार खड़ा करने के लिए सहमत करना होगा और फिर ऐसे उम्मीदवारों के चयन में भी हाथ बँटाना होगा जो न सिर्फ ईमानदार हों, वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के समर्थक हों बल्कि जिनके कोई स्वार्थ इस वैकल्पिक अर्थव्यवस्था की सफलता से टकराते न हों।
इस पूरे काम को इस तरह से करना जरूरी है कि इसकी सफलता से किसान आंदोलन की ताकत का पता चले, लेकिन अगर कहीं कोई कमी रह जाती है तो उसका किसान आंदोलन की साख पर कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े। इसकी खातिर हर चुनाव के लिए एक अलग नागरिक समिति बनायी जा सकती है जिसमें किसान आंदोलन के भी प्रतिनिधि हों और कुछ प्रतिष्ठित तथा निष्ठावान नागरिक भी। यह समिति स्वतंत्र रूप से उस क्षेत्र के राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श के साथ इस पूरे काम को अंजाम दे।
हमें याद रखना होगा कि वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का एजेंडा न सिर्फ देश के सबसे ताकतवर राजनीतिक दलों और पूँजीपतियों के स्वार्थों से टकराता है बल्कि वैश्विक पूँजीवाद के हितों से भी। ये ऐसी ताकतें हैं जो अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं। लेकिन यह भी सच है कि वैश्विक पूँजीवाद इस समय एक अपूर्व संकट के दौर से गुजर रहा है और भारत के लोगों के पास यही सबसे अच्छा मौका है कि वो अपनी अर्थव्यवस्था को वैश्विक पूँजीवाद के पंजे से मुक्त कराकर उसे अपने देश की जनता के हितों के अनुरूप ढाल सकें।