समाजवादी अध्ययन केंद्र: “विचारधाराओं के अंत” की घोषणा के दौर का स्पेस

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Randhir K Gautam

— रणधीर  कुमार गौतम —

20वीं सदी के भारतीय इतिहास ने हमें दो महत्वपूर्ण सीख दीं—एक राष्ट्र निर्माण की और दूसरी स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष की। यह सदी भारतीय राष्ट्र के निर्माण की सबसे निर्णायक सदी रही है। तमाम विचारधाराओं की तलाश करती क्रांतियों और वैश्विक आंदोलनों ने भारतीय जनमानस में भी जिज्ञासा उत्पन्न की, लेकिन इन सबके बीच ‘गांधीयन समाजवाद’ की प्रेरणा एक बहुमूल्य विरासत के रूप में उभरीI भारतीय समाजवाद 1857 से 1947 तक के नब्बे वर्षों के राष्ट्रीय आंदोलन से उत्पन्न और विकसित हुआ। समाजवादी विचार भारत की सनातन वैचारिक परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है, लेकिन आधुनिक राजनीतिक विमर्श के रूप में इसकी शुरुआत 17 मई 1934 को पटना स्थित अंजुमन इस्लामिया हॉल के प्रांगण में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना से मानी जाती है। आज, 2025 में यह विचार अपनी विरासत के इक्कान्वे वर्ष में प्रवेश कर रहा है। हम युवाओं के लिए यह एक रोमांचक और प्रेरणास्पद इतिहास की धरोहर है—जिससे जुड़ना राष्ट्र की विरासत को संजोने जैसा है। गांधी के मार्गदर्शन में यह विचारधारा उस समय के अनेकों युवाओं को समाज के विभिन्न स्तरों से आकर्षित करती रही। गांधी, लोहिया और जयप्रकाश—इन तीन धाराओं ने भारतीय समाज और राष्ट्र की चेतना को आंदोलनों के माध्यम से सिंचित कियाI गांधी की प्रेरणा, पूंजीवाद की चुनौती और उस समय प्रचलित मार्क्सवाद के अपभ्रंश से मुक्ति की आकांक्षा—इन सबके सम्मिलन से यह विचारधारा बनी, जो 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के बाद जनचेतना में गहराई से बस गई। आज़ादी के बाद जब भारत पिछड़ेपन और गरीबी से बाहर नहीं निकल पा रहा था, तब इसकी जड़ें सामाजिक संरचना, आर्थिक विषमता और औपनिवेशिक साम्राज्यवाद में निहित थीं। ऐसे समय में समाजवाद ने भारतीय समाज की मुक्ति की घोषणा प्रस्तुत की। दूसरी ओर, यह भी आवश्यक था कि आज़ादी का अहसास प्रत्येक व्यक्ति को हो। यह तभी संभव था जब समाज अपने अंदर व्याप्त विषमता, अत्याचार और शोषण से मुक्त होता। यही समाजवादी आंदोलन की प्रेरणा का मूल था। 

लोहिया की दृष्टि में समाज की मुक्ति के साथ-साथ व्यक्ति की मुक्ति भी उतनी ही आवश्यक थी। वे चाहते थे कि लोग पिछड़ेपन, अंधविश्वास और सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त हों। “लोहिया की विचारधारा की विशेषता यह थी कि वह केवल आदर्श गढ़ने तक सीमित नहीं थी, बल्कि समाज में व्याप्त शोषणपूर्ण व्यवस्था को राजनीतिक साधना और सामूहिक प्रयास के माध्यम से समाप्त करने का लक्ष्य प्रस्तुत करती थी। स्वतंत्रता संग्राम ,गांधी और जनमुक्ति की साधना से प्रेरित यह समाजवादी चिंतन भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में समानता, गरिमा और स्वतंत्रता के सिद्धांतों को मूर्त रूप देना चाहता था। लोहिया और उनके विचार लोकतंत्र को अपने जीवन-दर्शन का आधार मानते थे। उन्होंने भारतीय समाजवाद को एक स्वदेशी स्वरूप देते हुए, पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया। राममनोहर लोहिया एक दृष्टिवान और कर्मशील चिंतक थे। वे किसी विचारधारा के अंधभक्त नहीं थे, बल्कि विचार में ‘ Dissent (असहमति)और  दमन के खिलाफ ‘विद्रोह’ का आग्रह रखते थे। यही चेतना उनकी विचारधारा को स्वतंत्रता और समानता की प्रेरणा देती है। 

समाजवादी आंदोलन ने युवाओं के साथ-साथ श्रमिक वर्ग और किसानों के राजनीतिक लक्ष्यों को भी अपने एजेंडे में स्थान दिया। विशेष रूप से महिलाओं की भागीदारी को महत्व देते हुए, उन्होंने आंदोलन में उनकी सक्रिय भूमिका को मान्यता दिलाई। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के निर्णायक नेतृत्व मंडल में अरुणा आसफ़ अली, सुचेता कृपलानी, कमला देवी चट्टोपाध्याय से लेकर बाद में कांग्रेस रेडियो चलाने वाली उषा मेहता तक की भूमिका में इसकी झलक मिलती है। गरीबी और बेरोज़गारी को डॉ. लोहिया सामाजिक रूपांतरण की दो प्रमुख बाधाओं के रूप में देखते थे। वे ‘दाम बाँधो’ की नीति और उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण को आर्थिक परिवर्तन के मार्ग मानते थे। डॉ. लोहिया समाजवाद को दो सिद्धांतों पर आधारित व्यवस्था मानते थे—एक समानता का और दूसरा समृद्धि का। इन सिद्धांतों को प्राप्त करने हेतु उन्होंने तीन मार्ग बताए: वोट (चुनाव), फावड़ा (रचनात्मक कार्य), और जेल (सविनय अवज्ञा)।

समाजवादी विचारधारा भारतीय समाज में सामाजिक विषमता, सामंतवाद, औपनिवेशिक शोषण और वैश्विक साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष की विरासत रही है। समाजवादियों ने लोकतंत्र में व्याप्त अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों के विरुद्ध लगातार संघर्ष किया। डॉ. लोहिया राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ आर्थिक लोकतंत्र की भी वकालत करते हैं और विकेंद्रीकरण तथा लोकतंत्र को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं। समाजवादी संघर्ष की प्रेरणा में ‘न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था’ के लक्ष्य को विकेंद्रीकरण और व्यक्तिगत गरिमा की प्राप्ति के मार्ग के रूप में देखा गया है।

जैसा कि एक जगह वे लिखते हैं- “Socialism is a newer doctrine than capitalism or communism… There must be adequate doctrinal foundation of consistent logic that gives socialism an autonomous direction in thought and action and saves it from confusions that disperse and scatter… Socialism should cease to live on borrowed breath…”, और पुनः वे कहते हैं- “Equality is perhaps as high an aim of life as truth or beauty.” इससे यह स्पष्ट है कि समाजवाद की उत्कंठा समानता की ओर रही है। और जब-जब व्यक्ति को समाज को या प्रकृति में समानता के मूल्य पर हमला होगा, समाजवाद मार्गदर्शन करता रहेगा। इसलिए समाजवाद किसी भी प्रकार के अत्याचार, दमन या वर्चस्व के विरुद्ध हमेशा संघर्षरत रहेगा। हम समाजवादियों के लिए यह स्मरण आवश्यक है कि हमें सदैव समानता की भूख को जाग्रत रखने वाली राजनीति करनी चाहिए—क्योंकि यही वह ऊर्जा है जिससे समाजवाद एक जीवंत विचारधारा के रूप में कायम रहेगा। मैं कहना चाहूंगा कि हर दर्शन, हर विचार और हर विचारक को नए चिंतनशील, जिज्ञासु मन के साथ संवाद की आवश्यकता होती है। कभी-कभी यह संवाद ही तय करता है कि उस विचार का भविष्य में कितना विस्तार होगा। जिस तरह हर पेड़ को अपने उसी बीज की तलाश होती है, जिससे वह एक पूर्ण वृक्ष बन पाता है—कभी यह फल सहित होता है और कभी फल रहित। उसी तरह समाजवादी विचारधारा के बीज को बचाकर, उसे परिष्कृत करने का वातावरण तैयार करने की आवश्यकता है। इसी दृष्टिकोण से, समाजवादी अध्ययन केंद्र की प्रासंगिकता को मैं यहाँ रेखांकित करना चाहता हूँ: 

हम अपने जीवन में तीन प्रकार के संबंध बनाते हैं: भाव-बंधु, कर्म-बंधु और विचार-बंधु। मेरे लिए विचार-बंधु के प्रति समर्पण का भाव सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। जैसा कि हम जानते हैं, भारत के राष्ट्र-निर्माण में समाजवादी विचारधारा की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और स्वतंत्रता के बाद भी भारत की अर्थव्यवस्था, राज्य-व्यवस्था और लोकतंत्र को दिशा देने वाले सभी महत्वपूर्ण विमर्शों में समाजवादी विचारधारा का निर्णायक हस्तक्षेप रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारत के राजनीतिक परिदृश्य में जितने भी प्रमुख विचार उभरे हैं, उनमें गांधीवादी समाजवादी विचारधारा ने सृजनशीलता, न्याय, उन्मुक्तता और प्रयोगधर्मिता की एक समृद्ध परंपरा स्थापित की है। आज आलोचनाओं के बावजूद, समाजवादी विचारधारा ने भारतीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी है। सामाजिक आंदोलनों से लेकर राष्ट्रीय नव-निर्माण तक, इसके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। मेरा अध्ययन बताता है कि भारत में समाजवाद ने दो प्रमुख दौर देखे हैं: प्रथम कि जब समाजवाद भारत में फैल रहा था और द्वितीय जब समाजवाद भारत में सिमटने लगा।

जब समाजवाद का प्रसार हो रहा था, तब प्रश्न पूछने वालों की संख्या अधिक थी और अध्ययनशील व्यक्तियों का एक बड़ा वर्ग समाजवादी आंदोलन से जुड़ा था। लेकिन जैसे-जैसे समाजवादी आंदोलन सिमटता गया, वैसे-वैसे विचारशील और अध्ययनशील समाजवादियों की संख्या भी घटती गई। भारत में समाजवाद के प्रसार के समय एक ओर मार्क्स और दूसरी ओर गांधी के विचार सक्रिय थे। इन दोनों धारणाओं के संश्लेषण से मध्यवर्ती समता मूलक विमर्श को डॉ. राममनोहर लोहिया ने जिस प्रकार प्रस्तुत किया, और समाजवादियों ने जिसे आगे बढ़ाया, वह क्रमशः जातिवाद और पहचान-आधारित राजनीति तक सीमित होता गया। अब समय आ गया है कि समाजवादी विचारकों को संगठित होकर कम से कम विचारधारा के बीज को बचाने का प्रयास करना चाहिए— जैसा कि रामानंदन मिश्र ‘बीज बचाओ आंदोलन’ के रूप में कहते थे। इसी संदर्भ में समाजवादी अध्ययन केंद्रों की स्थापना एक ठोस और मूर्त प्रयास हो सकता है। जिस प्रकार कई संगठनों में ‘कैडर’ निर्माण की परंपरा है, उसी प्रकार समाजवादियों को भी वैचारिक कार्यकर्ताओं का निर्माण करना चाहिए। लेकिन यह कैडर अंधभक्तों का समूह न होकर, प्रश्न पूछने वाले, न्यायप्रिय और परिवर्तनशील चेतना से युक्त विचारशील व्यक्तियों का समूह होना चाहिए। डॉ. लोहिया स्वयं समाजवादियों को सलाह देते थे—”सुधरो, नहीं तो टूटो।”

तमाम तरह के वैचारिक भ्रमों के शिकार समाजवादियों को अब डॉ. लोहिया के मार्गदर्शन को स्वीकारते हुए और आत्मसात करते हुए संगठन निर्माण का भरसक प्रयास करना चाहिए। इसके लिए 21वीं सदी की नई चुनौतियों और आज के युवाओं की आकांक्षाओं को ध्यान में रखना आवश्यक है। साथ ही, आधुनिक तकनीकों का उपयोग संगठन की शक्ति निर्माण में भी किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि हम अपनी समाजवादी विरासत की साधना को सफल बनाएं। 1934 के बाद जब 2034 आएगा, तब तक हमें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए केवल राजनीतिक परिवर्तन ही नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की भी मजबूत नींव रखनी होगी। “इस यज्ञ को सफल बनाने के लिए हम सभी को अपनी आहुति देनी होगी।”

हम समाजवादी अध्ययन केंद्र को और मजबूत बनाने के लिए कुछ बिन्दुओं पर विचार कर सकते हैं- 

  • समाजवादी विरासत से जुड़े आंदोलनों, सामाजिक कार्यों और विचारों को विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ाना।
  • नए समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों ,साहित्यकारों, वैज्ञानिकों और दार्शनिकों को खोजकर उनके साथ मिलकर समाजवादी विरासत का दस्तावेजीकरण करना।
  • समाजवादी बुद्धिजीवियों द्वारा नीति-निर्माण हेतु दस्तावेज तैयार करने की परंपरा विकसित करना।
  • नए प्रतिभागियों को उनकी रुचि के अनुसार कार्य देने हेतु मार्गदर्शन करना।
  • “Fundamentals of Socialism” नामक पाठ्यक्रम बनाकर प्राथमिक, माध्यमिक एवं विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाने की व्यवस्था करना।
  • समाजवादी आंदोलन, विचार और इतिहास के प्रचार हेतु पॉडकास्ट एवं न्यूज़ पोर्टल की स्थापना करना।
  • समाजवादी नेताओं और विचारकों का संग्रहालय (आर्काइव) बनाना, जिसमें उनके लेखन, पुस्तकें और आंदोलनों का संग्रह हो।
  • विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए अर्धवार्षिक सम्मेलन आयोजित करना।
  • जातिगत राजनीति में संलग्न युवाओं को समाजवादी विचारधारा से जोड़ने का प्रयास करना।
  • “Never and Now” की अवधारणा के तहत नए राजनीतिक परिवर्तन की तलाश कर रहे लोगों को एक मंच पर लाना।
  • समाजवादी सरकारों के साथ मिलकर “Minimum Government, Maximum Governance” की अवधारणा को प्रोत्साहित करना।
  • “Politics from Below” और “Politics for Local” को समर्थन देना।
  • समाजवादी शोधार्थियों और विचारकों का एक अलग समूह बनाकर उनके साहित्य और शोध का संरक्षण एवं संवर्धन करना।
  • 21वीं सदी के भारतीय समाजवाद पर विमर्श आयोजित कर संगठन, विचारधारा और नियमावली की संरचना करना।
  • नवयुवकों के लिए वार्षिक समर स्कूल और विंटर स्कूल का आयोजन करना।
  • 75 वर्ष से अधिक आयु के समाजवादियों के लिए अभिनंदन ग्रंथ तैयार करना।
  • 40 वर्ष से कम आयु के युवाओं के लिए समाजवादी योजना सभा की तर्ज पर एक नया मंच बनाना, जिसके माध्यम से विभिन्न समाजवादी नेताओं के जन्मदिवस, पुण्यतिथि एवं देश के प्रमुख समाजवादी आंदोलनों के गोल्डन जुबली और शताब्दी समारोह आयोजित किए जा सकें।
  • डॉ. लोहिया की सप्त क्रांति और जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के सिद्धांतों पर आधारित कार्यक्रमों का समाज में प्रचार-प्रसार करना।
  • अंत में, एक शिविर का आयोजन किया जाना चाहिए, जिसमें विभिन्न आयु वर्ग के लोग भाग लें और सामूहिक नेतृत्व मंडल, मार्गदर्शक मंडल, एवं कार्य समूह का गठन किया जाए।

यह समग्र प्रयास समाजवादी विचारधारा को न केवल संरक्षित करेगा, बल्कि उसे आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिक बनाते हुए भविष्य की राह भी प्रशस्त करेगा। मैं दुहराना चाहूँगा कि समाजवाद महज राजनीतिक दर्शन नहीं है; विषमता और अन्याय के दौर में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय न्याय को सुनिश्चित करनेवाली ऐसी वैचारिकी है जो “विचारधाराओं के अंत” की घोषणा के दौर में भी एक बड़ा वैकल्पिक स्पेस देता है.  

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