शिवानी क्यों इतनी लोकप्रिय हुईं

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शिवानी (17 अक्टूबर 1923 - 21 मार्च 2003)

— निर्देश निधि —

शिवानी हिंदी के उन चंद लेखकों में हैं जिन्हें खूब लोकप्रियता हासिल हुई, जिन्होंने हिंदी के पाठक-जगत का जबर्दस्त विस्तार किया। यह बात हिंदी के लिए खास मायने रखती है क्योंकि साहित्य के प्रति रुचि के अभाव का रोना सबसे ज्यादा हिंदी पट्टी में ही रोया जाता है। लेकिन शिवानी को पाठकों की कमी कभी नहीं रही बल्कि वे खूब पढ़ी गयीं और आज भी खूब पढ़ी जाती हैं। आज शिवानी की 98वीं जयंती है। अगले साल से उनकी जन्मशती मनाये जाने का क्रम शुरू होगा और उनकी याद में अनेक कार्यक्रम आयोजित किये जाएंगे। क्या यह जरूरी नहीं लगता कि उन्हें याद करते हुए हिंदी का लेखक जगत कुछ तीखे सवाल अपने आप से भी पूछे।

यद्यपि हिंदी कथाकार शिवानी किसी परिचय की मोहताज नहीं, फिर भी उनका संक्षिप्त परिचय जान लेते हैं।17 अक्टूबर 1923 को, ठीक विजयदशमी के दिन गौरा पंत यानी शिवानी का जन्म राजकोट, गुजरात में हुआ। उनके पिता श्री अश्विनी कुमार पाण्डे राजकोट के ही एक कॉलेज में प्रधानाचार्य थे। उनके माता-पिता दोनों ही कई भाषाओं के ज्ञाता विद्वान और संगीतप्रेमी थे। शिवानी में साहित्य और संगीत के प्रति लगाव और समझ अपने माता-पिता से आनुवंशिक रूप से आए । शिवानी के पितामह संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में धर्मोपदेशक थे और विचारों से कट्टर सनातनी। उनकी मदन मोहन मालवीय जी से  अंतरंग मैत्री थी। वे अधिकांशतः अल्मोड़ा और बनारस में ही रहे। शिवानी भी अपने भाई-बहनों के साथ उनकी छत्रछाया में पली-बढ़ीं, और उनसे उत्तम संस्कार पाये।

शिवानी की प्रारम्भिक शिक्षा राजकोट और उसके आसपास ही हुई। मदन मोहन मालवीय जी के परामर्श के कारण शिवानी को शिक्षा के लिए शांति निकेतन भेजा गया था। वहीं  शिक्षा ग्रहण करते हुए उनकी किशोरावस्था बीती। उसके बाद उनका विवाह हो गया और वे अपने शिक्षाविद पति के साथ उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर रहीं। दुर्भाग्यवश उनके पति का असामयिक निधन हो गया। इसके बाद वे लम्बे समय तक लखनऊ में रहीं। फिर वे अपनी बेटियों के साथ दिल्ली और अपने पुत्र के साथ अमरीका में भी रहीं।

शिवानी जब पैदा हुईं तो वे शिवानी नहीं थीं। यह नाम उन्हें एक टाइटल के रूप में मिला। उनके माता-पिता ने उन्हें गौरा पंत नाम दिया था। नन्हीं गौरा पंत जैसे लेखन प्रतिभा लेकर जनमी थी। दूसरों की भावनाओं को अपनी कल्पना शक्ति, अनुभूति और अपने शब्दों के बूते साकार कर देने की प्रतिभा। यदि वे अपनी इस विशेषता के साथ ना जनमी होतीं तो बारह बरस की अबोध आयु में एक ऐसी कहानी न लिख पायी होतीं, जिसे अल्मोड़ा से प्रकाशित होनेवाली बालपत्रिका ‘नटखट’ में प्रकाशित भी किया जा सकता।

आगे चलकर वह हिंदी की एक बहुत लोकप्रिय कथाकार साबित हुईं। साठ और सत्तर के दशक में लिखी इनकी कहानियां और उपन्यास हिन्दी पाठकों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय हुए और आज भी उनके पाठकों की कमी नहीं। शिवानी ने पर्वतीय समाज का वर्णन बहुत गम्भीरता और प्रतिबद्धता से किया और पर्वतीय क्षेत्र से जुड़े उनके यात्रा वृत्तांत बेहद रोचक हैं।

शिवानी की हिंदी के अलावा संस्कृत, गुजराती, बांग्ला, उर्दू तथा अंग्रेजी पर भी अच्छी पकड़  थी। वे अपनी कृतियों में कुमाऊँ क्षेत्र की लोक-संस्कृति की विपुल झलक और पात्रों के बेमिसाल चरित्र चित्रण के लिए जानी गयीं। उन्होंने अपनी रचनाओं में कुमाऊँ की तमाम शब्दावली और लोकभाषा का बहुत ही सुंदरता और सहजता से प्रयोग किया है। उनका आंचलिक वर्णन पाठक को मंत्रमुग्ध कर देता है।

महज बारह वर्ष की आयु में पहली कहानी प्रकाशित होने से लेकर आजीवन (निधन 21 मार्च 2003) वे लेखन में निरंतर सक्रिय रहीं। उनकी दृष्टि स्त्री के दुख-दर्द को सहज ही देख लेती थी। यही कारण है कि उनकी अधिकांश कहानियाँ और उपन्यास स्त्री-चरित्र प्रधान रहे हैं। उन्होंने अपनी कृतियों में कथानायिका के सौंदर्य और उसके चरित्र का वर्णन बहुत ही रोचक ढंग से किया है।

उनके शांतिनिकेतन प्रवास के दौरान उनकी रचनाएँ स्कूल-कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला भाषा में निरंतर प्रकाशित होती रहीं। गुरुदेव रवींद्रनाथ उन्हें गौरा पुकारते थे।  एक बार उन्होंने परामर्श के तौर पर गौरा से कहा कि तुम्हें अपनी मातृभाषा में अवश्य लिखना चाहिए। गुरुदेव का परामर्श मानकर गौरा पंत शिवानी ने अपने लेखन का माध्यम हिंदी को चुना।

जैसा कि पहले कहा गया कि उनकी पहली रचना मात्र बारह वर्ष की अवस्था में प्रकाशित हुई, उसके बाद उनकी पहली लघु रचना ‘मैं मुर्ग़ा हूँ’ 1951 में ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद उनकी कहानी ‘लाल हवेली’। और फिर चला उनके जीवन के अंत तक लेखन का अनवरत सिलसिला।  उन्होंने उपन्यास, कहानियाँ, व्यक्तिचित्र, संस्मरण, बाल उपन्यास, यात्रा वृत्तांत आदि लिखे। इन सबके अतिरिक्त उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित पत्र ‘स्वतंत्र भारत’ के लिए ‘वातायन’ नाम से एक स्तम्भ भी लिखा जोकि उस समय काफ़ी चर्चित भी  रहा। शिवानी सामाजिक मेल-मिलाप में भी बहुत सहज थीं। उनके आवास पर सदा मिलनेवालों का ताँता लगा रहता था।

कई तत्कालीन पुरुष लेखकों की तरह कहानी को केंद्रीय विधा की हैसियत दिलाने में शिवानी का काफी योगदान रहा है। उनकी रचनाओं को पढ़ने के लिए तब भी लोग उत्सुक रहते हैं, आज भी वह उत्सुकता बनी हुई है। उनका लेखन उदारवादिता और परम्परा का कुशल मिश्रण सरीखा है। उनकी भाषा-शैली बहुत सधी हुई है। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ हिंदी है, पर कहन की सहजता के कारण पाठक का उनके लेखन के प्रति आकर्षण बराबर बना रहता है। उन्होंने अपनी कृतियों में तत्कालीन यथार्थ को बिना किसी हेर-फेर के, जस का तस स्वीकारा। शिवानी अपनी कृतियों में पात्रों का चरित्र चित्रण बड़े रोचक और सधे हुए अन्दाज में करती दिखाई देती हैं। उनकी भाषा किसी चरित्र को इस तरह प्रस्तुत करती है कि पाठक के सामने उसका सजीव चित्र उभरता चला जाता है। शिवानी ने अपनी रचनाओं में पात्रों का मानसिक द्वन्द बड़ी कुशलता से दिखाया है।

जब उनके उपन्यास ‘कृष्णकली’ का ‘धर्मयुग’ में धारावाहिक प्रकाशन हो रहा था तो हर जगह उसकी चर्चा हुई। उनके इस उपन्यास ने उन्हें एक सशक्त लेखक की पहचान दी। उनके कई उपन्यास अद्भुत हैं, उपन्यास ही क्यों उनकी कहानियाँ भी भुलाई न जा सकनेवाली हैं। वे पाठक के चित्त में बस जाती हैं।

हालाँकि उन्होंने विपुल साहित्य सृजन किया है परंतु हर लेखक की तरह उनकी कुछ महत्त्वपूर्ण  कृतियों ने उन्हें आसमान की ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया। जिन रचनाओं से पाठक खुद को जोड़ने लगता है, उनके पात्रों में खुद को देखने लगता है, वे लेखक को विशिष्ट प्रसिद्धि दिलाती हैं। उनकी ऐसी ही कुछ रचनाएँ हैं- कृष्णकली, भैरवी, कालिन्दी, चल खुसरो घर आपने, भिक्षुणी, श्मशान चम्पा, चौदह फेरे, अतिथि, पूतों वाली, मायापुरी, कैंजा, गेंदा, स्वयंसिद्धा, विषकन्या, रति विलाप, आमादेर शान्तिनिकेतन, विषकन्या, झरोखा, मृण्माला की हँसी, विप्रलब्धा, पुष्पहार, विषकन्या, चार दिन, करिये छिमा, लाल हवेली, चील गाड़ी, मधुयामिनी आदि।

शिवानी ने सामाजिक स्थितियों, मानसिक द्वन्द और परम्परागत कुप्रथाओं को, जैसे सती प्रथा आदि को अपने लेखन का विषय बनाया, कहीं उन पर कटाक्ष किया और कहीं उन पर सीधा कठोर प्रहार किया। तत्कालीन समाज के आडंबरों को भी उन्होंने अपनी कहानियों में खूब आड़े हाथों लिया है। समाज का शायद ही कोई पहलू होगा जिस पर उनकी कलम नहीं चली।

पर्वतीय यात्राएँ उनके लेखन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहीं। वे जैसे कुमाऊँ अंचल की प्रतिनिधि लेखक हैं। कुमाऊँ अंचल के लोगों के मनोभावों और जीवनानुभवों को उनकी कलम ने बहुत गहराई और गम्भीरता से उकेरा है। साथ ही तत्कालीन समाज की आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक समस्याओं का विवेचन भी उन्होंने बड़ी पैनी नजर से किया है। विशेषकर स्त्री की समस्याओं को बहुत गहराई से उकेरा है। चाहे वे धनी स्त्रियाँ रहीं या निर्धन, शिक्षित या अशिक्षित, सभी तबकों की स्त्रियों की समस्याओं, पीड़ाओं और दुविधाओं को उन्होंने समान भाव से पकड़ा और चित्रित किया है। स्त्रीगत स्वानुभूतियों के कारण, उनकी सहानुभूति सकल स्त्री समाज के साथ रही है। इस तरह वे स्त्रियों के साथ बहनापा निभाती चलती हैं।

उन्होंने संस्मरण भी लिखे- आमादेर शांति निकेतन, स्मृति कलश, एक थी रामरति, मरण सागर पारे, काल के हस्ताक्षर, जालक आदि। उन्होंने चरैवेति, यात्रिक आदि यात्रा वृत्तांत भी लिखे जो बहुत रोचक हैं। सुनहुँ तात यह अकथ कहानी, तथा सोने दे उनके आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं जिन्हें उन्होंने बहुत साफगोई और ईमानदारी से लिखा है। स्पष्ट है कि शिवानी हिंदी की एक बहुत महत्त्वपूर्ण और बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न लेखिका हैं।

वे राज्यसभा की मनोनीत सदस्य भी रहीं। 1982 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया 21 मार्च 2003 को उनासी वर्ष की अवस्था में गौरा पंत शिवानी ब्रह्मलीन हो गयीं। परन्तु उन्होंने अपनी कलम के बूते जो कुछ सौंपा उसके बल पर वे हिंदी साहित्य में सैकड़ों-हजारों बरस जीवित रहेंगी, अपनी पूर्ण आभा के साथ।

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