उत्तर-स्वराज्य और गांधी

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— श्रीभगवान सिंह —

भारत के लिए जिस स्वराज्य का सपना गाँधी देख रहे थे, वह केवल ब्रिटिश पराधीनता से स्वाधीन होने तक सीमित नहीं था, अपितु उनके लिए उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण था देश में खूनी हिंसा एवं अहिंसक हिंसा से मुक्त व्यवस्था, सामाजिक समानता, आर्थिक स्वावलम्बन, स्वदेशी शिक्षा-पद्धति, धार्मिक समभाव आदि को स्थापित करना और इन सबके लिए वे अपने रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिये जीवनपर्यन्त प्रयास करते रहे। राजनीतिक स्वाधीनता उनके लिए इन्हीं लक्ष्यों को सिद्ध करने का एक साधन थी। येन-केन-प्रकारेण नाना आंदोलनों, उथल-पुथल, कुर्बानियों, गतिरोध-गतिशीलता के सोपानों से गुजरते हुए यह साधन 15 अगस्त 1947 को प्राप्त हो गया। गांधी बार-बार रामराज्य’  का हवाला देते हुए स्वराज्य का जो खाका प्रस्तुत करते रहे थे, उसी के अनुरूप वे स्वतंत्र भारत का नव निर्माण होते देखने के अभिलाषी थे, लेकिन आजादी हासिल होने के मात्र साढ़े पाँच महीनों के बाद एक उन्मादी युवक ने उनकी हत्या कर दी। उनकी चिर संचित-पोषित अभिलाषा को यथार्थ रूप देने का दायित्व राज्य सत्ता सँभालने वाले उनके प्रशिक्षित उत्तराधिकारियों पर आ पड़ा- सबसे अधिक उत्तरदायित्व तो जवाहरलाल नेहरू के कंधों पर था।

खेद के साथ कहना पड़ता है कि गांधी द्वारा घोषित उत्तराधिकारी, नेहरू की दिलचस्पी चरखे या अन्य हस्त उद्योगों को आगे बढ़ाने के बजाय देश में बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों को स्थापित करने में बढ़ चली। इसके अतिरिक्त नदियों पर बड़े-बड़े बाँध बनाये जाने लगे, जो काम हाथ-पैर से हो सकते थे, उनके लिए भी मशीनों को लगाया जाने लगा। ग्राम-उद्योगों को ग्राम-स्वराज्य का आधारस्तभ माननेवाले गांधी के उत्तराधिकारी पश्चिमी टेक्नोलॉजी के वशीभूत हो देश में उसे फैलाने में पिल पड़े। बड़े-बड़े कारखानों को आधुनिक भारत के मंदिरोंकी संज्ञा दी, तो ला कार्बुजिए द्वारा डिजाइन किये गये आजाद भारत में सुनियोजित ढंग से बनाये गये नये शहर चंडीगढ़ को इन शब्दों में गौरवान्वित किया- ‘‘पुराने रिवाजों की बेड़ियों से आजाद यह महान रचना आधुनिक भारत का नया प्रतीक है।’’

तब से भारत में ऐसे आधुनिक मंदिरोंएवं नये प्रतीकों के निर्माण का ऐसा सिलसिला चल पड़ा कि जिस भारत के मारफत गाँधी दुनिया को बचानेका मार्ग दिखाना चाहते थे, वह भारत खुद पतंगे की तरह तेजी से चक्करखाते हुए नजर आने लगा है। नाना प्रकार के यंत्रों एवं आविष्कारों के महायान पर सवार इस विकास के महायज्ञ में बेशुमार प्राकृतिक संसाधनों की आहुति पड़ती जा रही है।

मशीनीकरण और शहरीकरण के बेलगाम विकास के खतरे को भाँपते हुए ही गाँधी ने दुनिया को उल्टी ओरजाते हुए देखा था और चक्कर काटते हुए पंतगे की तरह जल मरनेकी उपमा देकर भारतवर्ष के नेताओं को सावधान किया था। इसलिए वे बार-बार गाँवों में चले आ रहे हाथ-पैर पर आश्रित उद्योगों के विकास पर बल देते रहे। लेकिन स्वतंत्र भारत की शासन व्यवस्था सँभालने वाले उनके उत्तराधिकारी को गाँधी का सुझाया मार्ग रास नहीं आया और नेहरू से लेकर अन्य उत्तराधिकारी शहरों से लेकर गाँवों तक मशीनों का जाल फैलाने में तत्पर रहे। नतीजा हुआ कि 1909 में हिन्द स्वराज्यमें गाँधी ने हजारों वर्षों से चले आ रहे हल के न बदलनेपर जो गर्व किया था, वह विलुप्त होता जा रहा है।

अब खेतों में हल-बैल की जगह ट्रैक्टर दौड़ रहे हैं। गाँवों में कई तरह की मशीनें दौड़ रही हैं- ट्रैक्टर, थ्रेसर, जेसीबी जैसी मशीनों का जलवा है, हल-फवाड़े जैसे कृषि उपकरण गायब होते जा रहे हैं, बैल कृषि परिदृष्य से ओझल होते जा रहे हैं। लोहार, बढ़ई, बुनकर, कुम्हार, ठठेरा, चर्मकार आदि सबके घरेलू उद्योग चौपट हो चुके हैं। गाँवों में अब न गाँधी का चरखा है, न लोहिया का फावड़ा। आज आलम यह है कि खेती छोड़ किसान मजदूरी की तलाश में शहरों की ओर भाग रहे हैं। घरेलू उद्योगों को नष्ट हो जाने के कारण नौजवान खाड़ी देशों की ओर पलायन कर रहे हैं। गाँव खाली होते जा रहे हैं और शहर आदमियों से ठसाठस भरते जा रहे हैं।

ग्राम-स्वराज्य की जो परिकल्पना गाँधी की थी, उस लिहाज से होना यह चाहिए था कि रेल, जहाज या आवश्यक सैन्य आयुधों के लिए हम भले ही बड़ी मशीनों एवं फैक्ट्रियों का सहारा लेते, लेकिन गाँवों के कृषि-सापेक्ष उद्योगों को तो सही-सलामत रहने देते। लेकिन द्रुत विकास के अभिलाषी ध्वजारोहियों ने हरेक क्षेत्र में छोटी-बड़ी मशीनें खड़ी करके कृषि से लेकर कुटीर उद्योग, पशुधन तक के अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिये। कोढ़ में खाज की तरह उद्योगीकरण, शहरीकरण, सड़कों के चौड़ीकरण आदि के पक्ष में भूमि अधिग्रहण कानून बनाकर किसानों को और अधिक बेचारगी की हालत में पहुँचाया जा रहा है। पराधीन भारत में किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटना नहीं सुनी गयी, लेकिन आजाद भारत में किसानों की आत्महत्याएँ क्या उत्तर स्वराज्यके चरित्र को प्रश्नांकित नहीं करतीं?

क्या यह स्वराज्य चंद उद्योगपतियों, धनकुबेरों का हित साधनेवाला नहीं रह गया है? गांधी जनता को भरोसा दिलाते रहे कि स्वराज्य चंद लोगों के लिए नहीं होगा, बल्कि किसानों के लिए, मजदूरों के लिए, गरीबों के लिए, अस्पृश्यों एवं पतितों के उद्धार के लिए होगा’, किन्तु आज सात दशकों से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी यह स्वराज्यगाँधी के इस कथन को मूर्त करने के बजाय उससे कोसों दूर होता गया है।

उत्तर-स्वराज्य में भारत जिस तरह हस्त उद्योग, ग्राम-स्वराज्य, अहिंसक हिंसा से दूर होता गया है, उसी तरह गांधी के भाषा एवं शिक्षा संबंधी सोच से भी दूरी बनाता गया है। गांधी लगातार इस बात की गुहार लगाते रहे कि सभी प्रांतों में शिक्षा का माध्यम वहाँ की संबद्ध मातृभाषा में हो तथा पूरे देश के प्रशासनिक एवं राजनीतिक क्रियाकलापों के लिए सभी प्रांतों में हिन्दी की भी शिक्षा दी जाए। लेकिन हुआ इसका उलटा। गांधी तथा अन्य राष्ट्रीय नेता हिन्दी को राष्ट्रभाषाकहते आये थे, किन्तु उस हिन्दी के लिए संविधान सभा ने 14 सितम्बर 1949 को राष्ट्रभाषा के रूप में नहीं संघ की राज्य भाषाके रूप में मान्यता दी, परन्तु साथ ही उसके पैरों में अंग्रेजी की बेड़ियाँ पहना दी गयीं, यह कहकर कि पन्द्रह वर्षों तक देश की राज्यभाषा के रूप में हिन्दी के साथ अंग्रेजी भी काम करती रहेगी ताकि इस अवधि में हिन्दी राज्यभाषा के रूप में कार्य सम्पन्न करने में सक्षम हो जाए। लेकिन पन्द्रह वर्षों की यह अवधि न नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में समाप्त हुई, न अब तक समाप्त हो पायी है। हमारा विश्व हिन्दी सम्मेलनभले ही हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में हिन्दी को स्थान दिलाने का प्रस्ताव पारित करता रहे, लेकिन 75 वर्षों के बाद भी हम अपने ही देश में अंग्रेजी को महारानीऔर हिन्दी को उसकी नौकरानीकी वस्तुस्थिति में परिवर्तन लाने में विफल रहे हैं।

सच तो यह है, अंग्रेजी शिक्षा का जितना विस्तार ब्रिटिश भारत में नहीं था, उससे कई गुना अधिक विस्तार स्वराज्य-प्राप्त भारत में होता गया है। पराधीन भारत में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने वाले तथाकथित पब्लिक स्कूलगिने-चुने थे, लेकिन अब तो शहर, कस्बा, गाँव तक अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई करने वाले स्कूल कुकुरमुते की तरह उगते जा रहे हैं। यही नहीं, हमारी रोजमर्रा की बोलचाल में भी देशज शब्दों को खदेड़ कर अंग्रेजी शब्द पैठते जा रहे हैं। अपने गाँव में एक निजी स्कूल के शिक्षक से जब मैंने पूछा कि क्यों आपके बच्चे न तो हिन्दी दिनों के नाम जानते हैं, न महीनों के नाम, सिर्फ जनवरी से दिसम्बर तक और सनडे से सटरडे तक के नाम जानते हैं, तो उन्होंने, बहुत मायूसी से बताया कि इन बच्चों के अभिभावक ही चाहते हैं कि उनके बच्चे अंग्रेजी शब्दों को ही ज्यादा सीखें। अब ये बच्चे चाचा, काका, फूफा, मामा आदि विभिन्न संबंधों के वाचक शब्दों के स्थान पर अंकल और चाची, मौसी, मामी आदि के लिए आंटी शब्द से काम लेने लगे हैं। प्रचलित देशज शब्दों को विस्थापित करते हुए अंग्रेजी शब्दों को चलाने में प्रिन्ट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया भी कमर कस कर पिल पड़े हैं। तो ये हालात हैं हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी की प्रगति के उत्तर-स्वराज्य में।

संयम, इन्द्रिय-निग्रह, ब्रह्मचर्य के महत्त्व को उजागर करते रहनेवाले गांधी के देश में आज ऐसे जीवन-मूल्यों की तिलांजलि देते हुए शिक्षित वर्ग समलैंगिकता, जारकर्म (एडल्टरी) को वैधता प्रदान करने में प्रगतिशीलता समझने लगा है, अपने को गेकहने में गर्व महसूस करने लगा है। चूँकि यह सब पश्चिमी समाज में भी हो रहा है, इसलिए उसका अनुगमन करके वे मानो, ‘महाजनों येन गतः स पंथाको चरितार्थ करने में लगे हैं, उन्हें राष्ट्रपिता की सोच से कोई सरोकार नहीं।

उत्तर-स्वराज्य की प्रगति-यात्रा पश्चिमी वर्चस्व से मुक्त होकर उद्योग, भाषा, शिक्षा, पहनावे आदि के स्वदेशी साँचे में नया भारत बनाने के संकल्प एवं सपने के साथ लड़े गये गांधी-पोषित मूल्यों पर निरंतर कुठारघात करते जाने की दारुण दास्तान है। निस्संदेह उद्योग, भाषा, शिक्षा, आदि के क्षेत्र में स्वदेशी को विस्थापित करते हुए विश्व के नक्शे पर जो इंडियाउभर रहा है, उसका कण-कण पश्चिमी वर्चस्व की पताका बन लहराते हुए राष्ट्रपिता गांधी की इस हिदायत को कि ‘‘भारत को अपनी सभ्यता से वैसे ही चिपके रहना चाहिए जैसे एक बच्चा अपनी माँ से चिपका रहता है,’’ ठेंगा दिखा रहा है। अब यह वांछनीय, शोभनीय है या नहीं, यह सभी स्वदेशी प्रेमी भारतीयों विशेषकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए आकुल-व्याकुल लोगों के लिए विचारणीय है।

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