सवाल बचाव का है, परम्परा का नहीं

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— ईशान चौहान —

लकत्ता उच्च न्यायालय ने सभी प्रकार के पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया, यह कहते हुए कि आम जनता के स्वास्थ्य के सामने कुछ लोगों के यानी जो पटाखे बनाते हैं उनके आर्थिक हित को तरजीह नहीं दी जा सकती। जैसे राजनैतिक-सामाजिक माहौल में हम आज हैं- उसमें ऐसे निर्देश की मुखालिफत स्वाभाविक है- इस बिना पर कि हमारी परपंराओं की अवहेलना की जा रही है। ऊपर-ऊपर से सोचा जाए, जैसा आजकल आम है, तो यह सच प्रतीत होगा, परंतु सत्य कहीं और ही संकेत करता है। इतिहास का निष्पक्ष मुतालया ये बात साफ तौर पर सामने लाता है कि हमारे वसीह इतिहास में पटाखों का आना कोई खासी पुरानी बात नहीं है।

इस विषय पर जब डा. वसुधा नारायण से सवाल किया (जो यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा में डिस्टिन्ग्विस्ड प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं) तो उन्होंने बताया कि पिछले तकरीबन सौ सालों से ही पटाखे आम हुए हैं। एक तरफ सौ साल का समय, और दूसरी तरफ दिवाली का पर्व ईसा पूर्व से चला आ रहा है तो परंपरा का हिस्सा तो नहीं कहा जा सकता न! जहां यह बात साफ हो जाती है वहां पटाखों पर प्रतिबंध लगाना आसान हो जाता है। हालांकि कलकत्ता उच्च न्यायालय ने इन कारणों से प्रतिबंध नहीं लगाया- उनके कहने के मुताबिक कोविड-19 महामारी के चलते प्रदूषित हवा में सांस लेना समस्याएं खड़ी कर सकता है। ये लिखने के समय ही उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की जा चुकी है। दुख की बात है कि इस महामारी के मुश्किल समय में भी हम इतनी छोटी सी चीज छोड़ने को तैयार नहीं हैं। छोड़ना तो दूर, विराट कोहली का कहना कि पर्यावरण संबंधी समस्याओं के प्रति जागरूक होकर दिवाली मनानी चाहिए, इस सीधी सी और जरूरी बात को भी अब मजहब के तराजू में तोला जा रहा है।

ट्विटर पर, जहां हर कोई बिना किसी सोच विचार के कुछ भी लिख देता है, क्योंकि असलियत छुपाना आसान है, और अपने शब्दों के लिए कोई जावबदारी नहीं होती- विराट के इस सुझाव को- हिन्दुओं के पटाखे पर मनाही लेकिन मुसलमानों के बकरा बलि चढ़ाने पर कोई रोक नहीं- बना दिया गया है। सवाल मनाही का नहीं है- सवाल इसका है कि उसेे आप जोश से परंपरा करार दे रहे थे। हदीस में साफ तौर पर पशु की बलि के बारे में लिखा है- यानी वह मजहब का अभिन्न हिस्सा है। जहां तक बकरा चढ़ाने का सवाल है- ये अलग बात है कि आप पर्यावरण बचाव के लिए इस परंपरा को बदलने की बात कहें, पर जहां हिन्दू धर्म का सवाल है, जैसा हम देख ही चुके, परंपरा तो नहीं हैं पटाखे। फिर यह बात तो एकदम साफ है कि जलवायु संकट, हमारे हाथ पे हाथ धरे बैठे रहने के कारण, महासंकट का रूप ले चुका है। बाढ़, भूस्खलन, तूफान- सभी की आवृत्ति बढ़ गयी है- प्रदूषण बढ़ने की दर भयावह रूप ले चुकी है, और न जाने क्या-क्या। संयुक्त राष्ट्र की आईपीसीसी रिपोर्ट ने (रेड फ्लैग फाॅर ह्यूमैनिटी) मानवता के लिए खतरे का लाल परचम बुलंद किया है, तो क्या ऐसे में हम इन्हीं तफरीक की बातों में अपना कीमती समय गंवाते चले जाएं? यूँ ही हम उस बिन्दु के काफी करीब हैं, जहां से फिर ये सब सिर्फ एक समय का खेल होगा- और हम खुद बुलाये अंत के दर्शक बने बैठे रहेंगे।

कलकत्ता उच्च न्यायालय के निर्देश का हश्र तो आप-हम जानते ही हैं। कब वह दिन आएगा जब हम अपना हित खुद समझेंगे? पर्यावरण में मेरा-तुम्हारा, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध कुछ नहीं होता- असर सब पर पड़ता है। दूसरे पर आरोप मत लगाइए, पहले आप-पहले आप न कीजिए। समय कम है, कदम उठाइए। कुछ बदलाव ऐसे होंगे जोे हमारी पसंद के न हों, अच्छे न लगें- पर करने तो होंगे ही। यह बात अगर आम हो जाए- और लोगों को खतरे का सही मापदंड मिल जाए तो यह समझना कि बदलाव- चाहे वह भाषिक हो, चाहे त्योहारों का हो, चाहे रोजमर्रा की जिंदगी का, उसके अलावा कोई चारा नहीं।‌ अगर कानून बदलकर इस ओर पहल न करें, जैसा कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश ए.एम.खानविलकर और न्यायाधीश अजय रस्तोगी के युगलपीठ ने सिद्ध कर दिया है, तो हमें ही पहलकदमी करनी होगी।

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