जुगल किशोर रायबीर : संघर्ष, प्रेम और सत् का संगम – दूसरी किस्त

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जुगल किशोर रायबीर (17 मई 1946 - 6 नवंबर 2007)
अशोक सेकसरिया (16 अगस्त 1934 – 29 नवंबर 2014)

— अशोक सेकसरिया —

रायबीर ने उत्तर बंगाल के अपने अनुभव और अपने संगठन की प्रारंभिक सफलता से मोहित हुए बिना इस सत्य को हृदयंगम किया था कि उत्तर बंगाल के संगठन को अन्य जन आंदोलनों से जोड़कर एक वैकल्पिक राजनैतिक  शक्ति का निर्माण करना होगा। संगठन की सफलता के दिनों में उसके आंदोलन को जातीय और स्थानीय बनाने का प्रबल आकर्षण था और इसके चलते रायबीर के देश के तरह-तरह के जन आंदोलनों से संपर्क और समन्वय के प्रयत्नों का संगठन में कुछ विरोध भी हुआ और संगठन के कुछ कार्यकर्ता कामतापुरी पीपुल्स पार्टी जैसे हिंसक और सिद्धांतहीन आंदोलन में भी शामिल हो गये। लेकिन रायबीर के पारदर्शी, सत्यनिष्ठ और मेधावी व्यक्तित्व के कारण संगठन विभाजित नहीं हुआ।

भारतीय समाज, राजनीति और अर्थनीति की अनुभवजन्य समझ के चलते रायबीर उत्तर बंगाल के पिछड़ेपन को कोई अपने आप में एक अलग-थलग समस्या के रूप में नहीं देखते थे। उत्तर बंगाल कोलकाता का उपनिवेश है और इसी तरह की क्षेत्रीय विषमता के शिकार कई इलाके दिल्ली और अपनी-अपनी राजधानियों के उपनिवेश हैं। पूँजीवादी व्यवस्था जब बाहरी उपनिवेश नहीं ढूँढ़ पाती तब आंतरिक उपनिवेशों का निर्माण करती चलती है। अपनी इस समझ के चलते उत्तर बंगाल के लोगों को अपने शोषण के कारणों की पहचान करवाने के लिए रायबीर चाहते थे कि ढेर सारी पुस्तिकाएँ निकाली जाएँ, जगह-जगह विचार गोष्ठियाँ आयोजित की जाएँ। 1988 में सच्चिदानंद सिन्हा के एक लंबे लेख आंतरिक उपनिवेश को बांग्ला में अनुवाद करवाकर पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया और उसे संगठन के सभी कार्यकर्ताओं में वितरित किया। 2004 में जलपाईगुड़ी में ‘उत्तर बंगाल का पिछड़ापन, उसके जन समुदाय और उसकी भाषागत अस्मिता’ पर देश के बुद्धिजीवियों की एक विचार-गोष्ठी आयोजित की, जिसमें देश के विशिष्ट बुद्धिजीवियों और जन आंदोलनों से जुड़े नेताओं ने भाग लिया। लेकिन जुगल दा के जीते-जी उत्तर बंगाल के पिछड़ेपन के कारणों पर प्रकाश डालनेवाली पुस्तिकाओं के प्रकाशन का कार्य ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाया।

1990 से मृत्युपर्यन्त रायबीर जन आंदोलनों से जुड़े संगठनों से संबंध बनाने में लगे रहे। इस दौरान उन्होंने हर तरह के आंदोलनों से जुड़े व्यक्तियों से संवाद स्थापित करने की कोशिश की, यहाँ तक कि माकपा (माले) के संतोष राणा ग्रुप से उत्तर बंगाल की समस्याओं पर मतैक्य स्थापित किया। उन्होंने उत्तर बंगाल के मुसलमानों को उत्तर बंगाल के दलितों और आदिवासियों से भी ज्यादा वंचित समूह माना और अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण में पिछड़ी मुसलमान जातियों को शामिल करने के लिए जो आंदोलन किया उसके फलस्वरूप दो मुसलमान पिछड़ी जातियों– नस्य शेख और शेरशाही बादी- को आरक्षण प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु पर मुसलमान ग्रामीणों का शोक एक पारिवारिक अभिभावक को खोने का शोक था। ‘सब पार्टियाँ हम मुसलमानों को डराती हैं, केवल एक जुगल दा थे जो हमें निर्भय करते थे’, एक मुसलमान महिला का यह कथन याद आए बिना नहीं रहता।

जुगल दा द्वारा स्थापित समता केन्द्र

जुगल किशोर रायबीर जटेश्वर में बच्चों से लेकर 25 वर्ष की उम्र वालों के लिए जुगल जेठू (ताऊ) थे तो 30-35 से 60 वर्ष की उम्रवालों के लिए जुगल दा और 60 वर्ष से ऊपर के लोगों के लिए सिर्फ जुगल थे। उनके प्रति लोगों के प्रेम को देखकर स्वाधीनता आंदोलन की याद हो आयी जब किसी नेता की मृत्यु का समाचार प्राप्त होते ही दुकानें स्वतः बंद हो जाती थीं। सात नवंबर को उनकी मृत्यु के शोक में जटेश्वर की सारी दुकानें दोपहर तक स्वतः बंद रहीं। जटेश्वर का मछली बाजार जो किसी भी  ‘बंद’ में कभी भी बंद नहीं हुआ था, स्वतः सुबह दस बजे तक बंद रहा। 12 वर्ष का बदरुल आमीन जुगल जेठू के अंतिम दर्शन के लिए सात नवंबर को समता केंद्र में अपने गाँव से तीन किलोमीटर दूर चलकर चार चक्कर लगा आया था और उसके पिता जमाल तो जिस दिन से जुगल की बीमारी पकड़ में आयी थी उस दिन से सेवा-शुश्रूषा में लगे थे।

जुगल से मेरे परिचय को 25 वर्ष हो गये। वह अनगिन बार कोलकाता आया और हर बार मेरे घर ठहरा। मैंने कभी उसका आतिथ्य सत्कार नहीं किया। वह बिना किसी सूचना के आ जाता और चुपचाप अपना झोला कमरे के एक कोने में रख देता। लगता ही नहीं था कि कोई आया है। सारे दिन वह एनएपीएम, बंदी मुक्ति संगठन और दलितों के छोटे-छोटे संगठनों की सभाओं में भाग लेता या विभिन्न संगठनों के नेताओं से मिलता रहता। बस जाते वक्त यह बता जाता था कि वह कितने बजे तक वापस आ जाएगा क्योंकि उसे देर से आने पर होनेवाली मेरी घबराहट की मुझसे ज्यादा चिंता थी। उसके गुणों का बखान करते मेरी जीभ कभी नहीं थकेगी।

उसके जीवन और आचरण को देखकर उसके राजनीति में भाग लेने की मूल प्रेरणा उजागर होती थी– अन्याय-विषमता का प्रतिकार और प्रेम! एक व्यक्ति के रूप में उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी अहं का पूर्ण विसर्जन। उसके सपनों का भारत गांधी के सपनों का भारत था। रचनात्मक कार्य को वह राजनीति से अलग नहीं मानता था। समता केंद्र की स्थापना के पीछे उसका एक बड़ा रचनात्मक सपना था। आसन्न मृत्यु से वह कभी विचलित नहीं हुआ और मृत्युपर्यन्त संगठन के कार्यकर्ताओं को आगे क्या-क्या करते रहना है, बताता रहा। समता केंद्र को चलाते रहने के लिए एक स्थायी व्यवस्था कर जाने के लिए वह बहुत व्यग्र था और इस सिलसिले में उसने बीमारी के दौरान कई लोगों से वचन लिया था कि वे समता केंद्र के संचालन में सक्रिय होंगे।

जुगल दा की याद में बना स्मारक

कुछ महीने पहले जब हम एकसाथ नंदीग्राम गये थे तो हम एक यतीमखाने में ठहरे थे। यतीमखाने के बच्चे हमारी सुख-सुविधा का इतने प्रेम से ध्यान दे रहे थे कि दिल भर आता था। लेकिन नंदीग्राम से कोलकाता रवाना होते वक्त हमें उनकी सुध भी नहीं रही। गाड़ी में चढ़ने पर जुगल को नदारद पाया तो देखा कि वह यतीमखाने के बच्चों से बात कर रहा है और उन्हें मिठाई खाने के लिए रुपये दे रहा है। नंदीग्राम पहुँचने के दूसरे दिन सब डिवीजनल दफ्तर के सामने लाठी चार्ज हुआ था और लगभग 21-22 लोग सरकारी अस्पताल में भर्ती थे। घायलों को देखने जब हम अस्पताल के पास पहुँचे तो जुगल गाड़ी से उतर पड़ा। थोड़ी देर में जुगल हाथों में बिस्कुट के पैकेटों और फलों से भरे दो थैले लिये हुए प्रकट हुआ और हर घायल को बिस्कुट और फल देकर उसकी मंगल-कामना अर्जित की।

इसी तरह सिंगुर जाने पर जुगल ने माकपा नेता सुदृढ़ दत्त के भड़ैत गुंडों द्वारा तापसी मलिक की बलात्कार के बाद हत्या की खोजबीन की। शायद तब तक सीबीआई ने माकपाइयों द्वारा तापसी मलिक की,सुदृढ़ दत्त द्वारा हत्या करवाये जाने को प्रमाणित नहीं किया था। 16-17 वर्षीया तापसी ने सिंगुर में टाटा के मोटर कारखाना लगाने के विरोध में अग्रणी भूमिका निभायी थी। जुगल ने तापसी के पिता को ढूँढ़ निकाला। तापसी के पिता जुगल को अपने घर ले गये तो वहाँ उनकी पत्नी बीमार लेटी थीं। बँटाई पर खेती करनेवाले तापसी के पिता शोक-विह्वल जरूर थे पर सिंगूर की जमीन न देने के लिए अंतिम दम तक लड़ने को प्रस्तुत थे। जुगल ने उनसे परिवार के सदस्य की तरह बातचीत की। अंत में पत्नी के इलाज के लिए जुगल ने उन्हें 500 रुपये दिये तो उन्होंने लेने से इनकार कर दिया। तब जुगल ने कहा कि क्या आप मुझे अपने परिवार का सदस्य नहीं मानते तो तापसी के पिता ने कहा, ऐसा कैसे हो सकता है। इसपर जुगल ने कहा, तब आप रुपये लेने से इनकार क्यों कर रहे हैं। और तापसी के पिता की आँखों में आँसू बहने लगे और उन्होंने रुपये ले लिये।

यहाँ वैश्वीकरण के विरोध में जुगल की सक्रियता के बारे में एक पंक्ति भी नहीं लिखी जा सकी, उसके साहित्य-प्रेम के बारे में एक शब्द भी नहीं। इतना सारा छूट गया। जुगल का स्मरण पावन-स्मरण है, उसको जानने का सौभाग्य जिन्हें भी मिला उनका जीवन समृद्ध हुआ है। वह मुझसे उम्र में एक-दो वर्ष नहीं, बारह वर्ष छोटा था पर मैंने हमेशा उसे बड़ा भाई ही माना, वह था ही ऐसा।

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