दूसरों के लिए बुनियाद बनने को समर्पित था उनका जीवन

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अशोक सेकसरिया (16 अगस्त 1934 - 29 नवंबर 2014)

— भोला प्रसाद सिंह —

नाम की भूख, न प्रतिष्ठित होने की प्यास, एक निस्पृह जीवन, पर दूसरों को प्रतिष्ठित करने की अंतहीन चाह। कुछ ऐसे ही शब्दों में अशोक सेकसरिया जी का परिचय दिया जा सकता है। तरह-तरह के सामाजिक एवं धार्मिक विभाजनों से ऊपर उठकर, वंचना के शिकार व्यक्ति के लिए कुछ करते रहने में ही उस व्यक्ति को परम संतोष मिलता था।

“सबै सहाय्य सबल को निरबल को कोऊ नाहीं” – जैसे भाव के विपरीत उनकी जीवन दिशा थी। अशोक जी के जीवन के बहुमुखी द्वार थे, एक द्वार से निकलकर आप राजनीति के मार्ग पर जा सकते हैं तो दूसरे मार्ग से निकलकर साहित्य की रचनात्मक दृष्टि को आत्मसात कर सकते हैं तो तीसरे से क्रीडांगन की बारीकियों से गुजरते हुए अव्यक्त आनंद के अहसास से जुड़ सकते हैं।

कितना विचित्र लगता है, एक व्यक्ति अलग-अलग मोर्चे पर नाम का अलग-अलग बाना धारण कर लेता है, जैसे– मोहन राकेश के नाटक का एक ही पात्र अलग-अलग भूमिकाओं में अलग-अलग नामों से दर्शकों के समक्ष उपस्थित होता है। अशोक जी क्रिकेट पर लिखते थे राम फजल के नाम से और कहानियाँ गुणेंद्र सिंह कम्पानी के नाम से। छद्म नामों में भी एक अंतर्दृष्टि ध्वनित है। राम फजल यानी राम की कृपा, नाम एक पर गूंज दो संस्कृतियों की। इसी प्रकार गुणेंद्र सिंह ‘कंपानी’ में छद्म नाम की आशंका।

अशोक जी परिवर्तन की तीव्र आकांक्षा से प्रेरित ‘जन’, ‘चौरंगी वार्ता’ और ‘सामयिक वार्ता’ को संवारने में आजीवन लगे रहे तो श्रीकांत वर्मा और नरेश मेहता के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘कृति’ में कहानियां भी लिखते रहे। ‘कृति’ के अतिरिक्त भी कई पत्रिकाओं में उनकी कहानियां प्रकाशित हुईं, लेकिन वे कहानियों के संकलन के प्रकाशन के खिलाफ थे। यह बात इस ओर इंगित करती है कि वह लीक से अलग हटकर चलनेवाले व्यक्ति थे। एक लम्बे अंतराल के बाद उनकी लम्बी कहानी ‘राइजिंग टू दी ऑकेजन’ 1994 में ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में प्रकाशित हुई। उन दिनों इसके संपादक गिरधर राठी थे। शायद अशोक जी, राठी जी के आग्रह को टाल नहीं पाये होंगे, गहरे संपर्क के कारण। राठी जी से उनका परिवार जैसा संबंध था, यह उन्होंने मुझे कभी बताया नहीं- एक संदर्भ के आधार पर मैं कह रहा हूँ। अशोक जी दिल्ली से लौटे थे और मैं उनसे मिलने गया था। वे राठी जी को पत्र लिख रहे थे, उनके बगल में बैठकर ताक-झांक करते हुए ख़त के मजमून का कुछ अंश मैंने पढ़ लिया। दिल्ली से लौटते वक्त गिरधर जी की पत्नी चंद्रकिरण राठी ने रास्ते के लिए दक्षिण भारतीय व्यंजन बनाकर उन्हें दिया था। उस व्यंजन को याद करते हुए वे चंद्र किरण जी के प्रति अपनी कृतज्ञता, भाव विह्वल होकर लिख रहे थे। पत्र में और भी कई मार्मिक प्रसंग होंगे लेकिन उन्हें जानने के लिए अतिशय ताक -झाँक करने में मुझे संकोच भी हो रहा था।

अशोक जी में परदुखकातरता बहुत थी। उनके लिखे संस्मरण में संवेदनशीलता की बार-बार अनुभूति होती है। ‘तपशीली जाति ओ आदिवासी’ संगठन के अध्यक्ष जुगल किशोर रायबीर के संस्मरण में लिखे गए उनके एक वाक्य का उल्लेख करना चाहूँगा जो एक दुर्लभ वाक्य है– “उसके (युगल जी के) गुणों का बखान करते हुए मेरी जीभ कभी नहीं थकती।” अगर सूत्रात्मक रूप में कहा जाय तो अशोक जी की भाषा निश्छल मन की भाषा है।

अशोक जी में परम कृतज्ञता-भाव के साथ चरम आतिथ्य भाव था। अनुमानतः दस-बारह साल पहले मैं अशोक जी से मिलने उनके घर जा रहा था कि बाहर ही घर के करीब मिल गये, वे एक हाथ में कुल्हड़ लिये घर की ओर आ रहे थे। मैंने पूछा, कुल्हड़ में क्या है? उन्होंने कहा कि मेरा मित्र पृथीपाल सिंह दिल्ली से आया है, उसके लिए होटल से गोश्त लेकर आ रहा हूँ। सुनकर मैं स्तब्ध हो गया। राजस्थानी परिवार में जहां मांसाहार की चर्चा तक बर्दाश्त नहीं की जाती, उसी परिवार के किसी सदस्य को भनक तक मिल जाए तो तूफान खड़ा हो जाए। एक बड़ी आशंका के बावजूद वे अपने अतिथि मित्र को तृप्तिदायक भोजन कराने को तत्पर दीखे। ऐसा आतिथ्य-भाव मैंने आज तक न देखा न सुना।

आज कोलकाता स्थित भारतीय भाषा परिषद की ख्याति भारत के कोने-कोने में है। यहाँ देश के हर कोने से विभिन्न भाषाओं के विद्वान आते रहते हैं। इस परिषद की स्थापना में केन्द्रीय भूमिका अशोक जी के पिता सीताराम सेकसरिया की थी। उनके देहांत के बाद परिषद की कार्यकारिणी ने अशोक जी से परिषद की संचालन समिति में शामिल होने के लिए आग्रह किया लेकिन उन्होंने मना कर दिया। वे परिषद के वाचनालय में आते, घंटों पत्र-पत्रिकाएँ देखते रहते। परिषद के दफ्तर में उन्हें बैठते हुए नहीं देखा। बाहर से आनेवाले विद्वानों के आने पर परिषद के जो कार्यक्रम होते, उसमें एक सामान्य श्रोता के रूप में वे बैठते। जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने परिषद जाना भी बंद कर दिया था। साहित्य, राजनीति, पत्रकारिता, विचार या चिंतन की दृष्टि से उन्हें कुछ व्यक्तियों से गहरा लगाव था। हर मोर्चे पर सक्रिय लोगों में से चयन का उनका कुछ ख़ास मापदंड था। कहानीकारों में उन्हें ज्ञानरंजन विशेष प्रिय थे तो उपन्यासकारों में मनोहर श्याम जोशी। अपने निकट उठने-बैठने वालों से ज्ञानरंजन की कहानियों और मनोहर श्याम जोशी के ‘कसप’ और ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ उपन्यास पढ़ने को अवश्य कहते। वर्तमान कहानियों की चर्चा होने पर वह कहा करते थे कि ‘नयी कहानी’ के दौर के बाद की कहानियों की भाषा में ज्ञानरंजन ने एक नयी चमक पैदा की।

ज्ञानरंजन के प्रसंग में एक घटना याद आती है। नब्बे के दशक में कोलकाता के महाजाति सदन में अखिल भारतीय लघु पत्रिकाओं का सम्मलेन हुआ था। उस समय लघु पत्रिकाओं की राष्ट्रीय परिषद के अध्यक्ष ज्ञानरंजन थे। हमारी पत्रिका तो नाम से भी छोटी थी (यानी कण), उन दिनों भी अनियतकालीन ही थी। अशोक जी ने उसकी आधारशिला रखी थी, उनके अभिभावकत्व में ही ‘कण’ का प्रकाशन होता था। अतः उस सम्मेलन में संजय भारती, मैं और अशोक जी ‘कण’ की तरफ से उपस्थित थे, लेकिन अशोक जी की विशेष दिलचस्पी ज्ञानरंजन में थी। सम्मलेन खत्म होने के बाद मंच से उतरकर वे आए और अशोक जी से कहा चलिए। हमलोग यानी ज्ञानरंजन, अशोक जी, संजय भारती और मैं टैक्सी से 16, लार्ड सिन्हा रोड के लिए चल दिये। रास्ते में कई दिलचस्प बातें हुईं, उनमें से एक प्रसंग मुझे याद है। उन्हीं दिनों ज्ञानरंजन जी की ‘पिता’ कहानी प्रकाशित हुई थी। कुछ समीक्षकों ने उस कहानी को ज्ञानरंजन के अपने पिता से जोड़ने की अटकलें लगायी थीं जबकि उनके पिता हिंदी के लेखक रामनाथ सुमन हिन्दी क्षेत्र में एक परिचित नाम हैं। कहानी के आलोच्य पिता और उनके पिता में किसी तरह का साम्य नहीं है। अशोक जी के घर पर पहुंचते ही ज्ञानरंजन से बातचीत करने हिन्दी साहित्य के विश्वविद्यालयी छात्र-छात्राएं, एक-दो शोधार्थी और पत्रकार आदि उत्सुकुता लिये पहुँच गये। उनमें से अशोक जी से बहुतों ने ज्ञानरंजन की कहानियों के वैशिष्टय को सुन रखा था।

अशोक जी के साथ लेखक

रात को अशोक जी के यहाँ ज्ञान जी के साथ मैं और संजय भी ठहर गये थे। सुबह एकसाथ हमलोग निकले, उन्हें कहानी-लेखक छेदीलाल गुप्त से मिलने जाना था और हम दोनों को सियालदह आना था। रास्ते में अपने युवा-सहयात्रियों को ज्ञान जी ने कई दिलचस्प प्रसंग सुनाये, जो समय के अँधेरे में खो गये हैं, केवल एक मद्धिम सी रौशनी दीख रही है।

यादों का अंतहीन सिलसिला तो चलता रहेगा लेकिन समय की पाबंदियों को ध्यान में रखते हुए भी दो प्रसंगों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। ये दोनों घटनाएं अशोक जी के जीवन की अद्भुत घटनाएं हैं। पहला है बेबी हालदार की पुस्तक ‘आलो-आंधारि’ और दूसरी है सुशीला राय की ‘अनपढ़ कहानी’ का प्रकाशन। चूँकि ये दोनों रचनाएँ साहित्य के बनाये हुए सांचे (यानी विधाओं) में फिट नहीं होतीं इसलिए इन्हें पुस्तक ही कहना उपयुक्त लगता है। यद्यपि ‘आलो-आंधारि’ के प्रकाशन में तीन रचनात्मक सूझ-बूझ वाले व्यक्ति लगे हुए थे– अशोक सेकसरिया, कथाकार प्रबोध कुमार एवं रचनारत युवा और प्रकाशक संजय भारती। यद्यपि इन लोगों की पूरी कोशिश रही है कि लेखिका की मूल प्रति की पूरी तरह रक्षा की जाय। यह प्रसंग इस मायने में अद्भुत है कि पहले इसका बांग्ला से हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ, (जो अमूमन होता नहीं है) और इसके बाद यह मूल भाषा बांग्ला में छपी | हिन्दी और अनूदित भाषाओं में भी इसका नाम ‘आलो-आंधारि’ ही रखा गया। विभिन्न भाषाओं में पाठकों ने हालदार की आपबीती को हाथों-हाथ लिया। बेवी हालदार को तो सातवीं कक्षा तक स्कूल जाने का मौका भी मिला था लेकिन सुशीला राय की जो भी पढ़ाई-लिखाई हुई घर में ही हुई, लेकिन कलम पकड़ने का आत्मविश्वास तो उनमें अशोक जी ने ही जगाया। प्रसंग थोड़ा बड़ा इसलिए हो गया कि मन में यह बताने की तीव्र उत्कंठा बनी हुई थी कि अशोक जी के बिना ‘आलो-आंधारि’ और ‘अनपढ़ कहानी’ इतनी बड़ी संख्या में पाठकों तक पहुँचना मुश्किल ही नहीं असम्भव था। यद्यपि ‘आलो-आंधारि’ के प्रकाशन के काम में पहला कदम प्रबोध जी का ही था लेकिन अशोक जी के दिली सहयोग और संजय भारती के जोखिम-भरे कदम के बिना भी कार्य पूरा न हो पाता। सुशीला राय के पति बालेश्वर राय ने भी कभी कल्पना नहीं की होगी कि उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के पाठकों द्वारा पढ़ी जाएंगी। एक चाय दुकान में काम करनेवाला लालू पढ़ना-लिखना सीख जाएगा और चाय पहुंचाने के काम से मुक्त होकर कोलकाता बड़ा बाजार के खादी भंडार में सेल्समैन बन जाएगा, ऐसी कल्पना उसने नहीं की होगी।

सेकसरिया परिवार में वर्षों से भोजन बनानेवाली बंगाली विधवा ठाकुर दासी समय-समय पर अशोक जी को डांट भी सकती है यह कहते हुए कि जरा ठीकठाक ढंग से रहो कैसा मनहूस चेहरा बनाये रहते हो और इस क्रम में पूर्वी बंगाल की भाषा में आत्मीयता के साथ कहती “अरे बिया करे नाओ, बिया”, (यानी मैं बार-बार कहती हूँ विवाह कर लो )। जवाब में अशोक जी “अरे जाओ, तो नीचे जाओ।” कहकर टालने की कोशिश करते। अशोक जी का लगाव भी ठाकुर दासी के प्रति कम न था। एक बार ठाकुर दासी गंभीर रूप से बीमार पड़ी तो उसे अशोक जी के भतीजों ने किसी नर्सिंग होम में भर्ती करवा दिया और उनका काम तो पूरा हो गया, लेकिन अशोक जी की ड्यूटी शुरू हो गयी। उसी दरमियान मैं अशोक जी से मिलने गया। बाहर आकर उन्होंने मुझे चाय पिलायी, कुछ देर बातचीत की, फिर कहा कि आप जाइए और वे पुनः नर्सिंग होम के अन्दर चल गये। कोई अपनी सगी माँ के लिए भी दिनभर अस्पताल में नहीं ठहरता लेकिन अशोक जी के लिए यह सामान्य बात थी। परदुखकातरता और अतिशय संवेदनशीलता के प्रसंग उनके जीवन के हर मोड़ पर मिल जाते हैं।

अशोक जी का बड़ा सा कमरा कम से कम सामान होने के कारण और बड़ा लगता था, किसी आतिथ्यशाला की तरह।उनके अतिथियों में किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे चिन्तक हुआ करते थे तो रवि राय, शिवानन्द तिवारी जैसे समाजवादी नेता। किशन जी और सच्चिदा जी के प्रति अशोक जी में गहरी श्रद्धा थी। किशन जी के संपादन में निकलने वाली ‘सामयिक वार्ता’ को विशिष्ट वैचारिक और समाजवादी चिंतन का मुखपत्र बनाने में अशोक जी का अकथ परिश्रम लगा हुआ था। भाषा के प्रति भी उनमें अपार निष्ठा थी। इसी कारण आज सरकारी और अंग्रेजीदां लोगों तथा नेताओं की हिन्दी से वे चिढ़े रहते थे। इस भावना को व्यक्त करते हुए उन्होंने ‘हिन्दी का अंडबंडीकरण’ शीर्षक से एक आक्रोशपूर्ण लेख लिखा जिसकी पंक्तियाँ बतौर उदाहरण यहाँ दी जा रही हैैं– “आजादी के बाद से राजभाषा का दर्जा दिये जाने और करोड़ों रुपये खर्च किये जाने के साथ-साथ, हिन्दी की जिस प्रकार चिंदी हो रही है, वह खौफनाक है।” इस प्रकार बेलाग आलोचना-दृष्टि के कारण उन्हें अपनी रचनाओं को अंतिम रूप देने के पहले उन्हें बार-बार सुधारने के दौर से गुजरना पड़ता था।

निर्मल वर्मा के अवसान के बाद ‘रंग-प्रसंग’ के लिए उन्हें निर्मल जी की स्मृति में लिखना था। संयोग से उन दिनों वे कांचरापाड़ा (कोलकाता से करीब 45 कि.मी. दूर) संजय भारती के यहाँ ठहरे हुए थे। इसलिए उनसे नियमित मुलाकात हो जाती थी। एक दिन जब वे बाहर गये हुए थे तो भारती के यहाँ पहुंचा तो देखता हूँ कि निर्मल वर्मा की स्मृति में लिख गयी रचना के चार-पांच प्रारूप पड़े हुए हैं। मुक्तिबोध भी अपनी एक ही कविता को कई बार लिखते थे। केवल पंक्तियाँ ही नहीं कविता का शीर्षक भी बदल देते थे। पहली बार उनकी बहुचर्चित कविता ‘अँधेरे में’ का शीर्षक था ‘आशंका के द्वीप’। ठीक इसी तरह अशोक जी ने ‘निर्मल वर्मा’ के संस्मरण लिखने के क्रम में चार-पांच मसौदा तैयार किया था। कहानीकार रामनारायण शुक्ल पर ‘कण’ पत्रिका के विशेषांक के लिए अशोक जी को संस्मरण लिखना था। इस संस्मरण के प्रारूप भी उन्होंने कई बार बदले।

सेकसरिया स्कूल ऑफ क्रिएटिविटी

अशोक जी का निकेतन उस बाग की तरह था जहां बिरवा तैयार किये जाते। खासकर पत्रकारिता, साहित्य के बिरवे यहाँ की मिट्टी में पनपते रहे हैं। उर्वर जमीन में भी कुछ बिरवों का अपेक्षित विकास नहीं हो पाता या वे बौने-ठिगने रह जाते हैं, मैं उन्हीं में से एक हूँ | मेरे मित्र वरिष्ठ पत्रकार गंगा प्रसाद जी सेकसरिया स्कूल की देन हैं। जयनारायण प्रसाद, प्रजापति और भी कई पत्रकार इस स्कूल से प्रशिक्षित हुए हैं, यदि कुछ अतिरंजना हो गयी हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। जीवन सत्य को सृजन सत्य के ढाँचे में ढालने की प्रेरणा अलका सरावगी को अशोक जी से मिली।कृष्णा सोबती के बाद साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत होनेवाली दूसरी कथाकार हैं। शर्मिला जालान बोहरा का नाम आज हिंदी की रचना-पत्रिकाओं के लिए अपरिचित नहीं हैं। शर्मिला जी तथा एक चर्चित रचनाकार (जिनका नाम अपनी कमजोर स्मृति के कारण भूल रहा हूँ ), सेकसरिया स्कूल ऑफ क्रिएटिविटी से दीक्षित हुए हैं।

कांचरापाड़ा, कोलकाता में ‘अशोकायतन’

अशोक जी से उपकृत होनेवाले बीसियों हैं लेकिन उनकी छाया बन पाये संजय भारती। अशोक जी की मृत्यु का समाचार पाकर उन्हें बच्चों की भाँति मैंने रोते देखा है। अशोक जी से संजय भारती की आत्मीयता को देखकर कोलकाता के बुजुर्ग लेखक एवं प्रोफेसर डॉ कृष्ण बिहारी मिश्र ने अशोक जी के संस्मरण में लिखा कि वे संजय को अपना पोष्य पुत्र मानते थे। यह केवल संजय के लिए ही नहीं कांचरापाड़ा निवासी होने के कारण हम लोगों के लिए भी गौरव का विषय है। संजय ने अशोक जी की स्मृति में अपने निवास से संलग्न पूरे एक तल्ले पर ‘अशोकायतन’ बनाया है, यह केवल अशोकायतन ही नहीं, लोकायतन भी है। देश के किसी भी कोने में रहनेवाले रचनाधर्मी इस लोकायतन में ठहर कर रचना कर्म को अंजाम दे सकते हैं। इसका परिवेश भी पन्त की उस पंक्ति की याद दिलाता है– ‘नीरव, शांत, प्रशांत डूबा है सारा ग्राम प्रांत |’

देश के किसी भी कोने में रहनेवाले रचनाधर्मी इस लोकायतन में ठहरकर इत्मीनान से अपने रचना कर्म में लगे रह सकते हैं। इस आतिथ्यशाला में सारी आवासीय सुविधाएं उपलब्ध हैं। कोलकाता से करीब 40-42 कि. मी. दूर हालिशाहर रेलवे स्टेशन से 10 मिनट की दूरी पर यह स्थापित है। पिछले छह सालों से अशोक जी के प्रेमीजन पुराने अशोकायतन में इकठ्ठा होकर अशोक जी की स्मृतियों को आपस में बाँटते हैं लेकिन पारंपरिक रूप से वक्ता और श्रोता जैसी व्यवस्था इस समागम में नहीं होती। मेरा अंदाज है कि अशोक जी भी इसी तरह की अनौपचारिक बातचीत ही ज्यादा पसंद करते थे। संजय भारती भी इस स्मृति चर्चा में अशोक जी की पसंद का पूरा ख्याल रखते हैं। लेकिन अशोक जी की स्मृतियों में इस आयतन में इकट्ठा होना स्मृति चारण से भिन्न होता है। इन शब्दों के साथ उस मनीषी को नमन करते हुए….|

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