धरती और बीज : भारतीय ज्ञान परंपरा

0
Indian Knowledge Tradition

भारतीय ज्ञान परंपरा की चर्चा चल रही है किंतु यह बात कम ही लोगों को मालूम होगी कि कपिलावात्स्यायन जी का संकल्प ही भारतीय ज्ञान परंपरा के लिए था और उन्होंने संपूर्णता के सिद्धांत को लेकर भारतीय शोध पद्धति का प्रवर्तन भी किया था। आई जी एन सी ए की स्थापना की यही पृष्ठभूमि थी।

उनका पूरा ध्यान देशज चिंतन के प्रति था और उसके लिए उन्होंने कितनी ही परियोजनाएं शुरू की थीं , जिनमें से कुछ पूरी भी हुई थीं।

धरती और बीज ऐसी ही परियोजना थी, जब यह परियोजना उन्होंने मुझे दी तो साफ कर दिया कि विश्वविद्यालयों की पद्धति में जो अनुशासन हैं, वे ज्ञान की परिधियां बनाते हैं और हम उनको स्वीकार नहीं करते। हमारे अध्ययन के केंद्र में जीवन है और प्रकृति है। हमें उसे समग्र रूप में देखना है, खंड खंड करके नहीं।

अध्ययन की सामग्री लोकवार्ता से संबंधित थी, जो मैंने हाथरस के सत्तर गांवों के किसानों के बीच जाकर एकत्र की थी।
किसान ने खेती की, जरूर की किंतु खेती के साथ उसने १-धरती और बीज की प्रक्रिया २-धरती और बीज के बिम्ब ३-मनुष्य जीवन पर वृक्ष वनस्पति का प्रभाव और उनके प्रति मनुष्य की प्रक्रिया को भी पहचाना। यह एक ज्ञान की एक देशज परंपरा है। ज्ञान की यह परंपरा लोक में विकसित हुई और शास्त्र में भी पहुंची। उदाहरण के लिए कुछ बातें मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।

धरती और बीज की प्रक्रिया [अर्थात्‌ बीज से वृक्ष और पुनः वृक्ष से बीज बनने की प्रक्रिया] एकांत- प्रक्रिया नहीं है ।वह संपूर्ण सृष्टि की प्रक्रिया से जुड़ी हुई है।हवा चलती है, नदियां बहती हैं, समुद्र में तरंगे उठती हैं ,दिन और रात होते हैं, संपूर्ण ब्रह्मांडीय -गति के साथ सब कुछ गतिशील है और बीज से वृक्ष तथा वृक्ष से बीज होने की प्रक्रिया उस संपूर्ण गति से अभिन्न है ।बीज को बोने से पहले धरती को जोता जाता है तो यह पंचीकरण की प्रक्रिया है ,क्योंकि इस प्रक्रिया में मिट्टी की पर्त नीचे से ऊपर की ओर आती है ,उसमें धूप और हवा दोनों का समावेश हो जाता है।बीज जमीन में बढ़ता है तो उसको जीवनी -शक्ति सूरज से ही प्राप्त होती है ।सूरज ही उसे जगाता है ,उगाता है , और बढ़ाता है ।सूरज की किरणें पड़ने से पहले अंकुर का रंग पीला होता है किंतु सूर्य- दर्शन के बाद उसका रंग हरा हो जाता है ।यदि धूप न निकले तो खेती पीली पड़ जाती है सूर्य के ताप से ही वृक्ष पर फल और खेतों में फसल पकती है। सूर्य के तेज से ही बीज उत्पन्न होते हैं और अधिकांश फूल सूर्योदय होने पर ही खिलते हैं।अब हम हवा को देखें तो , दिशाओं और कोणों के आधार पर किसान हवा की पहचान करता है-पुरवइया या पछवा हवा ।अनेक प्रकार की जो हवाएं हैं उनका धरती और बीज के संबंध पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है ।

पुरबैया हवा के कारण से आम लसिया जाता है ।गेहूं का दाना मोटा पड़ेगा या हल्का पड़ेगा इसका संबंध हवा से है ।इसी प्रकार जो पानी भी अनेक प्रकार का होता है- मीठा , खारा , तेलिया, लोनिया । इन भिन्न-भिन्न प्रकार के जलों का भिन्न-भिन्न प्रभाव वनस्पतियों पर पड़ता है ।इस संबंध में अनेक कहावत भी कही जाती हैं ,जैसे फूल ना आया ,पाया पानी धान मरा अध बीच जवानी ।बीज की विविधता का संबंध मिट्टी की विविधता से है और मिट्टी की विविधता का संबंध पानी की विविधता से है और इस बात से भी है कि वहां पानी और धरती का संबंध कैसा है ?पानी धरती को प्रभावित करता है और धरती पानी को प्रभावित करती है तथा दोनों मिलकर के बीज को प्रभावित करते हैं ।

धरती और बीज की प्रक्रिया में पानी की भूमिका अनिवार्य है।बिना पानी के धरती में बीज अंकुरित नहीं हो सकता ।किसान ने विभिन्न प्रकार के पानी और उनके प्रभाव को परखा है।खेती के लिए मीठा पानी प्रयुक्त होता है ।मीठा पानी लगाने के बाद फिर बाद में खारा पानी दिया जा सकता है किंतु मरमरा पानी अपनी खेती के लिए मुर्दा की तरह होता है।तेल या पानी कड़वा होता है और खेती के लिए उपयोगी नहीं होता लोन या पानी झाग पैदा करता है जिस खेत में पाउडर जैसा बिखर जाता है इसे रेप कहते हैं और धोबी लोग इसे अपने कपड़े धोने के काम में लेते हैं लोनिया पानी जमीन को ऊसर बना देता है ।रेतीली मिट्टी पानी को जल्दी सोख लेती है जबकि चिकनी मिट्टी निसुखिया होती है ।जहां पानी अधिक भरा रहता है वहां की मिट्टी चिकनी और कड़ी हो जाती है इस प्रकार पानी की मात्रा और पानी की विविधता से मिट्टी में परिवर्तन होता है किंतु धरती भी पानी को प्रभावित करती है और इसीलिए यह कहा जाता है कि चार कोस पर पानी बदल जाता है ।इस प्रकार हवा, पानी, और धूप की बात भी एकान्त नहीं है ,वह संपूर्ण ऋतु चक्र और कालचक्र से जुड़ी हुई बात है ।ऋतु और फल का अभिन्न संबंध है , माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आएं फल होय ।इस प्रकार से धरती और बीज की प्रक्रिया सृष्टि चक्र की प्रक्रिया का ही एक अंग है ।

खेती के लिए वर्षा एक महत्वपूर्ण आधार है। किसान की चिन्ता वर्षा से जुड़ी हुई है ।इसीलिए किसानों में मेघ- विद्या का विकास हुआ । इसलिए वर्षा के अनुमान को लेकर न केवल बादलों के रंग या बिजली या हवा के लक्षणों को आधार बनाया जाता है, नक्षत्र मंडल को भी आधार बनाया गया है और चन्द्रगणना की तिथि को भी आधार बनाया गया है ।गर्मी और सर्दी को भी आधार बनाकर उसके लक्षणों के आधार पर वर्षा का अनुमान किया जाता है ।वर्षा और खेती के संबंध को लेकर लोकोक्तियां का इतना विस्तार है कि उसके आधार पर मेघ विद्या का एक पूरा ठाठ खड़ा किया जा सकता है।वर्ष शब्द की जो अवधारणा है वह भी वर्षा से ही बनती है ।बीज सृष्टि का एक रहस्य है जब कोई बीज धरती पर गिरता है, तब धरती की कोख से अंकुर फूटता है और धीरे-धीरे वह छोटा सा बीज विशाल वृक्ष बन जाता है।बीज में एक से अनेक होने का संकल्प और उत्पादन अथवा है प्रजनन की निरंतरता है।जिन वनस्पतियों के पास बीज नहीं है वह अपने अंग या अंश से ही अपने वंश का विस्तार कर लेते हैं , जैसे केला में बीज नहीं होता, तो उसकी गुड़िया जब एक बार लग जाती है, तो धरती में चारों ओर उसके अंकुर फूटने लगते हैं यही बात बांस के संबंध में कही जा सकती है ।

गुलाब या शहतूत की टहनी धरती में गाड़ी जाती है ,तो उसकी प्रजनन शक्ति सक्रिय हो जाती है। अमरबेल की जड़ तो धरती में नहीं होती जिस वृक्ष पर वह एक बार गिर जाती है, उस वृक्ष से अपना भोजन प्राप्त करते हुए वह बेल पूरे वृक्ष पर फैल जाती है। आम जामुन जैसे बड़े वृक्षो की पौध लगाई जाती है, किंतु पीपल और बरगद जैसे वृक्ष पक्षी की बीट से पैदा होते हैं। पक्षी पीपल और बट का फल खाता है और बिना पचा हुआ बीज बीट के रूप में जम जाता है। बिसखपरा के पत्ते और खत्तुआ की फली गाय भैंस खाती हैं तथा उनके गोबर के साथ वह बीज एक जगह से चलकर दूसरी जगह पहुंच जाते हैं ,बिखर जाते हैं ।सेमल और आक के रुई वाले बीज हवा में उड़कर कोसों दूर पहुंचकर अपना वंश विस्तार करते हैं ।बथुआ का बीज भी हवा पानी में चलता है और बिखरता है तथा अनुकूल मौसम आने पर पैदा हो जाता है। इस प्रकार बिना उगाये उगने वाली वनस्पति को किसान लोग रानीफसल कहते हैं।

यदि हम धरती और बीज के बिंबों को आधार बनाएं तो हम देखेंगे कि उनके आधार पर मनुष्य ने सुख और दुख जीवन के कारण- तत्व की व्याख्या की है जैसे कर्म और उसके परिणाम के संबंध में हम बीज और फल के संबंध को देख सकते हैं।जिस प्रकार फल का कारण बीज है , उसी प्रकार जीवन में प्राप्त होने वाले सुख-दुख, लाभ हानि ,जय पराजय आदि का कारण व्यक्ति का अपना कर्म होता है ।फल शब्द कर्म के परिणाम और जीवन के पुरुषार्थ के लिए रूढ़ हो चुका है , हम कहते हैं सफलता और निष्फलता ,तो सफलता और निष्फलता दोनों अवधारणाओं में फल जुड़ा हुआ है , यह धरती और बीज के संबंध से अभिन्न है । वनस्पतिक-स्रोत का शब्द है -फल ।जो जीवन में प्रत्येक कर्म से जुड़ा हुआ है ,कर्म -फल का सिद्धांत ।फल से अधिक उपयुक्त शब्द यहाँ कोई दूसरा नहीं है इसलिए लोकोक्तियां में निरंतर फल के बिंब को ही ग्रहण किया गया है जैसे – करनी करी तो क्यों करी कर के क्य़ों पछताय । बोया पेड़ बबूल का आम कहां ते खाय ।तुलसीदास ने कहा – तुलसी काया खेत है मनसा भयौ किसान ।पाप पुन्न दो बीज हैं , बुबै सो लुनै निदान ।धरती और बीज के बिंबो के आधार पर जीवन की जो व्याख्या की गई है उसकी कुछ पंक्तियां ,कुछ सूत्र प्रस्तुत हैं- जैसे सहज पके सो मीठा।इमली बूढी हो जाएगी फिर खटाई तोहू न छोडेगी ।नीम ना मीठे होंय सींच गुड़ घी ते ।नदी किनारे रूखड़ा जब तब होय विनाश ।लोकमानस का विश्वास और अधिक दृढ़ होता है कि प्रकृति का संविधान ईश्वर के अधीन है।

लोकमन ने देखा-
अमरबेल बिन मूल की
प्रतिपालत है ताहि।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि
खोजत फिरियै काहि।

पुष्प की दो अवस्थाएं हैं , पुष्प फूलता भी है और कुम्हलाता भी है।इसी प्रकार से जीवन में सुख और दुख उदय और अस्त होता है ।अब इसी प्रकार से जैसे वृक्ष में स्कंध है ,शाखा -प्रशाखा, पत्र -पुष्प और फल हैं ।लेकिन बीज में वे दिखाई नहीं देते हैं किंतु बीज में वे सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं । तो सूक्ष्म और विराट इन दोनों की अवस्थाओं की पहचान हुई ।मनुष्य ने बीज से वृक्ष को बनते हुए देखा । इतना विस्तार बीज में समाहित है , उसमें पुनः नया बनने की क्षमता है, दो स्थितियां हैं बीज और वृक्ष दो नहीं है बीज सोया हुआ वृक्ष है और वृक्ष जगा हुआ बीज है ।

इन बिंबो को शास्त्र ने लोक से ग्रहण किया है जैसे संसार- महीरुहस्य बीजा्य ।शास्त्रीय चिंतन ने विश्व की उत्पत्ति और विकास की जो भी व्याख्या की उसमें बीज और वृक्ष के बिम्ब को आधार बनाया। वेद में पीपल की डाल पर बैठे जीवात्मा और परमात्मा रूप दो पक्षी हों यों उपनिषदों का हिरण्यगर्भ हो अथवा पुराणों का वह सृष्टि -कमल हो, जिससे ब्रह्मा का जन्म हुआ। गीता में ऊपर जड़ तथा नीचे शाखा वाला अश्वत्थ वृक्ष हो , अथवा रामचरितमानस का संसार वृक्ष, बीज और वृक्ष के बिम्ब संपूर्ण भारतीय साहित्य दर्शन और कला में व्यापक रूप से विद्यमान हैं।श्रीमद्भगवद्गीता में ईश्वर को ‘अव्यय बीज’ कहा गया है।सामान्य बीज से अंकुर पैदा होता है, तब बीज का वह स्वरूप नहीं रहता परंतु परमात्मा अव्यय-बीज है और अंकुर पैदा करने के बाद भी वह उसी प्रकार अपने स्वरूप में बना रहता है जिस प्रकार शून्य में से शून्य घटा देने पर शून्य तद्वत शेष रहता है। परमात्मा पूर्ण है और पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होने के बाद भी पूर्ण, पूर्ण ही रहता है।

इसलिए गीता के शब्दों में परमतत्त्व अव्यय तथा सनातन बीज है-
प्रभव: प्रलय स्थानं निधानं बीजमव्ययम्। ९.८
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन। १०.३९
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्। ७.१०

छान्दोग्य उपनिषद में प्रसङ्ग है
जब आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को तत्त्व का उपदेश करने लगे,
तो बोले-‘इस सामनेवाले वटवृक्ष से एक बड़ का फल ले आ।’
जब श्वेतकेतु बड़ का फल ले आया, तब बोले-‘इस फोड़।’
जब श्वेतकेतु ने बड़ के फल को फोड़ दिया, तब बोले-‘इसमें क्या देखता है?’
श्वेतकेतु ने कहा, ‘भगवन्, इसमें ये अणु के समान दाने हैं।’
आरुणि के पुन: उन दानों में से एक दाने को फोड़ने को कहा और फिर पूछा कि
>इसमें क्या देखते हो?’
श्वेतकेतु ने कहा-‘कुछ नहीं।’ तब आरुणि ने समझाया कि-‘हे सौम्य,
इस वट-बीज की जिस अणिमा को तू नहीं देखता, उस अणिमा का ही यह
इतना बड़ा वटवृक्ष है।
यह जो अणिमा है, एतद्रूप ही यह सब है। वह सत्य है, वह आत्मा है और
श्वेतकेतु !वह तू है।

Leave a Comment