— अरुण कुमार त्रिपाठी —
किसान आंदोलन के संघर्ष और उसके पश्चात मिली विजय ने आजादी के अमृत महोत्सव को सार्थक कर दिया है। अगर किसान आंदोलन पराजित हो जाता तो सचमुच आजादी का अमृत महोत्सव ही निरर्थक नहीं होता, भारतीय लोकतंत्र को गहरा आघात लगता। भारत में 1974 से लेकर 2011 तक कई आंदोलन हुए और सभी ने केंद्रीय सत्ता पर परिवर्तनकारी असर डाला है। लेकिन उन सभी आंदोलनों में कहीं न कहीं संघ परिवार का हाथ रहा। यही वजह है कि बाद में उसमें सबसे ज्यादा फायदे में संघ परिवार ही रहा है। लेकिन पिछले पचास सालों में यह पहला बड़ा आंदोलन है जिसके पीछे संघ परिवार नहीं रहा है। संघ परिवार इतना ज्यादा उघाड़ हो चुका है कि वह रामनामी ओढ़कर इस आंदोलन में घुस नहीं पाया। इन अर्थों में इस आंदोलन ने भारतीय राजनीति में कारपोरेट और हिंदुत्व पर बढ़ती निर्भरता का एक विकल्प प्रस्तुत किया है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की वामपंथी राजनीति से निकलकर मध्यमार्ग पर गये एक राजनेता कहा करते थे कि भारतीय लोकतंत्र में विकल्प फेंकने की अद्भुत क्षमता है। किसान आंदोलन देश में उस समय प्रकट हुआ जब तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं पराजय और थकान महसूस कर रही थीं। विधायिका भाजपा के रोडरोलर बहुमत के आगे लाचार थी। कार्यपालिका संविधान की शपथ भूलकर अपने राजनीतिक आकाओं की गुलामी करने को आतुर थी और न्यायपालिका गिरते पड़ते कभी लोकतांत्रिक नैतिकता के विरुद्ध निर्णय दे रही थी तो कभी नैतिक प्रवचन से काम चला रही थी। मीडिया आपातकाल के बारे में आडवाणी की लेट जानेवाली टिप्पणी को साकार कर रहा था। ऐसे समय में इस देश के किसानों ने जान जहान, नेकनामी और बदनामी की परवाह किये बिना अपने को महासमर में झोंक दिया। जी हां यह महासमर था। जब कोरोना के कारण लोग विभाजन के दौर की तरह मीलों पैदल चलकर घर पहुंच रहे थे, लोगों को कीटनाशक से सेनेटाइज किया जा रहा था, ऐसे समय में किसानों ने रेल लाइन, सड़क और फिर दिल्ली की सीमाओं पर जिस तरह से केंद्र की शक्तिशाली सरकार का विरोध किया वह अपने में बेमिसाल था।
महामारी और महाबली मोदी के विरुद्ध जब लोकतांत्रिक संस्थाएं लाचार हो रही थीं तब खेती के बहाने लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने के लिए उतरना बड़े साहस का काम था। पिछले साल नवंबर के महीने में जब कई मित्र यह सूचना दे रहे थे कि किसान दिल्ली आ रहे हैं तो लगता था कि वे आएंगे और एक-दो दिन का धरना देकर चले जाएंगे। ज्यादा से ज्यादा वह धरना दस-पंद्रह दिन का होगा। क्योंकि जिन्हें भी भारतीय किसान यूनियन के नेता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का बोट क्लब का धरना याद है उन्हें पंद्रह दिन की अवधि बहुत बड़ी लगती थी। महाभारत भी 18 दिन ही चला था। जिस जुमले का इस्तेमाल प्रधानमंत्री मोदी ने कोरोना के विरुद्ध जंग के लिए किया था। लेकिन किसान न तो बड़बोले थे और न ही महेंद्र सिंह टिकैत की तरह सीमित तैयारी करके आए थे।
हालांकि कई किसान नेताओं का कहना था कि आरंभ में उन्होंने इस लड़ाई को तीन कानूनों तक ही सोचकर शुरू किया था। लोकतांत्रिक अधिकारों का सवाल उसमें बाद में जुड़ता गया। लेकिन यह अब तक के किसान आंदोलनों में सबसे परिपक्व और सर्वाधिक व्यापक फलक वाला आंदोलन था। सबसे बड़ी बात यह है कि किसी एक सर्वमान्य नेतृत्व के न होते हुए भी इस आंदोलन ने सामूहिक नेतृत्व के सहारे इतना लंबा संघर्ष किया। बांटने, तोड़ने और बदनाम करने की कौन सी कोशिश थी जो नहीं हुई। धन, दौलत, धमकी और बदनामी के सारे हथियार आजमाये गये। लेकिन वे सब बेकार हो गये। शायद किसानों की एकता और नैतिकता की शक्ति इतनी बड़ी थी कि उसके आगे सरकार को हारना ही था।
लेकिन किसानों ने अपनी एकता और नैतिकता से न सिर्फ तीन कानूनों को ध्वस्त किया बल्कि लंबे समय से चले आ रहे खेती के संकट को भी देश के सामने रख दिया है। जाहिर है खेती का संकट न तो इन तीन कानूनों से पैदा हुआ है और न ही इनके वापस लेने से खत्म होगा। इनके वापस लेने से इतना जरूर होगा कि संकट बढ़ने की रफ्तार कम होगी। एक लोकतांत्रिक माहौल में खेती के सवालों पर विचार किया जा सकेगा। विचित्र बात यह है कि खेती के उन सवालों को आधुनिक संस्थाओं ने नहीं उठाया बल्कि उन्हें मध्ययुगीन और उससे भी पहले से चली आ रही जाति और धर्म की संस्थाओं ने उठाया है। इस किसान आंदोलन को खाप पंचायतों ने और सिख जत्थेबंदियों ने संभाला था। हालांकि उनके भरोसे खड़े हुए किसान संगठनों की प्रत्यक्ष रूप से बड़ी भूमिका रही। यह वही संस्थाएं हैं जिनके सहारे महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। जरूरत इन संस्थाओं के योगदान से लोकतंत्र की रक्षा करने की है और इस दौरान उनके भीतर भी अधिकतम लोकतंत्र कायम करने की है।
लोकतंत्र के पावर हाउस में जिस तेजी से ईंधन खत्म हो रहा था उस समय में किसान आंदोलन ने उसे अक्षय ऊर्जा के स्रोत की ओर राह दिखाई है। सवाल यह है कि क्या भारतीय लोकतंत्र या उसकी संस्थाएं अक्षय ऊर्जा के उस स्रोत का उपयोग करेंगी या फिर इस आंदोलन को एक समाप्त अध्याय मानकर आगे बढ़ जाएंगी। अगर ऐसा हुआ तो यह एक बड़े आंदोलन से निकली हजारों मेगावाट की बिजली से सामान्य बल्ब जलाना या पंखा चलाने जैसा काम होगा। इसलिए भारत की लोकतांत्रिक और राजनीतिक संस्थाओं और सामाजिक संस्थाओं का यह फर्ज बनता है कि वे किसान और मजदूर एकता के लिए अधिकतम काम करें। वे इसे हिंदू राष्ट्रवाद का सच्चा विकल्प बनाएं। इसके लिए नए प्रतीक गढ़ें और इस आंदोलन की ऊर्जा पर आधारित नए आख्यान रचें।
किसान आंदोलन ने इतनी ऊर्जा प्रदान की है कि उससे निकलने वाले मुद्दों के सहारे मौजूदा निजाम को 2024 तक घेरा जा सकता है और पराजित भी किया जा सकता है। लेकिन मामला उतना ही नहीं है। अगर मौजूदा निजाम हार भी गया और भारतीय समाज वैसा ही बहुसंख्यकवादी और कारपोरेट परस्त बनता गया तो वैसा होने का कोई लाभ नहीं होगा। आज आवश्कता इस बात की है कि किसान आंदोलन के सूत्रों को पकड़कर लोकतांत्रिक संस्कृति का समाज बनाया जाए। जो कृषक क्रांति करे, कृषक राष्ट्रीयता लाए और एक समाजवादी समाज बनाए।