
डॉ. (बीरेन्द्र कुमार) भट्टाचार्य ने कहानी, उपन्यास, यात्रावृत्त, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में पचास से अधिक पुस्तकें लिखीं। उनका अधिकांश लेखन असमिया में हुआ। हिंदी में उनका बहुत थोड़ा साहित्य उपलब्ध है। लेकिन उससे यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि वह किस कोटि के लेखक थे। उन्होंने अछूते विषयों को उठाया और पूरे रागात्मक बोध के साथ उनमें प्रवेश कर उन्हें सजीव बनाया। उनकी रचनाओं में असम के ग्राम्यांचलों का जनजीवन मूर्त हो उठता है। नगालैंड की पहाड़ियाँ और जंगल-नदियाँ, धान के खेत और उन खेतों में काम करते स्त्री-पुरुष अपनी खुशियों और व्यथाओं के साथ पाठक की स्मृतियों में बस जाते हैं। किसी लेखक की कसौटी होती है टाइम और स्पेस (देश-काल) को बाँधने की क्षमता। प्रवहमान क्षणों को पकड़ना और उन्हें कील देना ही कला है। इस काम के लिए कलाकार को जिस स्पेस या कैनवस की जरूरत होती है उसके रेशे-रेशे से परिचित होना उसके लिए जरूरी होता है।
उससे भी महत्त्वपूर्ण काम होता है जनजीवन के भीतर प्रवेश करना, स्त्रियों, पुरुषों, बच्चों, बूढ़ों के मन में झाँक कर देखना कि उनके मन में क्या द्वंद्व चल रहे हैं। उनकी आकांक्षाएँ, उनके सपने और सपनों में बाधा बननेवाले उनके पूर्वाग्रह, अंधविश्वास, भय और आशंकाएँ जिनपर काबू पाने के लिए उनके भीतर काल का महासमर चल रहा होता है। प्रजा का राज उपन्यास में नगालैंड के जीवन की हमें ऐसी ही समग्र झाँकी मिलती है। नगालैंड के विद्रोही और आशंकाओं से घिरे जीवन में मानवता की सुंदरतम भावनाओं के स्रोत भी बहते हैं ऐसे कि उनके स्पर्श मात्र से जीवन के सारे कलुष धुल जाते हैं, यह बोध शारेंला, खुंटिला, गांठिंगखू की पत्नी, इयेंमांशु की पत्नी आदि कुछ स्त्री-पात्रों के माध्यम से होता है। वास्तव में भट्टाचार्य जी के उपन्यासों का एक विशेष पहलू उनके स्त्री-पात्रों की योजना है। उनके स्त्री-पात्र डॉ. राममनोहर लोहिया के ‘नर-नारी समता’ के विचार से अनुप्राणित हैं। वे सिर्फ घर में बैठकर रोने-धोने वाली, भाग्य पर बिसूरनेवाली, पुरुष की छाया बनकर रहनेवाली या उनकी सेक्स-भूख का उपकरणमात्र नहीं हैं।
ये कर्मठ महिलाएँ हैं जो संघर्ष का नेतृत्व करती हैं, पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कर्म-क्षेत्र में उतरती हैं। इस मायने में वे मार्क्सवादी उपन्यासों के स्त्री-पात्रों से भिन्न हैं जहाँ स्त्रियों की उपयोगिता कामरेड नायक की प्रेमिका या अधिक से अधिक पीए की ही होती है। कोली बैड्यू जैसी बूढ़ी औरत और डिमी जैसी कमसिन लड़की मृत्युंजय में संघर्ष को दिशा देती हैं। शारेंला, डिमी आदि स्त्रियाँ सिर्फ सेक्स की पुतलियाँ नहीं हैं, वे कर्म-वीर और उदात्त मानवीय गुणों की स्रोतस्विनियाँ भी हैं। वे अपने पसंद के पुरुष से प्यार करती हैं, उस प्यार के लिए तड़पती भी हैं लेकिन अगर वह नहीं मिलता है तो उसी को लेकर जीवन बर्बाद नहीं करती हैं। प्यार में घुल-घुल कर मरना या आत्महत्या करना या गुलाम बनकर जीना, इन स्त्री–पात्रों की खसलत नहीं है।
एक और बात जो उन्हें अलग पंक्ति और अलग श्रेणी का लेखक बनाती है, यह है कि वे अपने आसपास घटनेवाली घटनाओं, बनती-बिगड़ती स्थितियों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील थे। वे उन लेखकों में नहीं थे जो घर में लगी आग का तमाशा देखते हुए अपनी बीन पर दिव्य-संगीत बजाने को कवि-कर्म मानते हैं या आसपास की गंदगी से अपने को बचाते हुए (व्यवस्था को कोसकर) पिटे-पिटाये मुहावरों में क्रांति का आह्वान कर संतुष्ट हो जाते हैं या धर्म की अफीम पाठकों को चटाकर समाज की सारी गंदगी को पचा जाने का प्रबोधन पाठकों को करते हैं। वे व्यवस्था के टकराव से बचते हुए दोनों हाथों से माल उड़ाने वाले ‘विशुद्ध’ लेखक भी नहीं थे।
आपातकाल के दिनों में हमारे बड़े-बड़े साहित्यकार गूँगे हो गये थे। कुछ ने तो आपातकाल की प्रशंसा में भी लिखा। कुछ व्यवस्था के टकराव से बचते हुए कला और प्रयोग की आड़ में छिप गये। आपातकाल खत्म होने के बाद कइयों ने अपनी आपातकाल विरोधी रचनाएँ तकिये के नीचे से निकालीं और प्रदर्शित कीं। 1980 में इंदिरा गांधी के दोबारा सत्ता में आने के बाद कुछ लेखकों ने अपनी उन रचनाओं को वापस ले लिया और फिर तकिये के नीचे छिपा लिया। बीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य की मानसिक गढ़न इन सबसे अलग थी। वे जिस तत्परता के साथ ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन, आजाद हिंद फौज के साहसिक प्रयास, नगालैंड के विद्रोह और उत्तर-पूर्वी राज्यों की व्याकुलता पर कलम उठा सकते थे उसी तत्परता के साथ आपातकाल जैसे राष्ट्रीय संकट, राजनीति के चतुर्दिक ह्रास, सांप्रदायिकता की समस्या आदि विषयों पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते थे। उन्होंने आपातकाल की विभीषिका पर एक सुंदर पुस्तक लिखी है। वर्तमान राजनैतिक कीचड़ से बाहर निकलने के प्रयास में उन्होंने गांधी और लोहिया के विचारों के आधार पर नयी व्यवस्था का स्वप्न भी बुना है। यह पुस्तक अपने अंतिम दिनों में लिखकर उन्होंने पूरी की जो अब छपने वाली है।
देश का सर्वोच्च सम्मान प्राप्त बड़ा लेखक होने के साथ-साथ बीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य बहुत सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। अहंकार तो उन्हें छू भी नहीं सका था। साहित्य अकादेमी जैसी सर्वोच्च साहित्यिक संस्था का अध्यक्ष होते हुए भी वे युवा लेखकों की बैठकों में शामिल होने में अत्यंत प्रसन्नता अनुभव करते थे। जब वे साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष थे तो इन पंक्तियों के लेखक ने उनके सामने, साधारण बातचीत के दौरान, प्रस्ताव रखा कि साहित्य अकादेमी द्वारा बाल-साहित्य को मान्यता दी जानी चाहिए और हर साल कम से कम एक पुरस्कार, भारतीय भाषाओं के बाल-साहित्य लेखक को दिया जाना चाहिए लेकिन इसकी राशि दूसरे पुरस्कारों के समान हो। बाल साहित्य को साहित्य अकादेमी साहित्य ही न माने यह बहुत गलत बात है। उन्होंने मुझे लिखित प्रस्ताव देने को कहा और उसे संस्कृति मंत्रालय में भेजने का वायदा किया। उस प्रस्ताव पर तो कुछ नहीं हुआ किंतु साहित्य अकादेमी ने बाल साहित्य की अंतरभारतीय पुस्तकमाला प्रकाशित करना मान लिया।
दिल्ली आने पर वे अकसर असम भवन में ठहरते थे। एक बार उन्हें इसलिए असम भवन में कमरा नहीं दिया गया क्योंकि वहाँ राज्यपाल महोदय आनेवाले थे। वे परेशान थे कि कहाँ जाएँ। तभी डॉ. हरिदेव शर्मा को पता चला और वे उन्हें अपने घर ले आए। डॉ. शर्मा का परिवार शाकाहारी था और भट्टाचार्य को भोजन में मछली आदि प्रिय थी। डॉ. शर्मा का संकोच देखकर बोले, ‘कुरुक्षेत्र में रहकर मैं भी शाकाहारी हो गया हूँ।’
बड़े लेखक के साथ-साथ वे बड़े इंसान भी थे। उनका अचानक उठकर चले जाना राष्ट्र की क्षति है।
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