ये सुरक्षा के नहीं, क्रूरता के कानून हैं – प्रशांत भूषण

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(दूसरी किस्त)

विभिन्न राज्यों में पुलिस द्वारा की गयी आतंकवादी गतिविधियों की जाँच पर केंद्रित एक जन सुनवाई अगस्त 2008 में हैदराबाद में हुई थी। इस जन सुनवाई में दो पूर्व मुख्य न्यायाधीश तथा कई अन्य जाने-माने विद्वान, वकील और समाजविज्ञानी जूरी के रूप में शामिल थे। इन सब ने एक स्वर में माना कि बड़ी तादाद में मुसलमान नौजवानों को पुलिस ने देश में जगह-जगह आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोप मढ़कर परेशान किया। यह बात विशेष रूप से महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश और राजस्थान के बारे में सही है हालाँकि ऐसी घटनाएँ कई और सूबों में भी दर्ज की गयीं।

जाँच के बहाने मुसलमान नौजवानों को जिस तरह से परेशान किया गया और उन्हें हैवान बताया गया उसका गहरा मनोवैज्ञानिक असर न सिर्फ उनके परिवार के लोगों पर बल्कि पूरे मुस्लिम समुदाय पर हुआ। इससे उनके मन में असुरक्षा और परायेपन की भावना बड़ी गहराई तक पैवस्त हो चुकी है और शायद इसके परिणाम देश के लिए भयावह हों।

गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून में किये गये संशोधन से यह कानून और भी क्रूर हो चुका है, पुलिस को महज शक की बिनाह पर तलाशी लेने, गिरफ्तार करने और जेल में डालने के पहले से कहीं ज्यादा अधिकार हासिल हो गये हैं। इस कानून में एक नया खंड 43-ए जोड़ा गया है। इस प्रावधान के सहारे कोई पुलिस अधिकारी किसी भी परिसर की तलाशी ले सकता है और किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है बशर्ते उसे अंदेशा हो कि वह व्यक्ति कानून में बताये गये अपराध करने की मंशा रखता है।

प्रावधान में यह भी कहा गया है कि इस कानून में गिनाये गये अपराध की जाँच कर रहा पुलिस अधिकारी (एसपी की अनुमति मिलने पर) किसी व्यक्ति या संगठन को अपनी जाँच के लिए जरूरी सूचनाएँ प्रदान करने के लिए बाध्य कर सकता है। अगर संगठन या व्यक्ति सूचना देने में नाकाम रहता है तो नये प्रावधान के मुताबिक उसे तीन साल तक की सजा भुगतनी पड़ सकती है। ऐसे प्रावधान का कोई पुलिस अधिकारी बड़ी आसानी से दुरुपयोग कर सकता है। अगर किसी कार्यकर्ता, डॉक्टर, पत्रकार अथवा वकील ने आतंक के आरोपी किसी व्यक्ति को वैधानिक या चिकित्सीय मदद दी हो तो पुलिस अधिकारी इस प्रावधान के सहारे उसे बड़ी आसानी से परेशान कर सकता है। पुलिस हिरासत में रखने की अधिकतम अवधि 15 से बढ़कर 30 दिन कर दी गयी है। हिरासत में रखने की माँग पुलिस जाँच करने के तर्क से करती है और सभी जानते हैं कि इसी बहाने हिरासत में यातनाएँ दी जाती हैं।

हिरासत में मौत की घटनाओं के मामले में भारत दुनिया में अव्वल है और भारत का नाम उन चंद देशों में शामिल है जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रताड़ना संबंधी संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। संविधान में कहा गया है कि किसी को भी अपने खिलाफ साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद नये प्रावधानों के सहारे महीनों तक हिरासत में जाँच की अनुमति ली जा सकती है।

आजमगढ़ के मौलाना अबू बशीर के साथ ऐसा ही हो रहा है। अबू बशीर को अहमदाबाद, जयपुर और दिल्ली में हुए धमाकों का मास्टरमाइंड करार दिया गया और उसे लगातार छह महीनों से भी ज्यादा समय तक हिरासत में रखा गया। अबू बशीर के नाम पर अहमदाबाद, दिल्ली और जयपुर में 25 से ज्यादा एफआईआर दर्ज हैं और हर 15 दिन बाद उसे एक न एक आरोप में पकड़कर जेल में डाल दिया जाता है।

आपराधिक प्रक्रिया की संहिता में कहा गया है कि अगर किसी गिरफ्तार व्यक्ति के खिलाफ 90 दिन के अंदर आरोपपत्र दायर नहीं किये जाते तो उसे जमानत लेने का अधिकार है। इसी कारण पुलिस के पास कोई सबूत न हो तब भी किसी गिरफ्तार व्यक्ति के लिए आरोपपत्र दाखिल हो पाने से पहले जमालत ले पाना लगभग नामुमकिन हो जाता है। कानून में नया संशोधन करके आरोपपत्र दाखिल करने की अधिकतम अवधि भी बढ़ाकर 180 दिन कर दी गयी है। कानून में किये गये संशोधनों में एक प्रावधान ऐसा है कि मुकदमे की सुनवाई की अवधि में जमानत का मिल पाना लगभग नामुमकिन हो चला है।

संशोधित कानून के प्रावधान में कहा गया है कि अगर अदालत को केस डायरी अथवा धारा 173 (आरोपपत्र) के तहत दर्ज रिपोर्ट के आधार पर लगे कि आरोपी को प्रथम दृष्टया दोषी माना जा सकता है तो फिर उक्त आरोपी को जमानत नहीं दी जाएगी। ऐसे प्रावधानों के बूते गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून (यूएपीए) पोटा कानून से कहीं ज्यादा क्रूर बन गया है। इस कानून में पोटा की बस एक ही बात छोड़ी गयी है और वह ये कि पुलिस ने आरोपी से कोई गुनाह कबूल करवाया हो तो उसे साक्ष्य नहीं माना जाएगा।

आतंकवाद पर लगाम लगाने की बात तो दूर रही, हम देख रहे हैं कि भ्रष्ट और सांप्रदायिक पुलिस क्रूर बनते जा रहे कानूनों के दुरुपयोग से देश में ऐसी स्थिति पैदा कर रही है कि आतंक की समस्या घटने की बजाय बढ़ती जा रही है। देश में बने सामान्य कानून भी आतंकवादी अपराधों से निपटने के लिए पर्याप्त हैं। दरअसल समस्या खुद इन कानूनों को अमल में लानेवाली एजेंसी यानी पुलिस में है।

उच्चतम न्यायालय ने साल 2006 के सितंबर में कई निर्देश जारी किये कि पुलिस महकमे में सुधार लागू किए जाएँ। इन सुधारों की संस्तुति सरकार की कई विशेषज्ञ समितियों ने सालों पहले की, लेकिन सुधार लागू नहीं किये गये। इन सुधारों में राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर स्वायत सुरक्षा आयोग बनाना, पुलिस इस्टाब्लिसमेंट बोर्ड गठित करना, पुलिस से शिकायत की बाबत प्राधिकरण बनाना आदि शामिल है। इन संस्तुतियों का जोर पुलिस महकमे और जांच एजेंसियों को कानून के प्रति जवाबदेह बनाने तथा पूरे महकमे अथवा एजेंसियों को चंद आला अधिकारियों के शिकंजे से मुक्त करने पर है। ना तो केंद्र सरकार ने इन संस्तुतियों पर कान दिया, और ना राज्य सरकारों के कान पर ही उच्चतम न्यायालय के निर्देशों को लेकर जूँ रेंगी। राजनीतिक दल भी पुलिस महकमे से अपना राजनीतिक नियंत्रण खत्म करने के लिए तैयार नहीं हैं।

पुलिस महकमे और जाँच एजेंसियों के भीतर सुधार किये जाएँ तो इससे निश्चय ही सुरक्षा के बेहतर हालात पैदा होंगे और आतंक की घटनाओं में कमी आएगी। लेकिन समस्या इतने भर से खत्म नहीं होनेवाली। इजराइल के पास सबसे कारगर खुफिया एजेंसी, सुरक्षा व्यवस्था और पुलिस महकमा है इसके बावजूद इजराइल आतंकवाद की घटनाओं पर पूरी तरह से लगाम नहीं लगा सका है हालाँकि आकार में वह बहुत छोटा देश है। इजराइल में लगभग हर महीने फिदायीन हमले होते हैं। चाहे खुफिया तंत्र या सुरक्षा व्यवस्था कितनी भी मजबूत हो, वह खुद अपनी जान देने पर उतारू आतंकवादियों पर लगाम नहीं कस सकती। आतंकवादियों को तभी रोका जा सकता है जब आतंकी बनने के लिए उकसाने वाली स्थितियों को खत्म किया जाए। इसके लिए वही कुछ जरूरी होगा जिसकी सलाह नोम चॉमस्की ने नाईन-इलेवन की घटना के बाद दी थी।

चॉमस्की ने कहा था- इस घटना (9/11) से निपटने के मामले में हमारे पास विकल्प हैं। हम अपने खौफ को जाहिर कर सकते हैं, हम ये सोचना शुरू कर सकते है कि किन हालात में ये अपराध हुए और इसका मतलब होगा संभावित हमलावरों के मन में झाँकना। हम चाहें तो ऐसा कर सकते हैं और चाहें तो ऐसा करने से इनकार कर सकते हैं। इनकार करने का मतलब होगा और भी ज्यादा भयानक घटना को न्योता देना। तो इसका मतलब यह है कि आतंकवादी बनने के हालात पर गौर करना और उस अन्याय से जूझना जो हमारे समाज में कहीं गहरे पैबस्त है, साथ ही इंसाफ के मरकजों खासकर पुलिस महकमे और अदालत को चुस्त-दुरुस्त बनाना आतंकवाद से निपटने का कहीं ज्यादा कारगर तरीका है। न कि क्रूर कानून बनाकर उन्हें एक भ्रष्ट और निष्ठुर पुलिस महकमे के हवाले कर देना।

अनुवाद : चंदन श्रीवास्तव

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