— डॉ सुनीलम —
मामाजी बालेश्वर दयाल जी का 26 दिसंबर को 23वां स्मृति दिवस है। 25 दिसंबर की रात मामा जी के 25 हजार से ज्यादा अनुयायी राजस्थान से तीन दिन से पदयात्रा करते हुए बामनिया भील आश्रम पहुंचेंगे, जहां मामा जी की समाधि है।
पिछले वर्ष भी कोरोना काल मे यह संख्या कम नहीं हुई। मामाजी के प्रति भीलों की श्रद्धा को इस तथ्य से समझा जा सकता है, कि किसी भी फसल का उपयोग आदिवासी मामाजी को चढ़ाने के बाद ही करते हैं। उनके 150 से अधिक मंदिर आदिवासियों ने स्वयं अपने गांवों में बनाये हैं। ऐसे मामा बालेश्वर दयाल जी के विचार आपके साथ साझा करने के लिए यह लेख लिखा गया है ।
इटावा के निवाड़ी कला गांव में पैदा हुए मामा जी दो भाई थे, दो बहनें थीं।
मामा जी ने पहली बार इटावा में गांधीजी को देखा था तब वे रेलगाड़ी से निकल रहे थे। युवाओं ने ट्रेन रोक कर गांधीजी को 65 रुपये की थैली भेंट की तथा उनकी हैंडमाइक से उनकी सभा करायी। गांधीजी के द्वारा जो अपील की जाती थी उसे अखबारों में पढ़कर मामाजी उसे लागू करते थे।
मामा जी बतलाते थे कि उनके जीवन पर जेम्स टॉड की किताब अनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान का सर्वाधिक असर हुआ था ।
मामा जी को इटावा में कॉलेज के अंग्रेज प्रिंसिपल ने निष्कासित कर दिया तो वे ग्वालियर स्टेट के उज्जैन के खाचरोद आए। गांधीजी ने गुरुवायूर मंदिर में दलितों का प्रवेश कराया था, उसका असर मामाजी पर पड़ा।
यह वह दौर था जब दलितों को अन्नदाता आवाज लगाकर चलना पड़ता था ताकि सवर्ण रास्ते से हट जाएं। यदि एक ही रास्ते पर आमने सामने आ जाएं तब सजा भुगतना पड़ती थी।
मामा जी ने गांधीजी के उपवास के समर्थन में सड़क पर सत्यनारायण कथा करायी जिसमें दलित भी शामिल हुए। जब लोगों को मालूम हुआ कि दलितों के साथ बैठकर कथा हुई है तब खाचरोद की कोर्ट में मामाजी के खिलाफ केस दर्ज हुआ। मामा जी के साथ जितने युवा थे उन्हें अपनी अपनी जाति से निकाल दिया गया। जातियों की पंचायत ने फैसला किया कि अब उनकी शादी कभी नहीं होगी। ऐसे 67 युवाओं को निकाला गया। उन्हें लेकर मामा जी ने आंदोलन शुरू किया। मामा जी को खाचरोद में मास्टर की नौकरी से निकाल दिया गया। इस बीच उन्हें खबर मिली कि रतलाम के पास झाबुआ रियासत में एक नौकरी खाली हुई है क्योंकि एक मास्टर जो खादी पहनते थे उन्हें निकाल दिया गया है। खाचरोद की नौकरी में 40 रुपये मिलते थे, थांदला में 60 रुपये मिलने लगे। थांदला में वे अपनी पत्नी के साथ रहने लगे। इस बीच वहां अकाल पड़ा। मामा जी ने अपील निकाली जिसमें उन्होंने आदिवासियों को अन्नदाता कहा। जिस पर उन पर मुकदमा दर्ज हुआ अर्थात भीलों को अन्नदाता कहने पर मुकदमा दर्ज किया गया। ग्वालियर स्टेट में किसान को अन्नदाता कहना भी आपत्तिजनक माना जाता था। वहां मामा जी ने शराब छुड़ाने का काम शुरू किया।
1932 से 1937 के बीच बेगार कराए जाने का विरोध करने के कारण तीन बार जेल जाना पड़ा। झाबुआ रियासत सहित आसपास की 7 रियासतों में राजाओं द्वारा सभी काम बेगारी से कराए जाते थे मतलब मजदूरी नहीं दी जाती थी। जो लोग ईसाई हो जाते थे, उन्हें बेगारी नहीं करनी होती थी। इस कारण बड़ी संख्या में आदिवासी ईसाई बन गए और अंग्रेजी राज के समर्थक हो गए। बेगारी करना कानून था। मध्य प्रदेश, राजस्थान की तमाम रियासतों में बेगारी का कानून एक जैसा था। यानी बेगारी करने से मना किया जाना गैरकानूनी था।
मामा जी ने पहले आदिवासी बच्चों को पढ़ाया तथा झाबुआ के राजा के खिलाफ 1937 में आंदोलन चलाया, तब उन्हें रियासत से निकाल दिया गया। उन्होंने झाबुआ की सरहद पर इंदौर स्टेट के बामनिया ग्राम में आश्रम खोला, वहां बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू किया। कोशिश यह भी की कि बच्चों को पढ़ाकर कार्यकर्ता बनाया जाए। उन्होंने डूंगर विद्यापीठ की स्थापना की, जिसके माध्यम से उन्होंने 13 पाठशाला और दो आश्रम मतलब बोर्डिंग चलाएं। डूंगर विद्यापीठ को हिंदू यूनिवर्सिटी प्रयाग ने परीक्षा का केंद्र बनाया।
बामनिया में एक गोलीकांड हुआ जिसके खिलाफ 1945 में दाहोद में आचार्य नरेंद्रदेव की अध्यक्षता में मामा जी ने बैठक बुलाई । कपास और मूंगफली के कम दाम को लेकर वहां आंदोलन चला था। इस आंदोलन को कुचलने के लिए बामनिया के आसपास की 6 रियासतों की पुलिस ने मिलकर बामनिया में गोली चलाई। तब आचार्य जी के साथ देसी राज्य लोक परिषद के अध्यक्ष कन्हैयालाल वैद्य जी भी बामनिया आए। सम्मेलन के बाद गोलीचालन में मारे गए आदिवासियों के परिजनों को मुआवजा भी दिया गया।
1946 में रतलाम में गोली चली तब मामा जी ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर कहा कि गोलीकांड की जांच होनी चाहिए। तब जवाहरलाल जी ने फोन पर इलाहाबाद से रतलाम स्टेट के दीवान को हटाने का तथा गोलीकांड की जांच कराने का बयान जारी किया। यह आंदोलन सबको अनाज देने को लेकर चलाया गया था। जांच में यह साबित हो गया कि जो लोग मारे गए थे वे जुलूस में शामिल नहीं थे।
1942 में इंदौर स्टेट से मामा जी को निर्वासित कर दिया गया। आरोप मालगाड़ी को पटरी से नाले में गिराए जाने का था। जब पूरी बात मामा जी ने नेहरू जी को बताई, तब उन्हें श्रीनगर बुलाया, शेख अब्दुल्लाह ने हाउस बोट में ठहराया। इस बीच 15 अगस्त को देश आजाद हुआ तथा 17 अगस्त को मामा जी का निर्वासन खत्म हुआ और वे वापस बामनिया आ गए।
मामा जी ने 1948 में जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा कि जितने जागीरदार थे वे कांग्रेस के सदस्य बन गए हैं और वे सब आदिवासियों को लूट रहे हैं। उन्होंने साहूकारों के शोषण का मुद्दा भी उठाया तथा जागीरदारी खत्म करने के लिए भी लिखा। 1949 में फिर से चिट्ठी लिखकर जवाहरलाल जी को मुद्दों का ध्यान दिलाया।
मामा जी ने जब जागीरदारी खत्म कराने का आंदोलन शुरू किया था तभी उन्होंने 1948 में कांग्रेस छोड़ दी। मामा जी के आंदोलन को समर्थन देने जयप्रकाश नारायण जी बामनिया आए थे। 1950 में इंदौर में सोशलिस्ट पार्टी का सम्मेलन हुआ जिसमें जयप्रकाश जी आए थे वहां मामा जी सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बने।
जागीरें समाप्त होने पर सरकार द्वारा कोई निर्णय नहीं लेने पर मामा जी ने 1956 में ‘नो टैक्स कैंपेन’ चलाया जिसके चलते लोगों ने लगान देना बंद कर दिया। आंदोलनकारियों की मुख्य मांग थी कि जागीरदारी प्रथा समाप्त की जाए। इस पर मामा जी को गिरफ्तार कर 8 माह जेल में रखा गया। आंदोलन लगातार बढ़ता गया। राजगोपालाचारी जी जो भारत के प्रथम गवर्नर जनरल थे, उन्होंने ऑर्डिनेंस निकालकर राजस्थान और मध्य भारत में जहां जहां आंदोलन चल रहा था वहां जागीरदारी समाप्त कर दी तथा मामाजी को छोड़ दिया गया। इस तरह मामा जी ने जगीदारी प्रथा समाप्त कराने में ऐतिहासिक योगदान दिया।
1952 के चुनाव में मध्य भारत की एसेंबली के लिए मामा जी ने चार उम्मीदवार खड़े किये जिसमें एक महिला थी। यह जानकारी मिलने पर समाजवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी डॉ राममनोहर लोहिया बहुत प्रभावित हुए। इस तरह 1952 में लोहिया जी से साथ घनिष्ठ संबंध बना। उधर चुनाव मैदान में कांग्रेस ने प्रचार किया कि मामा जी ने औरत को चुनाव में खड़ा करके पुरुषों की मूंछें काट ली हैं।
राजस्थान के बांसवाड़ा के महाराज कांग्रेस के उम्मीदवार बने तो मामा जी ने यशोदा बहन को खड़ा किया। पंडित नेहरू हवाई जहाज से प्रचार के लिए आए लेकिन यशोदा बहन चुनाव जीत गयीं।
मामा जी से मिलने तीन बार जयप्रकाश नारायण तथा चार बार डॉ लोहिया बामनिया आए। बामनिया में मामा जी ने अखिल भारतीय वनवासी सम्मेलन किया जिसकी अध्यक्षता डॉ राममनोहर लोहिया ने की। मामा जी यही बताते थे कि रात में लोहिया जी ने आदिवासी पुरुष और महिलाओं का नाच देखा तथा खुद भी सबके साथ नाचे थे।
डॉ लोहिया के आमंत्रण पर मामाजी संथालियों के इलाके में बिहार गए। 1955 में जब केरल में गोलीकांड हुआ उसको लेकर मामा जी ने जयप्रकाश जी को चिट्ठी लिखी थी। उन्होंने लिखा कि 1950 में ग्वालियर में विद्यार्थियों पर जब गोली चली थी जिसमें दो विद्यार्थी मारे गए थे तब सभी पार्टियों ने एक सम्मेलन में मामा जी को जांच समिति का कन्वीनर बनाया था। तब सोशलिस्ट पार्टी ने निर्देशित किया था कि जब तक सरकार भंग ना हो जाए तब तक जांच में भागीदारी ना करें। मामा जी ने कहा कि यह सूत्र केरल में भी अपनाया जाना चाहिए। उन्होंने सूत्र दिया ‘मिनिस्ट्री रेजिगनेशन फर्स्ट इंक्वायरी लास्ट’। मामाजी के बयान को लेकर दो दिन तक विशेष सम्मेलन में चर्चा चली। बहुमत से मामा जी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया गया, जिस कारण उन्होंने राष्ट्रीय समिति से इस्तीफा दे दिया। उसके बाद मधु लिमये जी को भी निकाल दिया गया तथा पार्टी टूट गयी।
मामाजी सक्रिय समाजवादी रहे। सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। उन्हें राज्य सदस्य भी बनाया गया। परंतु उन्होंने बामनिया और भीलाचंल को कभी नहीं छोड़ा। मामा जी ने अपने क्षेत्र को कर्जे और शराब से मुक्त कराया। सामाजिक सुधार के प्रयास आजीवन करते रहे।
मामाजी जीवन के अंत तक समाजवादी आचार विचार के अनुरूप जीवन जीते रहे। मामाजी का जीवन आनेवाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा।