— न्यायमूर्ति चंद्रशेखर धर्माधिकारी —
डॉ.जे.सी. कुमारप्पा का नाम गांधी-अर्थशास्त्र के जानकार अध्येता और ग्राम-उद्योग के प्रणेता के नाते लिया जाता है। जोसेफ कारनेलियस कुमारप्पा का जन्म तंजावुर में 4 जनवरी 1892 को हुआ। सन 1913 में वे विलायत गये और वहां से स्नातक होकर सन 1919 में भारत लौटे। चार्टर्ड एकाउंटेंट के नाते उन्होंने ’कारनोलियस एंड डावर’ नामक एक फर्म स्थापित की। सन 1926 में वे अमेरिका गये और सन 1927 में ’सार्वजनिक वित्त व्यवस्था और हमारी दरिद्रता’ विषय पर प्रसिद्ध निबंध लिखा। इससे अंग्रेजों के आर्थिक अन्याय और शोषण की जानकारी विश्व को हुई। उन्होंने ’पब्लिक फायनेंस एंड इंडियन प्रॉपटी’ नामक पुस्तक लिखी। अंततः सी.ए. का कार्य छोड़कर वे गुजरात विद्यापीठ में प्राध्यापक बन गये। उन्होंने न विवाह किया और न गृहस्थी बसायी। जब भी कोई इस संदर्भ में उनसे पूछता, वे जवाब देते, ‘पहले यह सोचा था कि जब चार अंकों वाली तनख्वाह मिलेगी तब शादी करेंगे। फिर जब उतनी मिलने लगी तो गांधीजी के जाल में फँस गया। उस जाल में इतना उलझता गया कि शादी की बात याद ही नहीं रहीं!’ वे एक ऐसे अर्थशास्त्री थे जिनके पास एक पाई की भी संपत्ति नहीं थी।
गांधीजी के सान्निध्य में आने पर कुमारप्पा की पोशाक, रहन-सहन सब कुछ बदल गया। उन्होंने महादेव भाई देसाई की अनुपस्थिति में ’यंग इंडिया’में लेख लिखे। आजादी के आंदोलन में जेल भी गये। कारागृह से बाहर आने पर वे बिहार के भूकंपग्रस्त इलाकों में मदद करने पहुंचे। उन्होंने वहां के सारे हिसाब-किताब इतने करीने से रखे कि बिहार की गर्दन ऊँची हो गयी। वर्धा लौटकर मगनवाड़ी (सेवाग्राम) में रहने लगे। भारतीय अर्थशास्त्र में खादी और ग्रामोद्योग को प्रतिष्ठा दिलाने में उनका बहुत बड़ा हाथ था। उन्होंने ग्रामसेवक विद्यालय, ग्रामोद्योग प्रयोगशाला आदि संस्थाओं की स्थापना की। ’ग्राम आंदोलन क्यों?’ और ’स्थायी अर्थव्यवस्था’ नामक दो मौलिक ग्रंथ भी लिखे। इन ग्रंथों की भूमिका में गांधीजी ने उनकी काफी प्रशंसा की है। ‘रोटी के बदले पत्थर’ नामक किताब के लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। पहली दोनों किताबों के लिए गांधीजी ने उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ डिविहनिटी’ और ‘डॉक्टर ऑफ विलेज इंडस्ट्रीज’ उपाधियाँ प्रदान की थीं! वे सही मायने में ईसाई थे। धर्म के मूल तत्त्वों पर उनकी अटल निष्ठा थी।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद जब योजना-आयोग की स्थापना हुई तब कुमारप्पा को सलाहकार के नाते निमंत्रित किया गया। लेकिन उनकी ’कृषि ग्रामोद्योग समन्वित अर्थव्यवस्था’ योजना आयोग और सरकार के गले उतरने वाली नहीं थी। वे मानते थे कि कर्जदार बनकर बड़े बांध बनाने के बजाय हर दस एकड़ में एक कुआँ खोदा जाय। इससे गरीब काश्तकारों को राहत मिल सकेगी। अन्य कई अर्थशास्त्रियों को लगता था कि ‘कुमारप्पा हमें वापस बैलगाड़ी के युग में ले जाना चाहते हैं।’ उनके मतभेद बढ़ते गये और आज हम उसके परिणाम भुगत रहे हैं।
अंत में उन्होंने 1951 में वर्धा जिले के सेलडोह गाँव में ’पन्नै आश्रम’ स्थापित कर ’’कृषि ग्रामोद्योग केंद्र’’ की स्थापना की। तमिल में खेती को ’’पन्ने’’ कहते हैं। अहिंसक जनतंत्र के लिए एकात्मक योजना उस प्रयोग का आधार थी। लेकिन दुर्भाग्य से कुछ गांधीवादियों को भी उनके विचार ठीक नहीं लगे। उनमें से कुछ तो कुमारप्पा को ’गांधीवादी कम्युनिस्ट’ तक कहते थे। वे स्वभाव से भावना प्रधान थे। अपने विचारों को प्रत्यक्षतः साकार करने की उन्हें जल्दी भी थी। परिमाणमतः उन पर काफी मानसिक और शारीरिक तनाव रहता था। अंततः 30 जनवरी 1960 को उनकी मृत्यु हो गयी। वह गांधीजी की स्मृति यानी शहीद दिन भी था! आर्थिक क्षेत्र के विद्रोही और विप्लवी के रूप में वे जीते रहे और उसी रूप में पहचाने जाते रहे।
अहिंसा, स्वदेशी, युद्ध का आर्थिक आधार, केंद्रीभूत उत्पादन होने के कारण होनेवाला शोषण, धन की माया, बढ़ती हुई अनावश्यक जरूरतें, समतामूलक उत्पादन और विकेन्द्रीकरण तथा ग्रामीण समाज अर्थव्यवस्था के बारे में उनके विचार प्रसिद्ध हैं। लेकिन हम इस आदमी को समझ ही नहीं सके। कुमारप्पा की तीव्रता हम लोग कभी समझ नहीं पाये। इसलिए कुछ लोगों को लगता था कि उन्हें बहुत जल्दी हो रही है। वे अपने जीवन-व्यवहार में ईसा के सच्चे अनुयायी थे। एक बार सरदार पटेल के साथ वे राष्ट्रपति भवन देखने गये। सरदार ने पूछा, उनकी वर्धा की झोंपड़ी और इस आलीशन महल में क्या फर्क है? कुमारप्पा का जवाब था, ’’दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। हमारी झोंपड़ी में हम सारी चीजें प्राकृतिक प्रकाश में स्पष्ट देख सकते हैं लेकिन यहां तो सारी चीजें कृत्रिम प्रकाश में देखनी पड़ रही हैं।’’ हजारों वोल्टेज बल्बों का प्रयोग करना और फिर कन्सील्ड लायटिंग के द्वारा कम या इतना मंद प्रकाश रखें कि अनाज के कीडे़ तक दिखाई न दें। इसे वे ’अनर्थशास्त्र’, ’व्यर्थशास्त्र’ या ’स्वार्थशास्त्र’ कहते थे। यह शोषण पर आधारित है। अतएव इस देश के लिए उपयोगी नहीं है।
इस देश के बजट के बारे में और खासकर सुरक्षा विषयक अर्थ-योजना के बारे में उनका मत था- “हमारी अवस्था उस गरीब आदमी जैसी है जो अपनी मिल्कियत का आधा हिस्सा अपने खाली मकान की रक्षा के लिए चौकीदार पर खर्च करता है।’’ उनके मन में ‘मातृत्व’ (माँ बच्चों के लिए जो कुछ करती है वह) अर्थव्यवस्था का भाव था जो उपयोग के लिए उत्पादन करती है वित्त, बिक्री या निर्यात के लिए या फायदा कमाने के लिए नहीं। इसे गांधीजी ने ‘उत्पादन मकान के लिए दुकान के लिए नहीं’ कहा था। वह अहिंसक आयोजन और योजना तथा अहिंसक स्वदेशी अर्थात सत्य, अहिंसा पर आधारित समाज और जीवन व्यवस्था चाहते थे। उसके लिए ग्राम-संगठन और ग्रामीण, सामाजिक, आर्थिक, विकेंद्रित समाज-व्यवस्था अभिप्रेत थी।
सामुदायिक विकास विभाग के मंत्री एक बार कुमारप्पा से मिलने के लिए आए। अपने विकास कार्यक्रमों की बेहद सफलता की बात भी कही। कुमारप्पा ने पूछा, ‘सफलता की आपकी व्याख्या क्या है?’ मंत्री महोदय ने सांख्यिकीय लेखा-जोखा बताना शुरू किया। कुमारप्पा शांति से सुन कर बोले, ’इन सबके कारण कार्यक्रम सफल हुआ, क्या ऐसा कहा जा सकेगा?’ मंत्री ने सवाल दागा, ‘तो फिर यश कैसे गिना जाता है?’ कुमारप्पा का जवाब था ‘सामुदायिक विकास कार्यक्रम किसी क्षेत्र में शुरू करने के पहले मैं उस क्षेत्र के कुछ लोगों के शरीर की पसलियाँ गिनूँगा और तीन साल के बाद अगर उन पर थोड़ा भी मांस चढ़ा होगा तो मानूँगा कि कार्यक्रम सफल रहा। मंत्री महोदय, आप भूखे आदमी के शरीर पर रेशमी शर्ट चढ़ाना चाहते हैं। इसमें शायद ही कभी सफलता मिले।’
कुमारप्पा जी सही अर्थों में ग्रामीणजनों के उद्धारक या ऋषि थे। उन्होंने ग्रामीणजनों के उपयोग के लिए गाँव की मिट्टी-पानी से कुछ चीजें भी बनायीं। उन्होंने गरमी में साग-सब्जियां रखने के लिए मटके जैसा रेफ्रिजरेटर बनाया था। उसका मूल्य कुल छह रुपये था। न बिजली का खर्च और न कोई झमेला।
मेरे जीवन में कुमारप्पा का प्रवेश कब और कैसे हुआ, मुझे ज्ञात नहीं। मैंने नागपुर विद्यापीठ में एम.ए. की परीक्षा के लिए ’अर्थशास्त्र’ विषय लिया था। मौखिक परीक्षा लेने के लिए मुंबई से अर्थशास्त्र के एक प्रसिद्ध प्राध्यापक आए थे। नागपुर से सेवाग्राम पास में है इसलिए या फिर मेरे नाम के कारण उन्होंने मुझसे पहला ही सवाल पूछा, ’गांधीजी के अर्थशास्त्र का मूल तत्त्व क्या है?’ मैंने कहा, ’अहिंसा। वे गुस्सा हुए और कहा कि वह राजनीतिक सिद्धांत है, आर्थिक नहीं; मैंने उन्हें कुमारप्पा के विचारानुसार सिर्फ हिंसा न होना अहिंसा नहीं, तो राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक शोषण यानी हिंसा ही है, समझाने की कोशिश की। उनका मत बना कि मुझे गांधीजी के अर्थशास्त्र का ककहरा तक ज्ञात नहीं। उन्होंने मुझे इतने कम अंक दिये कि मैं सौभाग्य से तृतीय श्रेणी में ही सही, पास हुआ, इसलिए बच गया। अन्यथा जिंदगी कौन-सा मोड़ लेती, पता नहीं। इसे मैं कुमारप्पा की कृपा ही मानता हूँ। (सप्रेस)