— विमल कुमार —
आज हम लोग जिस विषाक्त माहौल में जी रहे हैं उसमें हमारा नींद से जगना बहुत जरूरी हो गया है। जगने के साथ-साथ दूसरों को जगाना भी जरूरी हो गया है। कोरोना वायरस से कहें अधिक घातक राजनीतिक वायरस इस देश में सक्रिय हो गया है जिसका एकमात्र उद्देश्य छल-प्रपंच और झूठ के सहारे सत्ता प्राप्त करना है। उसका मकसद धर्म की राजनीति की सीढ़ियों से कुर्सी हासिल करना है। हिन्दी का लेखक समुदाय इस झूठ के नैरेटिव को पहचान गया है लेकिन अब जनता को भी इसे पहचानना होगा। धीरे-धीरे उसका मोहभंग हो भी रहा है पर उसके सामने रोज एक नया इंद्रजाल पेश किया जाता है। बहरहाल, हिंदी के लेखकों ने जनता को जगाने के लिए इस साल से प्रतिरोध वर्ष मनाने का फैसला किया है। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ, गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत और रज़ा फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी तथा प्रख्यात लेखक अशोक वाजपेयी आदि ने पहल कर एक अखिल भारतीय सांस्कृतिक अभियान की शुरुआत की है। अभी इस अभियान की रूपरेखा और कार्यक्रम तैयार किये जा रहे हैं। योजना तो यह थी कि इस अभियान का प्रारम्भ एक रैली से हो लेकिन ओमिक्रोन को देखते हुए अब संभव नहीं जान पड़ता है पर ऑनलाइन कार्यक्रम से इस अभियान को लांच जरूर किया जाएगा।
हिंदी के लेखकगण धर्म संसद की घटनाओं से बहुत व्यथित हैं। खासकर गांधीजी की जो बार-बार हत्या की जा रही है और गोडसे का महिमामंडन किया जा रहा है वह भारतीय समाज के लिए शर्मनाक है पर राजनीतिक नेतृत्व मौन है। वह एक तरफ आजादी के 75 साल मनाने में लगा है तो दूसरी तरफ उसने विष वमन करनेवालों को खुली छूट दे रखी है।
हिंदी का लेखक समुदाय इस अभियान से समाज में कितनी हलचल पैदा कर सकेगा यह तो वक्त बताएगा पर देश भर से हर कोई अपनी आवाज बुलंद करे तो फर्क जरूर पड़ेगा।
पिछले दिनों किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन ने इस देश के हर तबके को जगाया और उनमें एक नयी तरह की ऊर्जा और चेतना भरने का काम किया। यह आंदोलन अब भले ही वापस ले लिया गया हो लेकिन देश के इतिहास में यह आंदोलन हमेशा याद रखा जाएगा। इस आंदोलन से हमें कुछ सीख भी मिली है खासकर हिंदी के लेखकों को भी।
यूँ तो इस आंदोलन का थोड़ा बहुत असर हिंदी के लेखकों पर जरूर हुआ है। वैसे आंदोलन के दौरान कुछ लेखकों ने जरूर शिरकत की और सिंघु बॉर्डर पर जाकर काव्यपाठ आदि के कार्यक्रमों में भाग भी लिया लेकिन जिस बड़े पैमाने पर लेखकों से आंदोलन में भागीदारी की उम्मीद की जाती है वह अब तक देखने को नहीं मिली। फिर भी इतना तो तय है कि इस आंदोलन ने लेखकों को भी जगाने और झकझोरने का काम किया है। शायद यही कारण है कि पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में हिंदी के लेखकों की एक सभा आयोजित की गयी।
यह सभा हिंदी के यशस्वी कवि-पत्रकार रघुवीर सहाय की 92वीं जयंती और मंगलेश डबराल की पहली पुण्यतिथि के मौके पर प्रेस क्लब में आयोजित हुई जिसमें तीनों वामपंथी लेखक संगठनों के अलावा दलित लेखक संघ ने भी शिरकत की। इसमें प्रख्यात संस्कृतिकर्मी एवं लेखक अशोक वाजपेयी तथा गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत ने भी भाग लिया। इस तरह इस सभा में साहित्य की सभी धाराओं के लेखकों का प्रतिनिधित्व देखने को मिला। सभा मे विभूति नारायण राय, असग़र वजाहत, पंकज बिष्ट, रामशरण जोशी, विष्णु नागर, इब्बार रब्बी, रेखा अवस्थी, असद ज़ैदी, मदन कश्यप आदि अनेक लेखक मौजूद थे। सभा में एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिस पर देश के सैकड़ों प्रमुख लेखकों के हस्ताक्षर किये हैं। उस प्रस्ताव में वर्ष 2022 को प्रतिरोध वर्ष के रूप में मनाने का फैसला हुआ और देश के प्रमुख शहरों में प्रतिरोध दिवस पर कार्यक्रम करने और लघु पत्रिकाओं के प्रतिरोध अंक निकालने की भी अपील की गयी। इस दृष्टि से देखा जाए तो नया साल हिंदी साहित्य के लिए बिल्कुल नए तरह का वर्ष साबित होनेवाला है।
यहाँ यह भी रेखांकित करने योग्य बात है कि यह वर्ष हिंदी के प्रसिद्ध लेखक एवं मुंशी प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय का जन्मशती वर्ष भी है। अमृत राय ने एक जमाने में यानी 60 के दशक में लेखकों का संयुक्त मोर्चा बनाने की बात कही थी और संयुक्त मोर्चा नाम से उनकी एक पुस्तिका भी तब प्रकाशित हुई थी जो अब पुस्तक के रूप में नये सिरे से छपकर आयी है। करीब सात दशकों के बाद हिंदी के लखकों ने एक बार फिर संयुक्त मोर्चा बनाने की पहल की है।
वैसे तो तीनों वामपंथी लेखक संगठनों ने समय-समय पर कई मुद्दों पर साथ लड़ाई लड़ी है और औपचारिक रूप से भले ही किसी मोर्चे के गठन की घोषणा न की गयी हो लेकिन साथ मिलकर उन्होंने कई मौकों पर संघर्ष किया है। लेकिन आज जब देश गहरे संकट से गुजर रहा है और भारतीय राजनीति गठबंधन के दौर में पहुँच गयी है और समय-समय पर मोर्चे भी बनने लगे हैं। इसलिए साहित्य में भी सभी धाराओं के लोगों को शामिल कर यह मोर्चा बने जिसमें न केवल वामपंथी लेखक शामिल हों बल्कि समाजवादी, गांधीवादी और यहाँ तक की कलावादी माने जानेवाले लेखकों को भी शामिल किया जाए। कुल मिलाकर यह एक धर्मनिरपेक्ष और हिंदुत्व-विरोधी मोर्चा हो जो फिरकापरस्ती का खुलकर विरोध करे। यह बात यहाँ इसलिए कही जा रही है कि इस लड़ाई को लड़ने के लिए एक व्यापक मोर्चे और मंच की जरूरत है।
हमारा देश जिस भयानक दौर से गुजर रहा है, जिस तरह धार्मिक उन्माद फैलाया जा रहा और मंदिर की राजनीति की जा रही है उसने समाज में ज़हर घोल दिया है और नफरत की दीवारें खड़ी कर दी हैं। आजादी के बाद यह पहले कभी भी इस रूप में नहीं देखा गया। अब तो दक्षिणपंथी और फासीवादी ताकतें नंगा नाच करने लगी हैं और विपक्ष एक बहुत ही जर्जर अवस्था में पहुँच गया है। ऐसे में लेखकों से उम्मीद की जाती है कि वे इस लड़ाई में आगे बढ़कर भाग लें क्योंकि प्रेमचंद के शब्दों में ‘साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है’।
यह सच है कि देश में परिवर्तन तो यहाँ की जनता ही ला सकती है और उसे एक दिन जागना होगा। अभी तो किसानों ने अपनी आवाज बुलंद कर इस बात को बता दिया है कि ऐसी कोई भी लड़ाई सामूहिक रूप से लड़कर जीती जा सकती है। यह सच है कि लेखकों की ताकत और संख्या किसानों जैसी नहीं है और उनका कोई वोट बैंक भी नहीं है जिससे सत्ता घबरा जाए लेकिन उनके कलम की ताकत तो जरूर है और लेखक-समाज चाहे तो उस कलम का इस्तेमाल कर सकता है। यह अलग बात है कि हिंदी समाज के लेखक अपनी उस कलम की ताकत पर भरोसा कम करते हैं और प्रतिरोध का साहित्य कम रचते हैं लेकिन इस दौर में लेखकों का यह दायित्व बनता है कि अगर वे सामाजिक आंदोलनों में बढ़-चढ़कर भाग नहीं ले पाते हैं तो कम से कम ऐसा साहित्य जरूर रखें जिसमें अपने समय का सच दर्ज हो और समाज में जिस तरह अन्याय, दमन, अत्याचार और शोषण मौजूद है उसके विरुद्ध वे आवाज़ उठाएँ, वैसा साहित्य रचें क्योंकि साहित्य तो हमेशा विपक्ष में रहता है और वह सत्य की खोज करता है। इस दृष्टि से अपने समय में रचे जा रहे झूठ का वह पर्दाफाश करता है।
जब आज के दौर में हर रोज एक झूठ का महाख्यायन रचा जा रहा है और सत्य का गला घोंटा जा रहा है तब तो लेखकों का एकजुट होना और भी जरूरी हो गया है। कुछ साल पहले जब असहिष्णुता के मुद्दे पर पुरस्कार वापसी के साथ लेखक सामने आए थे तो उन्होंने इस देश को एक संदेश दिया था कि वे सच के साथ खड़े रहेंगे लेकिन वह सब किसी मोर्चे या मंच के तहत या किसी सुनियोजित तरीके से घटित नहीं हुआ था बल्कि वह स्वतःफूर्त प्रतिक्रिया थी इसलिए उस आक्रोश को बाद में एक आंदोलन का रूप नहीं दिया जा सका। लेकिन अब यह आवश्यक हो गया है कि लेखक-समाज अपने उस आक्रोश को एक सांस्कृतिक आंदोलन का शक्ल दें और जहाँ तक संभव हो उसे जन-जागृति का आंदोलन भी बनाने का प्रयास करें।
जाहिर है इसके लिए लेखक संगठनों को आगे आना होगा। इस दिशा में इलाहाबाद में अमृत राय की जन्मशती के मौके पर तीन वामपंथी लेखक संगठनों ने मिलकर एक कार्यक्रम किया। उसमें इस आशय का एक प्रस्ताव भी पारित किया। लेकिन यह काफी नहीं है बल्कि देश के हिंदी प्रदेश में अधिक से अधिक संख्या में ऐसे कार्यक्रम आयोजित किये जाएँ जिसमें इस तरह के प्रस्ताव पारित किए जाएं और वहाँ के लेखकों-पत्रकारों, शिक्षकों तथा नागरिक समाज को इस आंदोलन के लिए प्रेरित किया जाए। जाहिर है यह आंदोलन कोई दलगत आंदोलन नहीं होगा लेकिन उसकी एक प्रगतिशील राजनीति तो जरूर होगी जिसमें असमानता, अन्याय, दमन और सांप्रदायिकता का पुरजोर विरोध होगा और समाज में सद्भाव और सौहार्द स्थापित करने की एक अपील होगी। नया वर्ष हिंदी समाज के लेखकों के लिए इस बार यही संदेश लेकर आया है और हिंदी के लेखकों को अपने इस दायित्व के बारे में सोचना-विचारना होगा। वे अब पहले की तरह हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ सकते हैं।
यूँ तो राष्ट्रीय आंदोलन में हिंदी के लेखकों ने अपनी महत्त्वपूर्ण भागीदारी निभायी थी और कई तो जेल भी गये थे। आजादी के बाद आपातकाल में भी लेखकों ने उसका विरोध किया था लेकिन लेखकों का यह विरोध और प्रतिरोध पर्याप्त नहीं है। उसके दायरे को आगे और बढ़ाना चाहिए उसकी परंपरा को विकसित करना चाहिए। हिंदी की युवा पीढ़ी के लेखकों से विशेष अपील है कि वे इस खतरे को समझें और अपनी अग्रज पीढ़ी से एक संवाद कायम कर इस संघर्ष को सामूहिक लड़ाई के रूप में लड़ें। इसके साथ ही हिंदी के शीर्ष नेतृत्व से भी यह उम्मीद की जाती है वे इस लड़ाई का नेतृत्व करें और लोगों को एकजुट करने का प्रयास करें। लेकिन यह भी सच है कि कोई भी लड़ाई तभी लड़ी जा सकती है जब युवा पीढ़ी के लेखक उसमें बढ़-चढ़कर भाग लें। अगर हिंदी के लेखकों का कोई संयुक्त मोर्चा बनता है तो उसमें युवा लोगों विशेषकर स्त्रियों, दलितों की अधिक से अधिक भागीदारी होनी चाहिए तभी इस एकजुटता का कोई अर्थ होगा।
उम्मीद है साहित्य का यह नया मोर्चा लेखकों को एकजुट कर एक नयी ताकत देगा। यह नये साल की नयी पहल होगी और इसे 2024 तक जारी रखा जाए। इसमें देश के सभी शहरों के लेखकों को शामिल किया जाए तभी इसका कोई असर देखने को मिलेगा। लेखक एक रोशनी दिखा सकता है लोगों को जगा सकता है पर देश की जनता को भी आगे आना होगा।