विधानसभा चुनावों के तीन आयाम

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— अमृतांशु —

त्रासदियों से घिरा एक औसत आदमी प्रायः चमत्कार की उम्मीद में बैठा रहता है। भारतीय गणतंत्र जब सांप्रदायिकता, अतिपूँजीवाद और सत्तादंभ के भंवरजाल में फंसकर अपने मौलिक अर्थों को खो रहा है तो दर्शक दीघा में बैठकर हम प्रत्येक चुनाव में चमत्कार खोजने की कोशिश करते हैं। ऐसे चमत्कारों की आशा में बैठने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि यदि गणतंत्र के क्षय का मार्ग चुनावी राजनीति से तय हो रहा है तो इसकी प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने का सबसे प्रदीप्त मार्ग भी चुनावी राजनीति से जुड़ा हुआ है। लोकतंत्र का क्षय यदि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से हो रहा है तो इसका कदापि यह अर्थ नहीं है कि हम इन प्रक्रियाओं से ही परहेज कर लें।

लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के आरंभिक बिंदु एवं इसके सबसे प्रबल पक्ष चुनावी राजनीति को महज ‘टुच्ची किस्म की चालबाजियों’ में सीमित कर देना इसका एकाकी विश्लेषण होगा। सूबाई चुनावों के परिणामों का विश्लेषण यदि हम केवल गणतंत्र को बचाने की अवधारणा से करेंगे तो हम इसके कई मौलिक पक्षों के प्रति उदासीन हो जाएंगे।

विधानसभा चुनावों में लोकतंत्र के लिए संजीवनी खोजने से इतर इसके तीन प्रमुख आयाम निकलकर आ रहे हैं। एक चुनावी राजनीति का स्थापित आयाम है, दूसरा अल्पकालिक राजनीति में सत्तादंभ को चुनौती देने से संबंधित है और तीसरा दीर्घकालिक राजनीति में सकारात्मक असर डालने और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की विजय से संबंधित है-

मनोरंजन तमाशा

मनोरंजन तमाशा हाल के वर्षों में चुनावी राजनीति का एक स्थापित आयाम रहा है। विभिन्न दलों के नेता अपने व्यक्तित्व अथवा विचारों के इर्दगिर्द एक तमाशा रचते रहे हैं और चुनाव को अपने नायकत्व के दम पर प्लेबीसाईट के रूप में मोड़ देने की कोशिश करते हैं। अमूमन प्रत्येक राजनीतिक दल के नेता नाट्यकलाओं के जरिये मतदाताओं को लुभाते रहे हैं, वो चाहे असम के चुनावों में लगभग हर रैली में हिमंत बिस्व शर्मा का नृत्य हो या बंगाल के चुनावों में ममता का व्हीलचेयर में बैठकर फुटबॉल खेलना हो।

संस्कृत पुराणों में कलाओं के 64 प्रकार बताये गये हैं।बाणभट्ट ने कादंबिनी में ऐसी कलाओं के शिक्षण की बात कही है। आज के समय में भारत के राजनेताओं को छोड़कर किसी भी व्यक्ति के पास इन सभी कलाओं का ज्ञान नहीं है। मनोरंजन तमाशा चुनावी राजनीति में एक अनिवार्यता बन गया है। कई प्राइवेट कंसल्टेंट कंपनियों और एडवरटाइजिंग एजेंसियों के लिए चुनाव रोजगार के अवसर की तरह दिख रहे हैं। चुनावी राजनीति का प्राइवेट कंसल्टेंट की बैसाखी से चलना समसामयिक राजनेताओं में रचनात्मकता की कंगाली को भी दर्शाता है। मनोरंजन तमाशे के नजरिये से भी देखें तो आज के राजनेता कलाओं में दक्ष तो हैं लेकिन रचनात्मकता उनमें नदारद है।

हमारी बौद्धिक चिंताओं के इतर मनोरंजन तमाशा भारतीय राजनीति का एक स्थापित आयाम हो चुका है। इन चुनावों में भी इसकी भरमार होनेवाली है और आगामी चुनावों के भी इससे मुक्त होने की संभावना कम ही है।

 सत्तादंभ का अल्पकालिक उपचार

भारतीय राजनीति में बहुमत की अकड़ में पहले भी कई नेताओं ने लोकतंत्र की आत्मा पर आघात करने का प्रयास किया है। ऐतिहासिक रूप से सत्तादंभ को कुचलने के लिए सड़क बनाम संसद का रामबाण सबसे प्रभावी रहा है। जब भी संसद ने तानाशाह बनने का प्रयास किया, लोगों ने सड़क पर खड़े होकर प्रतिकार किया। ऐसा कम ही हुआ है कि संसद में बैठी सरकारें सड़क के प्रतिकार से न झुकी हों लेकिन निवर्तमान सरकार आरंभ से ही भारतीय लोकतंत्र के ऐसे नैतिक मूल्यों के खिलाफ खड़ी रही है।

हम किसान आंदोलन में मिली ऐतिहासिक जीत को सड़क की जीत मानकर खुश हो सकते हैं लेकिन ये सत्तादंभ ही रहा कि 700 से अधिक किसानों की शहादत के बाद सरकार ने आंदोलनरत किसानों की मांग को माना। ये सत्तादंभ का परिणाम रहा है कि सरकार ने गंगा में तैर रही अधिकतर लाशों को कोविड से हुई मौत के आंकड़ों में गिनने से इनकार कर दिया। ये सत्तादंभ ही रहा है कि सरकार ने लॉकडाउन में मजदूरों पर लाठियां बरसायी हैं। उत्तर प्रदेश जैसे महत्त्वपूर्ण राज्य में यदि भाजपा हारती है तो भारी मशीनरी और पूँजी के सहारे चुनाव जीतने का उसका घमंड थोड़ा कम होगा। अगले दो साल में लोकसभा चुनाव हैं, ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था जैसे असल मुद्दों की ओर उसका ध्यान जाने की भी संभावना अधिक है। विपक्षी दलों के बीच वैचारिक धुरी के निर्माण या मुख्य विपक्ष की जगह को हथियाने से ज्यादा इन चुनावों का महत्त्व वर्तमान सरकार का ध्यान असली मुद्दों की ओर खींचने को लेकर होना चाहिए।

उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की ढिलाई से सांप्रदायिकता के कुछ जहरीले दरख्त भी तेजी से उगे हैं। जो खुलेआम नरसंहार की धमकी देते हैं। यदि यहाँ सत्ता परिवर्तन होता है तो ऐसे कई छोटे-बड़े दरख्त सूख जाएंगे। सांप्रदायिकता को एकाएक जड़ से नहीं उखाड़ फेंका जा सकता लेकिन जब इसको संस्थाओं से बल मिल रहा हो तो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के माध्यम से इसको बांधा जरूर जा सकता है।

दीर्घकालिक राजनीति के लिए एक शुभ संकेत

मौजूदा समय भारतीय गणतंत्र का एक कठिन अध्याय है। आज के दौर में जब लोकतंत्र के अस्तित्व को केवल चुनाव तक सीमित कर दिया गया है, भारतीय गणतंत्र के भविष्य के लिए एक शुभ संकेत भी देखने को मिला है। इन विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों ने खुलकर महिलाओं को एक निर्णायक मतदाता समूह के रूप में माना है।

कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में अपने पुनरुत्थान के लिए ‘लड़की हूँ, लड़ सकती हूं’ जैसे नारे से शुरुआत की है, आम आदमी पार्टी ने पंजाब में महिलाओं को लुभाने के लिए 1000 रुपये प्रतिमाह देने की घोषणा की है, वहीं गोवा में अपनी किस्मत आजमा रही तृणमूल कांग्रेस ने महिलाओं को 5000 रुपये प्रतिमाह देने की घोषणा की है।

इन लोकलुभावन वादों की पड़ताल से जरूरी इस बात को समझना है कि भारतीय लोकतंत्र में महिला मतदाताओं ने एक समूह के रूप में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज कराई है। यह एकाएक होनेवाली घटना नहीं है। कई बार से बिहार, पश्चिम बंगाल, दिल्ली जैसे राज्यों की सरकारें महिला केंद्रित घोषणाएं लाकर चुनाव की फिजां बदलने की कोशिश करती रही हैं। यह पहला अवसर है जब प्रत्येक सूबे के चुनाव में महिलाओं का मत राजनीतिक दलों की प्राथमिकता बन गया है।

लोकतंत्र के लिए यह कठिन समय है लेकिन इस समय में भी महिलाओं का एक मतदाता समूह के रूप में उभरना लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विजय का भी एक स्तंभ है। यह ‘साइलेंट रेवोल्यूशन’ का अगला चरण है और भारतीय लोकतंत्र की अगली बड़ी क्रांति है।

लोकतंत्र का अपना बहाव है जिसको बाधित कर पाना लोकतंत्र विरोधी शक्तियों के बस की बात नहीं है। यह भारतीय लोकतंत्र में एक दीर्घकालिक बदलाव है, इसका स्वरूप वैसा ही है जैसे 67 के चुनावों में संसोपा के एक नारे से भारतीय राजनीति की तस्वीर हमेशा के लिए बदल गयी। लोकतंत्र और संवैधानिक प्रक्रियाओं से जुड़ा हुआ आयाम लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर भरोसा करने की एक ठोस वजह है।

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