फ़ारूक़ अब्दुल्ला जी से एक यादगार मुलाकात

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Randhir K Gautam

— रणधीर कुमार गौतम —

भारतीय कश्मीरी आवाम का भारत के लोगों और भारत की सरकार के साथ संबंध अलग-अलग तरीकों से बना हुआ है। भारत की वर्तमान राजनीति में, जहाँ नेतृत्व में स्टेट्समैनशिप (राजनीतिक दूरदर्शिता) की भारी कमी दिखाई देती है, वहाँ फ़ारूक़ अब्दुल्ला जैसे नेता एक अपवाद स्वरूप हैं। उन्होंने साफ़ तौर पर कहा कि उन्हें इस बात का दुख है कि आज का भारत वह भारत नहीं रहा, जहाँ प्रेम, न्याय और भ्रातृत्व की भावना को एक आदर्श के रूप में स्वीकार किया जाता था। आज की राजनीति मानवीय राजनीति न होकर, घृणा की राजनीति बन गई है। और इस घृणा की राजनीति का अंत करना आज के सामाजिक कार्यकर्ताओं का नैतिक दायित्व बन जाता है .

अपने लंबे राजनीतिक अनुभव से डॉ. फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने कहा कि उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी कि देश ऐसा दौर भी देखेगा। जब वे अपनी बात रख रहे थे, तो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे दिल से अपने जज़्बात साझा कर रहे हों। भारत के प्रति उनका अटूट प्रेम उनके हर वाक्य में महसूस किया जा सकता था।

उन्होंने कहा कि राजनीति को हमेशा मानवीय मूल्यों और धर्म के नैतिक आचरण का पालन करना चाहिए। जिस भाषा में वे हमसे संवाद कर रहे थे, वह गांधी की भाषा थी। राम से लेकर भक्ति परंपरा के अनेक उदाहरणों के माध्यम से वे हमें भारतीयता के मूल्य दृष्टिकोण से सोचने के लिए प्रेरित कर रहे थे। उनका मानना है कि इंसान को इंसानियत के लिए ही जीना चाहिए।

फ़ारूक़ अब्दुल्ला साहब ने चेताया कि घृणा की राजनीति न केवल भारत और कश्मीर के बीच एक दीवार खड़ी करेगी, बल्कि देश के भीतर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच गहरी दरार भी पैदा करेगी। भावुक होकर उन्होंने यह भी कहा कि कभी-कभी उन्हें लगता है कि शायद उनके पिता, ‘शेर-ए-कश्मीर’ शेख़ अब्दुल्ला, भारत के साथ आकर कोई गलती तो नहीं कर गए — जबकि वे मुसलमान थे। इतनी सुरक्षा के बावजूद उन्हें डर लगता है कि कोई उन्हें गोली न मार दे — जैसे संकीर्ण सोच रखने वालों ने गांधीजी की हत्या कर दी थी। उन्होंने हमसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि हमें घृणा फैलाने वालों से हिंदुस्तान को बचाना है। अगर हम इसमें असफल रहे, तो हम अपनी साझा विरासत को भी नहीं बचा पाएंगे।

आज भी 90 वर्षीय फ़ारूक़ अब्दुल्ला, एक व्यक्ति के रूप में, एक राजनेता के रूप में और एक कश्मीरी के रूप में लगातार घृणा की राजनीति करने वालों को चुनौती दे रहे हैं। उन्होंने भारतीय समाज की “culture of diversity” — विविधता की संस्कृति — की महान परंपरा की ओर हमारा ध्यान खींचा। यही वह तत्व है जिसने भारत को विभिन्नताओं में एकता के सूत्र में बांधने की शक्ति दी है। यही भारत का वह उद्देश्य और सार है जिससे हम सभी भारतीय, मिलकर dignity, justice और progress के मूल्यों पर आधारित एक ऐसा देश बनाने का सपना साकार करते हैं, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की विरासत से प्रेरणा लेता है।

फ़ारूक़ अब्दुल्ला जी के विचार – कश्मीर, भारत और राजनीति की दिशा उन्होंने यह भी कहा कि कश्मीरियों ने कभी पाकिस्तान की मांग नहीं की। शेख़ अब्दुल्ला ने हमेशा पाकिस्तान-परस्त राजनीति को कमजोर करने का प्रयास किया। जब मोहम्मद अली जिन्ना कश्मीर आए, तो उनका स्वागत फूलों से नहीं, बल्कि विरोध प्रदर्शनों से किया गया — उन्हें जूतों की माला पहनाई गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि कश्मीर की जनता ने हमेशा ‘टू नेशन थ्योरी’ की राजनीति का विरोध किया और उसे अपमानित करने का काम किया है।

अपने संस्मरण सुनाते हुए फ़ारूक़ अब्दुल्ला बताते हैं कि उनके पिता शेख़ अब्दुल्ला को अक्सर यह सुनना पड़ता था कि “आप हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते”। लेकिन शेख़ अब्दुल्ला हमेशा यह कहते थे, “हमें एक साथ रहना है — कश्मीरी हिंदू कहाँ जाएंगे? कश्मीरी सिख कहाँ जाएंगे?” कश्मीरियत किसी एक धर्म पर आधारित नहीं है, बल्कि यह एक साझा सांस्कृतिक पहचान है — और इसी मूल्य को शेख़ अब्दुल्ला ने अपनी पूरी राजनीति का आधार बनाया। इसके बदले में, भारत सरकार ने उन्हें 11 वर्षों से अधिक समय तक जेल में रखा। फ़ारूक़ अब्दुल्ला बताते हैं कि पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक, किसी ने भी उनके पिता पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया। आज भी भारत की राजनीति में उस विश्वास को पुनः प्राप्त करने की आवश्यकता है।

उन्होंने बताया कि जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने फ़ारूक़ जी को बुलाया और कहा कि “दिल्ली और दिल की दूरी” को समाप्त करेंगे। जब चुनाव हुआ, तो कश्मीर की जनता ने बहुमत के साथ नेशनल कांफ्रेंस को चुना और सरकार बनाई। लेकिन फ़ारूक़ अब्दुल्ला इस बात से व्यथित हैं कि जम्मू-कश्मीर को एक रियासत से विभाजित कर दिया गया। ना तो उप-चुनाव करवाए जा रहे हैं, और ना ही राज्यसभा की उन चार सीटों के लिए चुनाव कराए जा रहे हैं जो कश्मीर से आती थीं।

कश्मीर की सरकार और जनता — दोनों ही आज powerlessness, voicelessness, और marginality का अनुभव कर रहे हैं। फ़ारूक़ अब्दुल्ला कहते हैं कि कश्मीर के दिलों में एक छुपी हुई आग है, जो कभी भी आंदोलन के रूप में सामने आ सकती है। उन्हें यह भी चिंता है कि देश के कुछ हिस्सों, विशेषकर ‘को बेल्ट’ (Cow Belt) में जो राजनीति हो रही है, वह Idea of India की मूल भावना पर लगातार कुठाराघात कर रही है।

वे कहते हैं कि जिस भारत का सपना शेख़ अब्दुल्ला, पंडित नेहरू और महात्मा गांधी ने देखा था — उस भारत को गढ़ने का काम हम सबको मिलकर करना होगा। अगर हम भारत को टूटने से बचाना चाहते हैं, तो हमें एकता, बहुसंस्कृतिवाद (multiculturalism) और सद्भावना को मजबूत करने वाली राजनीति को अपनाना होगा। उन्हें इस बात का भी अफसोस है कि जो राज्य सरकारें एनडीए का हिस्सा नहीं हैं, उनके साथ केंद्र सरकार सौतेला व्यवहार करती है। वे कहते हैं — “यह भारत के लोगों की लोकतांत्रिक फैसला है कि वे किसे सत्ता में लाते हैं और किसे बाहर करते हैं। मगर वे भारतीय हैं — कोई चीनी या पाकिस्तानी नहीं हैं।”

कश्मीर, भारतीय लोकतंत्र और आज की राजनीति पर फ़ारूक़ अब्दुल्ला के विचार……..

अगर भारत के लोग कश्मीर को अपना अभिन्न हिस्सा मानते हैं, तो कश्मीरियों के साथ दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार क्यों किया जा रहा है? फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने बताया कि वर्तमान में सारा प्रशासनिक नियंत्रण लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास है और चुनी हुई सरकार को एक प्रकार से शक्तिहीन बना दिया गया है। पूरी नौकरशाही की व्यवस्था सत्ता का वर्चस्व स्थापित कर रही है।
उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि एक बार जब कश्मीर के मुख्यमंत्री को किसी सरकारी कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए बुलाया गया, तो उस कार्यक्रम के अधिकारी का तुरंत तबादला कर दिया गया। फ़ारूक़ जी ने एक घटना का उल्लेख करते हुए बताया कि जब कश्मीर विधानसभा पर आतंकवादियों ने हमला किया था, तब 40 से अधिक निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की हत्या कर दी गई थी, और आतंकवादी उन्हें (फ़ारूक़ अब्दुल्ला) तलाश रहे थे। सौभाग्य से, हमले से पाँच मिनट पहले ही वे किसी अन्य कार्यक्रम में भाग लेने के लिए वहाँ से निकल चुके थे — वरना उस दिन वे भी मारे जा सकते थे।

वे धर्म के नाम पर कुर्सी की राजनीति के बढ़ते प्रयोग के खतरे को रेखांकित कर रहे थे और हम सभी( सद्भावना एकता मिशन) , जो उन्हें सुनने आए थे, उस बात को गंभीरता से महसूस कर रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा सरकार के कार्यकाल में अनेक बुद्धिजीवियों और विचारशील नेताओं के साथ अपमानजनक व्यवहार किया जा रहा है।

उन्होंने उस राजनीति की भी आलोचना की जिसमें एक व्यक्ति स्वयं को “देश और हिंदू धर्म का रक्षक” घोषित करता है, और स्वयं को ” (non-biological being) तक कहता है। फ़ारूक़ अब्दुल्ला के वक्तव्यों से यह स्पष्ट हो रहा था कि इस प्रकार की राजनीति भारतीयता की आत्मा को गहराई से कमजोर कर रही है।

फ़ारूक़ अब्दुल्ला साहब के विचार: संसद, तानाशाही प्रवृत्तियाँ और अंतरराष्ट्रीय राजनीति…….

फ़ारूक़ अब्दुल्ला साहब ने भारतीय संसद के गौरवपूर्ण इतिहास की ओर इशारा करते हुए कहा कि जब नेहरू या इंदिरा गांधी संसद में आते थे, तो किसी की मजाल नहीं थी कि ‘इंदिरा गांधी की जय’ या ‘नेहरू की जय’ का नारा लगाए। लेकिन आज जब यह व्यक्ति (प्रधानमंत्री) संसद में प्रवेश करता है, तो अपनी जय-जयकार कराता है। जो भी व्यक्ति सांसद (MP) या विधायक (MLA) बनना चाहता है, उसके लिए बिना जय-जयकार के सम्भावना नहीं बचती। यह एक प्रकार की तानाशाही प्रवृत्ति को दर्शाता है।

पूरी संसद में अब statesmanship (राजनीतिक परिपक्वता) की भारी कमी दिखाई देती है, और यह गंभीर सवाल उठता है कि हम किस प्रकार के लोगों के हाथों में अपनी किस्मत सौंप रहे हैं। आज जब भारतीय संसद में विपक्ष पहले से अधिक मज़बूत हुआ है, और मोदी सरकार नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे सहयोगियों के सहारे सत्ता चला रही है, तब भी सरकार में लोकतंत्र के प्रति किसी प्रकार की कोई सहानुभूति नहीं दिखाई देती।

इसके बाद फ़ारूक़ जी ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने बताया कि भारत की विदेश नीति और नेताओं की दूरदृष्टि के अभाव के कारण अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की स्थिति कमज़ोर हुई है। उन्होंने कहा कि हमने अपने पड़ोसी देशों — चाहे वह बांग्लादेश, पाकिस्तान या नेपाल हों — के साथ संबंध कमज़ोर कर लिए हैं। आज कोई भी देश खुलकर भारत के पक्ष में खड़ा होने का साहस नहीं दिखा रहा।

यह वही रूस है जिसने एक समय कहा था कि भारत पर हमला, रूस पर हमला माना जाएगा — आज उसी रूस के साथ हमने अपने संबंध बहुत कमज़ोर कर दिए हैं। हमने रूस की गरिमा का सम्मान नहीं रखा और अमेरिका की गोद में बैठ गए।

वही अमेरिका, जो पाकिस्तान को लगातार मज़बूत कर रहा है — आज उसने पाकिस्तान को 2.5 बिलियन डॉलर का ऋण दे दिया है। राष्ट्रपति ट्रम्प पाकिस्तानी Field Marshal को अपने हाथों से खाना खिला रहे हैं। जब आतंकवाद को विश्व स्तर पर समाप्त करने की बात आती है, तो 25 देशों ने पाकिस्तान का समर्थन किया — केवल भारत को छोड़कर।

फ़ारूक़ जी ने याद दिलाया कि नेहरू द्वारा शुरू किया गया Non-Aligned Movement (गुटनिरपेक्ष आंदोलन) न केवल अंतरराष्ट्रीय राजनीति को एक नई दिशा देने वाला था, बल्कि इसने भारत और चीन जैसे एशियाई देशों को मजबूती और सम्मान दिलाया।

Dr. अब्दुल्ला ने यह भी कहा कि आज अमेरिका और पाकिस्तान वॉशिंगटन के व्हाइट हाउस में बैठकर शायद यह बातचीत कर रहे हैं कि “कश्मीर मुद्दे को हल कराने में अमेरिका मदद करे।” डॉ. फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने आशंका जताई कि कहीं ऐसा न हो कि अमेरिका और पाकिस्तान मिलकर कश्मीर का कोई ऐसा फैसला कर लें, जो भारत की इच्छा के विरुद्ध हो।

उन्होंने कहा, “ trump बार-बार कहते आए हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम का फैसला हमने ही करवाया था। लेकिन क्या कभी भारत के प्रधानमंत्री ने इस पर कोई बयान दिया? हमेशा सेना के अधिकारियों से कहलवाया गया — ‘हमने यह युद्धविराम समझौता किया है।’”

नॉन-अलाइन्ड मूवमेंट और भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि पर फ़ारूक़ अब्दुल्ला के विचार….

नॉन-अलाइन्ड मूवमेंट (गुटनिरपेक्ष आंदोलन) के नायक के रूप में भारत की जो अंतरराष्ट्रीय छवि थी, उसे आज के परिप्रेक्ष्य में देखकर फ़ारूक़ अब्दुल्ला ही नहीं, हम सभी साथी जो जून में उनसे मिलने गए थे, अत्यंत दुखी थे। हाल ही में जब भारत के प्रधानमंत्री कनाडा गए, तो कनाडा की संसद के कुछ सदस्यों ने उनके प्रति आपत्तिजनक टिप्पणियाँ कीं। इतना ही नहीं, उनके स्वागत के लिए एक कनिष्ठ अधिकारी को भेजा गया — जो कि भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री के लिए असामान्य और अपमानजनक प्रतीत होता है। धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि भारत की अंतरराष्ट्रीय साख उस दिशा में क्षीण हुई है, जिसकी जड़ें घरेलू राजनीति में निहित हैं।

जिस बांग्लादेश को भारत ने 1971 में आज़ाद करवाया, वही देश आज भारत से दूरी बना रहा है। यह चिंतन का विषय है कि आखिर ऐसा हमारे साथ क्यों हो रहा है? हमने क्या गलती की?

हम बार-बार यह कहते रहे हैं कि भारत को अपने पड़ोसियों के साथ संबंध मजबूत करने चाहिए। लेकिन यदि भारत की राजनीति केवल हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण पर आधारित होगी, तो न सिर्फ पाकिस्तान से, बल्कि बांग्लादेश जैसे मित्र देशों से भी हमारे संबंध प्रभावित होंगे।

राजनीति का प्रभाव अंतरराष्ट्रीय संगठनों पर भी पड़ता है — जैसे कि SAARC (दक्षिण एशियाई सहयोग संघ) को भारत ने जिस प्रकार निष्क्रिय किया है, उसका नुकसान भारत सहित उसके सभी पड़ोसी देशों को भुगतना पड़ रहा है। फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने यह भी सवाल उठाया कि आज भी क्यों कश्मीरियों और भारत के अन्य नागरिकों को एक-दूसरे के इलाकों में जाने से डर लगता है? आज हज़ारों कश्मीरी छात्र देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ रहे हैं — उनके मन में किसी भी प्रकार का डर नहीं होना चाहिए। ठीक उसी तरह, जो भी हिंदू-मुसलमान भाई कश्मीर आते हैं — चाहे वे अमरनाथ यात्री हों या पर्यटक — उन्हें भी यहाँ डर का अनुभव नहीं होना चाहिए। फ़ारूक़ अब्दुल्ला जी ने शेख़ अब्दुल्ला द्वारा दी गई उस राजनीतिक नसीहत को याद किया, जिसमें इनाम के साथ नहीं, उसूलों के साथ राजनीति करने का संदेश था।

अल्लामा इकबाल का सेर है –
, “यूनान ओ मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा…

भारत को बचाने की राजनीति — एकता, प्रेम और सद्भाव की राजनीति है।
यही राजनीति भारतीयता और हमारी विरासत की भी सच्ची अभिव्यक्ति है।

फ़ारूक़ अब्दुल्ला जी ने कहा कि वैमनस्य की राजनीति का समाधान उन्हीं नेताओं की तरह की राजनीति में है, जैसी महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण किया करते थे। आज हमें ऐसे ही नेतृत्व की आवश्यकता है। फ़ारूक़ अब्दुल्ला जी से मिलने हमारे साथ निम्न साथी भी उपस्थित थे —
श्री रमाशंकर सिंह, श्री गोपाल ठाकुर ,डॉ. सुनीलम, श्री अरुण श्रीवास्तव, प्रो. ओ.एम., श्री प्रमजीत मान, श्री रणधीर गौतम, श्री जुनैद, श्री देवेश शर्मा, और श्री उत्सव यादव तथा श्री स्त्रुधन। बहुत ही सम्मानपूर्वक यह मुलाकात सम्पन्न हुई। हम सभी साथियों ने उनके साथ एक सामूहिक फोटो भी लिया। इस दौरान वे हम सबसे आत्मीयता से हाथ मिला रहे थे।

90 वर्ष की आयु में भी उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के 90 साल पूरे होने पर पुणे कार्यक्रम में भाग लेने के हमारे आमंत्रण को सहर्ष स्वीकार किया। साथ ही, आईटीएम यूनिवर्सिटी ग्वालियर द्वारा आयोजित लोहिया व्याख्यान माला 2026 के लिए भी हमारा आमंत्रण स्वीकार किया।

जब मैं वहाँ से विदा हो रहा था, वे ‘नमस्कार’ की मुद्रा में खड़े होकर मुस्कुरा रहे थे — मानो कश्मीर यात्रा की सबसे मधुर और मूल्यवान स्मृति हमें सौंप रहे हों।

जय हिंद, जय कश्मीर!

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