गांधी ने किसी भी विषय पर औपचारिक रूप से मुझे कभी कोई पाठ नहीं पढ़ाया। फिर भी वह बहुत हद तक मेरे शिक्षक थे। जैसा पहले जिक्र कर चुका हूं, बारह साल की उम्र में जब एक ‘नियमित स्कूल’ का सिर्फ एक दिन छात्र रहने के बाद मैंने ऐसे किसी स्कूल में जाने से मना कर दिया, गांधी ने ही सबसे पहले मुझे बधाई दी। हमेशा प्रयोगशील गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में खुद अपने बच्चों की शिक्षा के साथ प्रयोग किए थे। शीघ्र ही कुछ दूसरे बच्चे भी उनके विशाल परिवार और आश्रम में शामिल हो गए थे। शुरू से ही गांधी के लिए शिक्षा का मतलब सिर्फ पढ़ना-लिखना सिखाना नहीं था। उनके लिए शिक्षा का मतलब था हरेक बच्चे में सोई हुई श्रेष्ठ संभावनाओं को जगाना, स्वयं अपने जीवन के द्वारा इसका तरीका सिखाना। वे बच्चों को आश्रम की सामान्य गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते थे, उन्हें विभिन्न काम सौंप कर उत्तरदायित्व सिखाते थे, उनमें भरोसा कर उन्हें विश्वासपात्र बनाते थे। गांधी उनके साथ खेत में काम करते, अगर कहीं तैरने का मौका और वक्त होता, उनके साथ तैरते भी थे। साबरमती और सेवाग्राम आश्रम में अन्य अंतेवासियों के साथ, जिनमें बच्चे भी होते, गांधी प्राय: खुले आसमान के नीचे सोते थे। इससे बच्चों को प्रकृति को जानने-समझने का प्रचुर अवसर मिलता था। शारीरिक श्रम, सामुदायिक काम और प्रकृति- ये गांधी के शिक्षण के स्रोत और माध्यम थे।
नियमित स्कूल में जाने से मेरे मना करने के बाद जब मेरी शिक्षा का जिम्मा गांधी ने अपने सिर ले लिया, तो दूसरे ही रोज उस स्कूल के प्रिंसिपल ने उन्हें पत्र लिख कर चेताया कि अगर उन्होंने मेरे इस बचकाने निर्णय को तवज्जो दी तो यह एक भयानक गलती होगी और इससे मेरा भविष्य बरबाद हो जाएगा। यह पत्र पाने के बाद गांधी ने इस विषय पर उनकी मौजूदगी में चर्चा करने के लिए प्रिंसिपल को और मुझे सेवाग्राम बुलाया। स्कूल के प्रिंसिपल, और कोई नहीं, श्री ई. डब्ल्यू आर्यनायकम थे जो बरसों शांतिनिकेतन में टैगोर के साथ काम कर चुके थे और शिक्षण में ऊंची योग्यता रखते थे। जब गांधी ने टहलने के समय हम दोनों को चर्चा के लिए बुलाया, मैंने फोरन रुख बदला और कहा, ‘‘बापू, मेरे लिए इन विद्वान व्यक्ति के साथ तर्क-वितर्क कर पाना असंभव है, लेकिन उनके स्कूल में न जाने का मेरा निर्णय पक्का है।” गांधी मेरे कान के करीब आकर धीमे से बोले, ‘‘तुम क्यों फिक्र करते हो, मैं तुम्हारा पैरवीकार हूं! ’’ दो या तीन दिन गांधी के टहलने के समय यह संवाद चलता रहा। प्राय: गांधी और आर्यनायकम ही बोलते थे, जबकि मैं गौर से सुनता था। इस सारी बहस का सीधा-सा परिणाम यह निकला कि मुझे फिर से नियमित स्कूल भेजने के बजाय, गांधी ने आर्यनायकम को इस बात के लिए मना लिया कि वे स्कूल छोड़ दें और अपना समय उस तरह का शिक्षण-कार्य आरंभ करने तथा विकसित करने में लगाएं जैसा गांधी जी देश के लिए चाहते थे। इस प्रकार आर्यनायकम और उनकी पत्नी आशा देवी ‘नई तालीम’ के अग्रदूत बन गए और दोनों ने अपना शेष जीवन इसी काम में लगा दिया।
हालांकि मेरी पढ़ाई बेसिक शिक्षा स्कूल में भी नहीं हुई, जिसे नायकम दंपति ने सेवाग्राम में शुरू किया। मेरी शिक्षा गांधी के सचिव-मंडल का हिस्सा बन कर उनके दफ्तर का काम करते हुए हुई। गांधी के सचिव के नाते मेरे पिताजी पर काम का काफी बोझ रहता था, अब मेरे शिक्षक की जिम्मेदारी निभाने का भार भी उन पर आ पड़ा। इस नए उत्तरदायित्व को भी उन्होंने उसी उत्साह से स्वीकार किया जो वे गांधी के सब कामों के प्रति दिखाते थे। अपनी एकमात्र संतान के प्रति उनके स्नेह के कारण यह काम उनके लिए कहीं आसान रहा होगा, पर यह उनके लिए एक अतिरिक्त जिम्मेदारी की तरह था। जल्दी ही मैं टाइपिंग सीख गया और पत्रों व लेखों को टाइप करके पिताजी की मदद करने लगा। वहां दूसरे भी कई काम थे। ये छोटे-छोटे काम मेरे व्यक्तित्व-विकास में सहायक साबित हुए। इन्होंने मुझे सटीकपन, नियमितता और अध्यवसाय का पाठ पढ़ाया तथा मुझमें जिम्मेदारी का भाव विकसित किया। दरअसल, गांधी के साथ रहना अपने आप में शिक्षा थी।
मेरी शिक्षा का भार गांधी के अपने सिर लेने के सप्ताह भर के भीतर एक ऐसा काम आ गया जिससे वर्धा से मद्रास जाना था। मेरे पिताजी नहीं चाहते थे कि मेरी यात्रा पर सार्वजनिक कोष का पैसा खर्च हो। उन्हें अगले ही हफ्ते वर्धा लौटना था। पिताजी मुझे वहीं छोड़ जाने और हफ्ते भर का काम देने को सोच रहे थे। मगर गांधी अड़ गए। ‘‘हमारे पास ढेरों मौके होंगे, पर अगर हमें ही बाबला को प्रशिक्षित करना है, तो उसे भी हमारे साथ चलना होगा। ’’ इससे मेरा भाग्य तय हो गया। एक अद्वितीय अवसर प्राप्त हुआ- अगले सात साल तक गांधी के पास रहने का, अपने पिता के पास भी, जो एक निष्णात शिक्षक थे। सारे देश में घूमना, हर तरह के लोगों से मिलना, राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर पेचीदा बहसों को सुनना तथा उन दिनों के ज्वलंत मसलों पर लेखों व पत्रों को टाइप करना- शैक्षिक अनुभव का एक विशाल क्षेत्र था। इसके अलावा, जब हम आश्रम में होते, मैं आश्रम में रहने वाले कई लोगों से कुछ न कुछ सीखता रहता था, उन लोगों से भी, जो वहां मेहमान के तौर पर आते और कुछ दिन ठहरते थे। इस तरह देश के कई आला दिमागों से मुझे कुछ न कुछ सीखने का मौका मिला।
टहलने के समय गांधी की ‘छड़ी’ की तरह साथ रहने से मुझे तरह-तरह के लोगों से उनकी बातचीत सुनने का मौका मिला। मैंने देखा कि वे जिस तरह जटिल से जटिल प्रश्नों पर फौरन जवाब देते थे, जान खाने वाले लोगों से विनम्रता व दृढ़ता से पिंड छुड़ाते थे। कभी वे तीखा मजाक भी करते, पर बगैर किसी का दिल दुखाए। और बातचीत में दूसरे की समस्याओं के प्रति वे हमेशा संजीदा होते। पर ऐसे भी मौके होते जब हम बच्चों के लिए उन्हें समय निकालना पड़ता, और तब वे हमारे प्रश्नों के जवाब देते। पहले वे सप्ताह में एक बार हमें समय देने के लिए राजी हुए और इसके लिए सोमवार का दिन सुझाया। लेकिन हम इस मजाक को ताड़ गए और इसके लिए तैयार नहीं हुए कि उनके मौन का दिन हमारा दिन मुकर्रर हो! लिहाजा, कई मंगलवार तक, टहलने के लिए उनके निकलने से पहले हम प्रश्नों के साथ हाजिर रहते। यह तब तक जारी रहा, जब कोई महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय जिम्मेदारी उन्हें सेवाग्राम से दूर ले गई। और मैं पीछे रह गया, खादी, हाथ-कताई तथा हाथ-बुनाई में दक्षता प्राप्त करने के लिए।
खादी की बात करते हुए, दो घटनाएं याद आ रही हैं। जब गांधी चरखे के विभिन्न मॉडल के साथ प्रयोग कर रहे थे, उन्होंने खादी विद्यालय के बच्चों से उन्हें कताई के लिए नई पूनी लाने को कहा। हमें लगा कि पूनी बनाने में अपनी प्रतिभा उन्हें दिखाने का यह अच्छा अवसर है। ऐसे प्रसंग हमें उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट करने का मौका भी मुहैया कराते थे। मुझे याद है कि कई बार मैं उनकी प्रशंसा में छोटी-छोटी कविताएं लिखा करता और उन पूनियों के बंडल के भीतर रख देता, जो हम उन्हें पेश करते थे। हमने यह पूछने की जरूरत कभी नहीं समझी कि वे कविताएं उनकी नजर से गुजरीं या नहीं। अर्पण में ही अपार आनंद था।
दूसरी घटना थी, जब मैंने उनकी आदेश मानने से इनकार कर दिया। जब खादी में मेरी महारत की तारीफ उनके कानों तक पहुंची, उन्होंने मुझे बुलाया और एक अप्रत्याशित प्रस्ताव रखा। गांधी के पास अफगानिस्तान से एक अनुरोध आया था कि खादी का काम सिखाने के लिए किसी को भेजिए। गांधी चाहते थे कि मैं प्रशिक्षक के तौर पर वहां जाऊं। मैंने उनसे निवेदन किया कि इस पर सोचने के लिए मुझे एक दिन का वक्त दें। दूसरे दिन मैंने प्रस्ताव ठुकरा दिया। गांधी ऐसा प्रस्ताव स्वीकार न करने का कारण जानना चाहते थे। तब मैं तरुणाई की दहलीज पर था। देश से बाहर जाने का मौका सारे तरुणों के लिए एक दुर्लभ मौका समझा जाता था। फिर गांधी के प्रतिनिधि के तौर पर जाना वास्तव में एक विशेष सम्मान की बात थी। पर यही वह कारण था जिससे मैंने प्रस्ताव ठुकरा दिया। ‘‘यह बहुत आकर्षक प्रस्ताव है, बापू, मैं खुद को ऐसे आकर्षण से दूर रखना चाहता हूं।’’ मुझे अचरज हुआ, गांधी ने फिर कोई तर्क नहीं किया। सिर्फ इतना बोले: ‘‘यह एक नैतिक कारण है। अगर तुमने कोई और तर्क दिया होता तो मैं तुम्हारे साथ सख्ती से बहस करता।’’ मुझे मालूम नहीं कि मेरे इनकार करने के बाद वह काम किसे सौंपा गया।
गांधी दूसरों से काम लेना जानते थे। जब किसी को कोई नया काम सौंपा जाता, वे ज्यादा सतर्क रहते, नजर रखते और इम्तहान भी लेते। एक दिन आभा गांधी को कुछ मित्रों से मिलने वर्धा जाना था। गांधी के भोजन कर चुकने के बाद उनके नकली दांत (डेंचर) साफ करने की ड्यूटी आभा की थी। चूंकि दोपहर के भोजन के बाद वह वहां मौजूद रहने वाली नहीं थीं, उन्होंने वह काम मुझे कर देने को कहा। मैं फौरन तैयार हो गया। और यह सोच कर कि गांधी जानेंगे कि यह मैंने किया, मैंने डेंचर साफ करने में अतिरिक्त सावधानी बरती। गांधी के अगली बार के भोजन से वह एक पानी-भरे कटोरे में रखा था। हालांकि गांधी मौलाना आजाद के साथ बातचीत में व्यस्त थे, उन्होंने ठीक भोजन के समय घड़ी पर निगाह डाली। उन्हें भी उस दिन आभा की गौर मौजूदगी का पता था। डेंचर को मुंह में लगाने से पहले, गांधी ने उस पर हर तरफ से सावधानी भरी नजर डाली और निश्चय ही उस पर कुछ गंदगी उन्होंने खोज निकाली। उन्होंने फौरन मुझे तलब किया और मुझे दूसरों द्वारा सौंपे गए काम को करते समय अधिक सावधानी बरतने की नसीहत दी। उस घटना को साठ साल हो गए, पर मुझे वह झिड़की अब भी याद है!
एक अन्य अवसर पर, एक दूसरे संदर्भ में मुझे उनकी फटकार सुननी पड़ी थी। गांधी ने एक पत्र का मजमून तैयार करने को कहा था। मेरा खयाल था कि मैंने अच्छा मजमून तैयार किया है। गांधी ने पत्र को शुरू से अंत तक पढ़ा और पत्र कैसे लिखे जाने चाहिए इस बारे में पूरा एक पाठ ही पढ़ा डाला, जो कि सत्य का भी पाठ था। उन्होंने कहा ‘‘यह अच्छी बात है कि तुम्हारी भाषा दूसरों के प्रति आदरपूर्ण हो, लेकिन आदर प्रकट करने में खुशामद क्यों की जाए?’’ इस वाकये ने मुझे प्रशंसा और खुशामद के बीच के बारीक फर्क पर सोचने को विवश किया।
मुझे शिक्षित करने का गांधी का तरीका केवल वैयक्तिक स्तर पर नहीं था। गांधी के साथ होने का मतलब था कि देश में उनके नेतृत्व में होने वाले अहिंसक आंदोलनों की रोज-रोज की घटनाओं की सीधी जानकारी प्राप्त करना, उनमें शामिल होना और उन्हें जानना-समझना। यह एक महान उद्देश्य के लिए साहस, बलिदान और समर्पण का माहौल था जिसने मेरी शिक्षा काम किया। यह समुद्री सैरगाह पर हवा के ताजा झोंके जैसा था। जब आप देखें कि खूफिया सेवा के लोग आपके घर के चारों तरफ भेद लेने के लिए चक्कर काट रहे हों और आपके माता-पिता उनकी मौजूदगी की बिना फिक्र किए अपना काम लगातार जारी रखें, जब पुलिस की गाड़ी आपके पिता को आए दिन अदालत या जेल ले जाए, जब आप आश्रम की महिलाओं पर पुलिस के बेरहमी से लाठियां बरसाए जाने के किस्से सुनें और कोई महिला मुस्कराते हुए बताए कि उसने कैसे अपने माथे पर लाठी का वार झेला, तो आपको देशभक्ति पर किसी का भाषण सुनने की जरूरत नहीं रहती। आचरण का एक अंश ढेर सारे प्रचार से ज्यादा असरकारी होता है।
परिवार में, आसपास की संस्थाओं और आश्रमों में रचनात्मक काम भी होता था, जो कि अहिंसा के प्रशिक्षण की एक आवश्यक प्रवृत्ति बन गया था। जहां कताई आपके दैनिक जीवन का नियमित और पवित्र अंग हो, जब बुनाई, बढ़ई का काम, चमड़े का काम, गायों की देखभाल आदि देखते आप बड़े हों, तो रचनात्मक कार्यक्रम की शिक्षा अपने आप और चुपचाप आपको मिल जाती है।
और जहां हिंदू-मुसलिम एकता की खातिर या छुआछूत के खिलाफ गांधी के उपवासों का उत्साह से स्वागत किया जाता हो, हालांकि तब आश्रम के बड़े-बुजुर्ग कुछ चिंतित भी रहते थे, वहां बिना किसी के बताए आप समझ जाते हैं कि एक कष्ट के सकारात्मक मूल्य में रूपांतरित होने का क्या अर्थ है।
लोक शिक्षा के इस कार्यक्रम में मैं अक्ला व्यक्ति नहीं था जिसने यह पाठ पढ़ा। यह राष्ट्रीय लोकाचार और सामुदायिक सीख का हिस्सा था, एक ऐसा वातावरण जो परीक्षाएं पास करने या किसी प्रतियोगिता में पुरस्कार जीतने से कहीं अधिक रोमांचकारी था।
अपनी शिक्षा की कहानी पूरी करने से पहले मैं एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा जो कुछ साल पहले घटी थी। गांधी अपनी आखिरी कैद से रिहा होने के बाद मलेरिया से पीड़ित थे। उन्होंने प्य़ारेलाल को मुझे बुलाने को कहा। पूना से हम पंचगनी गए जहां गांधी स्वास्थ्य-लाभ कर रहे थे। पंचगनी में उन्होंने मुझे अखबारों के निशान लगे हुए अंश रोजाना पढ़कर सुनाने को कहा, ताकि वे देश की ताजा घटनाओं से अवगत रहें। खासकर वह एक घंटे का समय ऐसा था जब मैं नियमित रूप से गांधी क साथ होता था। गांधी अपने चरखे से सूत कातते रहते और मैं प्यारेलाल द्वारा निशान लगाए हुए अंश पढ़कर सुनाता रहता। सर सर्वेपल्ली राधाकृष्णन पंचगनी में गांधी से मिलने आए। उन्होंने गांधी से बातचीत के दौरान मेरी शिक्षा को लेकर चिंता जताई। आखिर मैं उनके मित्र का बेटा था। वे उन दिनों बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के कुलपति थे। उनका खयाल था कि मैं गांधी के सचिवालय में रहकर अपना वक्त बरबाद कर रहा हूं, और उनके विश्वविद्यालय में शिक्षा हासिल करके अपना काम बहुत बेहतर कर सकता हूं। वे मुझसे पहले ही इस विषय में बात कर चुके थे और मेरे इनकार करने के बाद जब वे बनारस चले गए, मैंने गांधी से उनकी चर्चा की थी। दूसरे दिन दोपहर बाद जब मैं गांधी के चरखे के सामने अखबारों के साथ बैठा था, वे मुझसे बोले, “आज वाचन नहीं होगा। हम इस एक घंटे में तुम्हारे भविष्य को लेकर बात करेंगे। राधाकृष्णन ने तुम्हारे विषय में मुझसे बात की है। अब जबकि तुमने विश्वविद्यालय जाने से मना कर दिया है, तुम्हारे दिमाग में स्पष्ट होना चाहिए कि तुम भविष्य में क्या करना चाहते हो।” मैंने कहा कि उस पर बात करने के लिए मुझे पूरे एक घंटे की जरूरत नहीं है, बस पांच मिनट काफी होगा। उन्होंने यह स्वीकार कर लिया और मैं उन्हें अखबारों के चिह्नित अंश पढ़कर सुनाने लगा। घंटा पूरा होने से ठीक पांच मिनट पहले उन्होंने मुझे रोक दिया और यह बताने को कहा कि मैं भविष्य में क्या बनना चाहता हूं। “जब तुमने राधाकृष्णन का प्रस्ताव ठुकराने का फैसला किया तो तुम्हारे दिमाग में स्पष्ट होना चाहिए कि तुम क्या करना चाहते हो।”
मैं क्या बनना चाहूंगा यह मैंने एक-दो वाक्य में ही बता दिया। मैंने कहा, “मैं देखता हूं कि आपके शिष्य या तो राजनेता हैं या रचनात्मक कार्यकर्ता। मैं दोनों के बीच पुल का काम करना चाहता हूं।” उस जरा-से वक्त में भी, जो उन्होंने इस विषय पर बात करने के लिए मुकर्रर किया था, वे मेरी सराहना करने से नहीं चूके। “मुझे खुशी है कि तुमने घंटे भर का वक्त नहीं लिया, जो मैंने तुम्हारे लिए तय किया था। अभी तुम्हें जो कहना था वह तुमने संक्षेप में और साफ-साफ कह दिया है। यह एक अच्छा लक्ष्य है तो तुमने अपने लिए तय किया है। मैं तुम्हें बताऊंगा कि उसके लिए तुम्हें क्या करना चाहिए। पहली बात यह कि कताई और बुनाई में महारत हासिल करो। और दूसरी बात यह कि भारत की सारी भाषाएं सीखो। ये दो चीजें राजनेताओं तथा रचनात्मक कार्यकर्ताओं के बीच पुल का निर्माण करेंगी।”
गांधी ने मेरे जीवन-भर का पाठ्यक्रम निर्धारित कर दिया, महज दो वाक्य में!
‘सत्संगति’ शब्द का गहन अर्थ है। कवियों ने सत्संगति की महिमा गाने में कोई कसर नहीं रखी है। अगर किसी को पर्याप्त सत्सगंति मिले तो उसे नैतिकता के किसी औपचारिक सिखावन की जरूरत नहीं रहती। सबसे अच्छी नैतिक शिक्षा वही है जो आपको बड़ों, शिक्षकों और ऊंचे चरित्र वाले अन्य व्यक्तियों के साक्षात उदाहरण से मिलती है। जब मैं युवा था, गांधी और उनके साथियों के सान्निध्य में रहा, जो जाहिर है, बड़े सौभाग्य की बात थी।
अंग्रेजी से अनुवाद : राजेंद्र राजन