स्त्री होने का दुख–सुख

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— आनंद कुमार —

खामोशी तोड़ते वे दिन अत्यंत मार्मिक आत्मकथा है वाणी मंजरी दास की। इसके हर पृष्ठ पर स्त्री-स्वर की उपस्थिति है और इसमें हमारे समय के विविध आयामों का सूत्रवत जीवंत वर्णन है। स्त्री/पुरुष; गाँव/शहर; जाति/व्यक्ति; विवाह/नवयुवती; संयुक्त परिवार/अकेली औरत; बचपन/वयस्क जीवन; शादी/संतान से लेकर स्थायी नौकरी/अपनी छतसाइकिल/मोबाइल फोन; और दुर्योग/संयोग का सहजता से सूक्ष्म चित्रण है। संगीत साधना/समाजवादी आन्दोलन; ओड़िशा/महाराष्ट्र और आदर्श समाजवादी/असभ्य समाजवादी का भीजिया हुआस्मरण किया गया है।

खामोशी तोड़ते वे दिनके शुरुआती पृष्ठों में सबसे पहले एक सामान्य संयुक्त ग्रामीण परिवार में लड़की के रूप में जनमने के दुखों का साक्षात्कार होता है –जब मेरा जन्म हुआ था, तब घर में कोई ख़ुशी नहीं मनाई गयी.’..’मैं जब दस की उम्र की हुई तो मेरी शादी की तैयारी होने लगी.’.. ‘मेरे ननिहाल के लोग यानी नाना-मामा अच्छे लोग थे।’... एक मामा नंदकिशोर दास वकील और कांग्रेस के नेता थे। ओड़िशा विधानसभा के अध्यक्ष भी हुए थे।

वाणी मंजरी दास

इसके बादअपशकुनशीर्षक मार्मिक अध्याय से कुल 10 बरस की  वाणी के जीवन पर अनायास अँधेरा फैलने का वर्णन है। शादी के किसी रिवाज में एक वेदी बनायी गयी और बड़ी मान से उसपर कुछ रख गिर गयी। यहअपशकुनथा और इससे शादी टूट गयी।चारों तरफ हल्ला हो चला कि अपशकुन हो गया। ये लड़की (यानी मैं) अपशकुन हूँ। अब मेरी शादी नहीं हो सकती। ऐसी अपशकुनी लड़की से भला कौन शादी करेगा!..पूरे गाँव में मेरे अपशकुन होने के साथ और तरह-तरह की बातें होने लगीं।…सब लोग मुझको कोसने लगे।’…(पृष्ठ 31). इसी बीच एक बुआ ने एक दुकान में सेल्स गर्ल का काम दिलवा दिया।दुकान में पीड़ा देनेवाला अनुभव हुआ। दुकान का मालिक बहुत खराब आदमी था। वह लड़कियों को बुरी नजर से देखता था और गंदा व्यवहार भी करता था…’ (पृष्ठ 38). स्थानीय विधायक कांग्रेस के थे जिन्होंने वाणी के परिवार को यहाँ तक सलाह दे दी किवे मुझे बेच दें और वेश्या बना दें। यह लड़की यहाँ रहेगी, तो दूसरी लड़कियाँ प्रभावित होंगी…उस जमाने में मदिरों में कमउम्र की लड़कियों को रखवा देना या बेच देना कोई नयी बात नहीं थी।’… (पृष्ठ 40)

कुछ अद्भुत संयोग

इन अँधेरों में प्रताड़ित होने के बावजूद वाणी जी को 1965-75 के दस बरसों में कुछ अप्रत्याशित संयोगों के कारण एक आत्मविश्वासी शिक्षित संगीत निपुण युवती के रूप में संसार में जगह बनाने के सुखों का आनंद मिलता है।जब प्रतियोगिता खत्म हो गयी तो मैं ओड़िशा में अव्वल घोषित की गयी…आठ दिनों के अंदर मुझे छात्रवृत्ति का पत्र मिल गया…गाना सीखने के लिए मैं पहले बनारस (वाराणसी) गयी। मुझे वहाँ की आबोहवा अच्छी नहीं लगी। उसके बाद इलाहाबाद (प्रयाग) गयी। वह भी नहीं जँचा। महाराष्ट्र का शहर पुणे जँच गया… वहाँ मैं गाना सीखने के लिए प्रसिद्ध पंडित विनायक राव पटवर्धन के पास गयी… भुवनेश्वर में हुई प्रतियोगिता में अव्वल आने की वजह से ओड़िशा सरकार की ओर से हर महीने 75 रुपये बतौर वजीफा (स्कालरशिप) मिलने लगे थे… ’ (पृष्ठ 46-49).

पुणे में ही समाजवादियों का सत्संग मिला। अंतर-भारती और साधना पत्रिका से जुड़ीं। यदुनाथ थत्ते से परिचय हुआ।वे एक अत्यंत कर्मठ और सबका भला करनेवाले पुरुष थे…साधना कार्यालय में मुझे समाजवादी नेताओं को नजदीक से देखने का भरपूर मौका मिला और मैं उनसे बहुत प्रभावित हुई। मेरी समाजवादी समझ बनने लगी थी… (पृष्ठ 51-53).

किशन पटनायक की जीवनसंगिनी

वाणी जी ने एक यशस्वी समाजवादी महानायक के साथकिसी की परवाह न करनेवालीएक आत्मविश्वासी नवयुवती के विवाह कीरचनाका मनोरंजक वर्णन किया है। इसमें बालासोर में बचपन, सोरों के गांधी आश्रम में तरुणाई, कटक में संगीत शिक्षा में लीन लड़की और पुणे में वयस्क जीवन में एकाकी प्रवेश के बाद की स्मृतियाँ हैं (पृष्ठ  56-72)। अपने से बीस बरस बड़े एक यशस्वी समाजवादी नेता के साथ अनूठी चिट्ठी-पत्री से बनी निकटता का विस्तार से ज़िक्र है (पृष्ठ 82-87)। वाणी जी गंभीर अस्वस्थता के दौरान किशन जी की आत्मीयता और सेवा से चकित हुईं (पृष्ठ 90-91)। फिर अविश्वसनीय तरीके से विवाह किया (पृष्ठ 95-96)।

विवाह के बाद 35 बरस के उथल-पुथल भरे सहजीवन की कथा में इस आत्मकथा की आत्मा का निवास है।

किशन जी एक अंतर्मुखी चिन्तक और नायक थे। यह आत्मकथा वाणी जी के जीवन संसार के दिलचस्प पहलुओं के साथ ही किशन जी के भी व्यक्तित्व की पारदर्शिता, मन की मजबूती और हृदय की कोमलता का अनेक प्रसंगों के जरिये परिचय कराती है। इसके लिए इस किताब में पृष्ठ 73 से 117 के बीच 17 छोटे-छोटे सरस अध्याय बनाए गए हैं।

किशन पटनायक का देहावसान

इसके आगे किशन जी की अंतिम अस्वस्थता और महाप्रस्थान का विवरण (पृष्ठ 118 से 126) और अंत में दिए गए आत्ममूल्यांकन (संगीत ही शक्ति-सहाराऔरअब आखिर’) को पढ़ने के लिए बहुत कठोर मन चाहिए। किशन जी के देहांत के बाद विधवा जीवन की त्रासदियों का व्यथित करनेवाला अन्तरंग चित्रण भी है।

यह सांत्वना की बात जरूर है कि इस किताब के अंतिम हिस्से के पाँच अध्यायों (पृष्ठ 129-142) में किशन जी के विचारों के प्रचार-प्रसार से जुड़े प्रयासों और उपलब्धियों की चर्चा है। इससे इस किताब का पाठ पूरा होते-होते फिर से सकारात्मक सक्रियता का भाव जरूर उभरता है।

आत्मीयजनों का बार-बार स्मरण

इस आत्मकथा में वाणी मंजरी दास ने अपनत्व देनेवालों का बड़े उल्लास के साथ स्मरण किया है : समाजवादी साहित्यकार अशोक सेकसरिया। समाजसेवी सीताराम सेकसरिया। संगीत शिक्षक  बालकृष्ण दास। संगीतज्ञ पंडित विनायक राव पटवर्धन। लोहियावादी केलकर दंपती। राष्ट्रसेवा दल नायक यदुनाथ थत्ते। मराठी फिल्म निर्देशक राम कदम। फिल्मकार वसंत माने। ओड़िया समाजसेवी क्षेत्रमणी बारिक। समाजवादी सांसद अर्जुन सिंह भदौरिया। शिक्षिका कुसुम दास। वरिष्ठ समाजवादी प्रो. रमा मित्र। क्रांतिकारी स्वतंत्रतासेनानी  दिनेश दासगुप्ता। वरिष्ठ समाजवादी सुरेन्द्र मोहन। केन्द्रीय शिक्षामंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी। समाजवादी जन परिषद के सुनील-स्मिता। समाजवादी सहयोगी शिवानन्द तिवारी। पत्रकार गंगाप्रसाद। साहित्यकार प्रेमकुमार मणि। समाजवादी सहयोगी डा. करुणा झा-चंद्रभूषण चौधरी। राजनीतिक शिष्य  अच्युतानंद किशोरनवीन प्रो. योगेन्द्र यादव।

हमें इस किताब के पृष्ठों में एक ऐसी आत्म-चैतन्य स्त्री का परिचय मिलता है जिसका आरंभिक जीवनअपशकुन’, अभाव और अपमानों की निरंतरता की कहानी जैसा था। लेकिन उसके स्वर को संयोगवश मिले पुरस्कार ने जीवन की दिशा ही बदल दी (पृष्ठ 44-47)। वह कुछ पारखी व्यक्तियों की मदद और अपने संकल्प से पुणे में रहकर संगीत में निपुण हुई (पृष्ठ 48-50)। समाजवादी संगत में मराठी सीखकर फिल्म संसार में भी प्रवेश पा गयीं (पृष्ठ 56-71)।  फिर एक यात्रा में परिचित बने एक सज्जन व्यक्ति के सौजन्य से हताशा पैदा करनेवाली  प्रतिकूलताओं के बीच किशन पटनायक जैसे नर-नारी समता समर्थक व्यक्ति का पारस-स्पर्श मिला। दूसरे शब्दों में, वाणी मंजरी दास आत्म-विश्वास और आत्मनिर्भरता की नींव पर बनाए गए जीवन का एक अविश्वसनीय उदाहरण हैं। आज भी उनका राष्ट्रसेवा दल और समाजवादी जन परिषद से जीवंत सम्बन्ध है। उनकी दिनचर्या और सार्वजनिक ज़िन्दगी में संगीत की मुख्य भूमिका है। वह अपनी रोमांचक जीवन कथा के अपरिहार्य समापन के प्रति सजग हैं और अपने एकमात्र आवास को बेसहारा वृद्धों के आश्रम के रूप में देना चाहती हैं।

पहली स्त्री-केन्द्रित समाजवादी आत्मकथा 

यह विचित्र तथ्य है कि समाजवादियों के बीच हिंदी में बहुत  जीवनियाँ नहीं उपलब्ध रही हैं। आत्मकथाओं का तो पूरा अभाव है। ऐसी दशा में वाणी मंजरी दास कीख़ामोशी तोड़ते वे दिनका चौतरफा स्वागत होगा क्योंकि यह एक स्त्री-केन्द्रित आत्मकथा है और इसमें समाजवादियों की निजी जिन्दगी की लगभग अनजानी दुनिया के दुख-सुख का प्रामाणिक वर्णन है। लेकिन एक असाधारण जीवनयात्रा की संध्यावेला में उनका इस किताब में लिखा गया आत्म-मूल्यांकन डा. लोहिया और किशन पटनायक को जाननेवालों के लिए चौंकानेवाला है : क्या खोया, क्या पाया, इस बारे में सोचती हूँ तो सोचती रह जाती हूँ। थक जाती हूँ. किसी नतीजे पर नहीं पहुंचती। लगता है न कुछ खोया, न कुछ पाया। लेकिन कभी यह लगता है कि पाया कुछ और खोया बहुत. खोया ही खोया और पाया कहाँ कुछ.’……..

यह एक महत्त्वपूर्ण समाजवादी जोड़े की लम्बी ज़िन्दगी के बारे में महज 150 पृष्ठों की एक
  छोटी सी किताब है। लेकिन स्त्री-दृष्टि से प्रस्तुत इस कथा में अनेकों मासूम सच, सहज  सवाल और गहरे निष्कर्ष हैं। इसीलिए इस किताब को पढ़ने के बाद वाणी जी के बारे में एक साथ अपनत्व, जिज्ञासा, सहानुभूति और सम्मान समेत बहुत सारे भाव उमड़ते हैं :वाणी जी, आपने और किशन जी ने ऐसा जीवन कैसे जिया?’….

खामोशी तोड़ते वे दिन (आत्मकथा) – वाणी मंजरी दास; संपादन – गंगा प्रसाद;  सूत्रधार प्रकाशन, कांचरापाड़ा, उत्तर 24 परगना (प. बंगाल)मूल्य- 200 रु।

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