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क्या मैं अर्बन नक्सल हूँ ? – प्रभाकर सिन्हा

by Rajendra Rajan
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न 1981 से 1991 तक मैं बिहार में तथा 1988 से 2016 तक राष्ट्रीय स्तर पर पीयूसीएल का पदाधिकारी रहा हूँ। वास्तव में मैं पीयूसीएल के स्थापना काल से ही इससे जुड़ गया था। 1981 से बिहार पीयूसीएल का उपाध्यक्ष रहा, 1988 से 1991 तक अध्यक्ष रहा, 1990 से 2009 तक राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहा और 2009 से 2016 तक तीन बार अध्यक्ष रहा।

आपातकाल के समय इसकी स्थापना लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने नागरिक अधिकारों के संरक्षण के लिए की थी। इसका सदस्य कोई भी वयस्क व्यक्ति बन सकता है। बस उसका विश्वास इस बात में होना चाहिए कि भारत में नागरिक अधिकार अभी और आगे भी बने रहने चाहिए, चाहे देश में कैसा भी आर्थिक या राजनीतिक परिवर्तन आए। प्रत्येक सदस्य को इस घोषणा पर शपथपूर्वक हस्ताक्षर करना पड़ता है कि वह पीयूसएल के लक्ष्य और उद्देश्य को हासिल करने के लिए उसके संविधान से बँधा रहेगा। पीयूसीएल के लक्ष्यों और उद्देश्यों से राजनीतिक विचारधारा को अलग रखा गया है और इसके दायरे को नागरिक अधिकारों तक सीमित किया गया है। इस कारण नागरिक अधिकारों के प्रति समर्पित विभिन्न राजनीतिक विचारधारा वाले लोगों का जुड़ना संभव हुआ और यह संगठन भारत में नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाला शक्तिशाली अगुआ संगठन बन गया। सबसे बड़ी बात यह है कि पीयूसीएल शांतिपूर्ण उपायों के प्रयोग के लिए प्रतिबद्ध है और राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए हिंसा को स्वीकार नहीं करता है। पीयूसीएल 1981 से ही एक मासिक बुलेटिन का प्रकाशन कर रहा है। नक्सली हिंसा समेत सभी प्रकार की हिंसा का विरोध इसके अंकों में देखा जा सकता है।

बिहार पीयूसीएल में सीपीआई (एमएल) सहित विभिन्न राजनीतिक दलों के लोग सदस्य रहे हैं। बिहार के सबसे बड़े नेता कर्पूरी ठाकुर अंतिम साँस तक इसकी कार्यकारी समिति के सदस्य रहे। वर्तमान कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद 1987 तक इसके सचिवों में से एक थे और  1988 में उन्हें सर्वसम्मति से महासचिव बनाया गया। भाजपा में जाने के बाद उन्होंने इस पद को छोड़ा, क्योंकि किसी राजनीतिक दल का सदस्य इस संगठन का पदाधिकारी नहीं बन सकता। पीयूसीएल नक्सल सहित सभी के मानवाधिकारों के लिए खड़ा रहता है। यह मानवाधिकारों के उल्लंघन की जाँच के लिए प्रतिबद्ध है, यहाँ तक कि राज्येतर संगठनों जैसे जातिगत सेनाओं और नक्सल द्वारा किए जा रहे मानवाधिकारों का उल्लंघन भी इसकी जाँच के दायरे में आता है। जब हम नक्सल संगठनों द्वारा किए गए मानवाधिकारों की जाँच करते हैं तब उस समिति में ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं रखते, जो उनसे सहानुभूति रखते हैं।

पीयूसीएल का नियम है कि किसी विवाद के तथ्यों की जाँच करनेवाली समिति में किसी ऐसे व्यक्ति को न रखा जाए जो किसी पक्ष से जुड़ा हो या किसी पक्ष के प्रति सहानुभूति रखता हो। मैं और रविशंकर प्रसाद कई बार ऐसी समिति में एकसाथ रहे हैं, जिसने नक्सलियों के प्रति की गई नृशंसता की जाँच की है। पीयूसीएल हर उत्पीड़ित का साथ देता है, चाहे उसका उत्पीड़न पुलिस ने किया हो या नक्सली ने, चाहे जमींदार ने किया हो या फिर पुलिस ने नक्सलियों एवं उनके अनुयायियों के प्रति किया हो।

बिहार में 1970 के शुरू से ही नक्सल गतिविधियां रही हैं। जयप्रकाश नारायण ने नक्सलवादियों की सघन सक्रियता वाले क्षेत्र मुसहरी और मुजफ्फरपुर में कई साल बिताए। वे उत्पीड़ित भी थे और उत्पीड़क भी। जब वे किसी पर अत्याचार करते तो पीयूसीएल उनके खिलाफ बोलता और जब उनपर अत्याचार किया जाता तो पीयूसीएल उनके समर्थन में खड़ा रहता। बिहार पीयूसीएल ने 1981 से 2006 तक की गतिविधियों के बारे में एक हजार पृष्ठों की रिपोर्ट का प्रकाशन किया है, जिसमें ये बातें विस्तार से दर्ज हैं। पीयूसीएल ने राजद और नीतीश कुमार सरकार के विरुद्ध भी रिपोर्ट प्रकाशित की है। यह संगठन इस मामले में कोई कोताही नहीं बरतता है और पूरी तरह से अपने संविधान के अनुसार कार्य करता है।

लेकिन नक्सलियों के अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध बोलने के कारण किसी सरकार ने हमें नक्सल नहीं कहा। उन्होंने नक्सलियों के मानवाधिकारों के उल्लंघन के विरोध और बंदूक के सहारे सत्ता पर कब्जा करने की उनकी राजनीति का समर्थन करने के बीच फर्क किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कठपुतली भाजपा ने भी अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने में इस फर्क को समझा था, क्योंकि वाजपेयी उस तरह संघ के विचारों के अधीन नहीं थे, जिस तरह मोदी हैं। हालाँकि उत्पीड़न उनके समय में भी हुए थे। सही बात तो यह है कि सभी सरकारों द्वारा नक्सलियों के समर्थन के झूठे मामले में निर्दोष लोगों को फँसाया गया, लेकिन पूरे मानवाधिकार आंदोलन पर नक्सली होने का ठप्पा मोदी ने ही लगाया। वाजपेयी की तुलना में मोदी शत-प्रतिशत संघ की उपज हैं, जो मुसोलिनी और हिटलर का प्रशंसक रहा है। उन्होंने अपना जीवन संघ के फासीवादी विचारों का प्रचार करने में बिताया है, जिसके लिए देश के नागरिकों का एक समूह अवांछित तथा बाहरी है। ये लोग असहमति को भी बर्दाश्त नहीं करते हैं। जैसे-जैसे ऐसी परियोजनाओं की संख्या बढ़ती जा रही है, जिनके लिए आदिवासियों और दूसरों की जमीन तथा जंगल कॉरपोरेट को सौंपे जा रहे हैं, असहमति और विरोध बढ़ रहा है, वैसे-वैसे इनकी असहिष्णुता भी बढ़ रही है। अब वे आदिवासियों और अन्य गरीबों को दबाना चाहते हैं और मानवाधिकार संगठनों को चुप कराना चाहते हैं, ताकि उनके उत्पीड़न के विरूद्ध कहीं से कोई आवाज न उठे।

मेरे पिछले बयालीस वर्ष के कार्यों को एक नमूने के रूप में लेते हुए सरकार को पीयूसीएल पदाधिकारी के रूप में किए गए मेरे कार्यों की जाँच करनी चाहिए और यह तय करना चाहिए कि क्या मैंने नक्सल गतिविधियों या उनके विचारों का समर्थन किया है। यदि वे यह पाते हैं कि मैं अर्बन नक्सल नहीं हूँ तो उन्हें यह झूठा प्रचार बंद करना चाहिए और यदि उन्हें लगता है कि मैं मानवाधिकार कार्यकर्ता के छद्मवेश में नक्सली हूँ तो मेरे विरूद्ध विधिसम्मत कार्रवाई की जानी चाहिए।

लेकिन मैं फिर से यह कहना चाहूँगा कि मैं मानवाधिकार के उल्लंघन के खिलाफ लड़ता रहूँगा, चाहे उसके ऊपर जो भी आरोप हों। इससे मैं अर्बन नक्सल या आतंकवादी या आतंकवादियों का समर्थक नहीं हो जाता हूँ।

जिस तरह सभी लोगों पर अर्बन नक्सल होने का ठप्पा लगाया जा रहा है, उस हिसाब से तो न्यायमूर्ति वी.एम. तारकुंडे, न्यामूर्ति राजिंदर सच्चर, प्रो. रजनी कोठारी, समाजवादी नेता सुरेंद्र मोहन, प्रो. अमरीक सिंह और अन्य बहुत से लोग अर्बन नक्सल हो जाएंगे, क्योंकि ये सभी अपने जीवन की अंतिम साँस तक पीयूसीएल से जुड़े रहे हैं। यहाँ तक कि अरुण शौरी और अरुण जेटली भी इसी दायरे में आएंगे। 1980 के नवंबर में आयोजित दिल्ली सम्मेलन में पीयूसीएल के संविधान की स्वीकृति के समय उनकी सक्रिय भूमिका थी। अरुण शौरी महासचिव तथा अरुण जेटली कार्यकारिणी समिति के सदस्य चुने गए थे।

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