Home » प्रयाग शुक्ल : कला की दुनिया के अद्भुत चितेरे

प्रयाग शुक्ल : कला की दुनिया के अद्भुत चितेरे

by Rajendra Rajan
2 comments 18 views

— सूर्यनाथ सिंह —

‘देखना’ प्रयाग जी की प्रिय क्रिया है। वे चीजों को बहुत बारीकी से देखते हैं, प्रायः मुग्ध भाव से। खासकर प्राकृतिक सौंदर्य को वे जिस सूक्ष्मता से देखते हैं, वह कई बार चकित करता है। वे मानते हैं कि अगर व्यक्ति देखना सीख जाए, तो उसके अनुभव के आयाम खुलते चले जाते हैं। उन्होंने न सिर्फ अपने देखने के अभ्यास को एक कौशल के रूप में विकसित किया है, बल्कि दूसरों को भी देखने के सूत्र देते रहते हैं। इसीलिए शायद उन्होंने कला संबंधी अपनी पहली पुस्तक का नाम रखा था- ‘देखना’। हालांकि अब उस पुस्तक को उनकी एक अन्य पुस्तक ‘आज की कला’ में समेट लिया गया है।

प्रयाग शुक्ल

प्रयाग जी के देखने को देखने का मुझे कई मौकों पर प्रत्यक्ष अनुभव है। चीजों को सरसरी तौर पर देखकर निकल जाना उनकी फितरत में नहीं है। चलते-चलते बार-बार उनके कदम रुक जाते हैं। अकसर ही उन्हें रुक कर किसी पेड़, किसी फूल, किसी स्थापत्य, किसी कलाकृति को देखते हुए उसमें डूब जाते देखा है। फिर जब उनके कदम आगे बढ़ते हैं, तो उनकी देखी हुई दुनिया भी उनके साथ चलती रहती है, बहुत देर तक, बहुत दूर तक। इसलिए यह अकारण नहीं कि पेड़ों के पत्तों का जो हरापन सामान्य देखनेवाले के लिए एक प्रचलित विशेषण की तरह जान पड़ता है, प्रयाग जी उसमें भी कई तरह का हरापन तलाश लाते हैं। हरा में कई तरह के हरे। कई बार उन्हें अपने देखे हुए के बारे में किसी बच्चे की तरह हुलसकर बताते सुना है। चित्रकला की दुनिया में वे बहुत पहले से विचरने लगे थे (उनके अनुसार, करीब तेईस साल की उम्र से), इसलिए चित्रों को देखने की उनकी नजर काफी परिपक्व है।

हालांकि देखना एक दार्शनिक, आध्यात्मिक भाव भी है। अध्यात्म में देखने की क्रिया को परिपक्व, पुष्ट, परिमार्जित करने के लिए विभिन्न साधनाएं हैं। कैसे बाहर के देखने को भीतर के देखने में परिघटित कर दिया जाए, उसके लिए कठिन अभ्यास हैं। प्रयाग जी के देखने को अगर उस ऊंचाई पर जाकर न भी देखें, तो भी उनके यहां बाहर को ढंग से देखने की व्यवस्था इसीलिए दिखाई देती है कि अंदर का जगत कुछ और विस्तृत हो सके।

प्रयाग जी मूलतः कवि हैं। पर गद्य को भी उन्होंने बखूबी साधा है। उनका गद्य उनके कवि और कला-ग्राहक की गवाही देता है। जो कुछ उन्होंने गद्य में लिखा है, उसका नब्बे फीसद से ज्यादा चित्रकला, सिनेमा-कला, संगीत, नृत्य, नाटक, साहित्य के कलात्मक पक्षों पर ही केंद्रित है। पर उनका मन सबसे अधिक ललित कलाओं में ही रमता रहा है। इसलिए यह अनायास नहीं है कि इन दिनों वे खुद भी रंग और रेखाओं से खेलने लगे हैं। पहले स्याही से बनाना शुरू किया, अब पेस्टल और जलरंगों से भी सुंदर आकृतियां उकेरने लगे हैं। कई चित्रकारों की प्रदर्शनियों की रूपरेखा अभिकल्पित (क्यूरेट) कर चुके हैं, अनेक चित्रकारों की प्रदर्शनियों के लिए पुस्तिकाएं (कैटलॉग) तैयार कर चुके हैं।

दरअसल, प्रयाग जी ललित कला की दुनिया में लंबे समय से विचरते रहे हैं। मकबूल फिदा हुसेन, रामकुमार, कृष्ण खन्ना, तैयब मेहता, नसरीन मोहम्मदी, अंबादास, स्वामीनाथन, जेराम पटेल जैसे बड़े चित्रकारों से उनकी दोस्ती उसी दौरान हो गई थी, जब वे हैदराबाद से ‘कल्पना’ का काम छोड़कर दिल्ली आए थे। फिर दिनमान और नवभारत टाइम्स, धर्मयुग जैसी उस दौर की ख्यातनाम पत्र-पत्रिकाओं में कला पर लिखते हुए उन्हें कला की विशाल दुनिया में विचरने का खूब मौका मिला। फिर तो तमाम नए-पुराने चित्रकारों, मूर्तिकारों के काम देखने, उनके कलापक्ष पर बात करने का उन्हें अवसर मिलता गया। हिंदी में शायद ललित कलाओं की समीक्षा के क्षेत्र में प्रयाग जी अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने इतने लंबे समय तक एकनिष्ठ भाव से अपने को लगाए रखा और इतना कुछ लिखा है।

यों, प्रयाग जी से मेरा परिचय तो बहुत पुराना है। उनसे प्रत्यक्ष मिलने से बहुत पहले से। उनके लिखे को पढ़ते हुए से। पर बाद के दिनों में उनके लिखे को नियमित छापने की प्रक्रिया से जुड़े रहने का सुयोग भी मिला। इसे भी अब लंबा समय हो गया। जनसत्ता में वे कलाओं पर एक नियमित पाक्षिक स्तंभ लिखा करते थे- सम्मुख। उस पन्ने की जिम्मेदारी मुझ पर थी, इसलिए प्रयाग जी की इन किताबों में जो लेख संकलित हैं, उन्हें पहले पढ़ने का सुयोग मुझे मिला। ‘दुनिया मेरे आगे’ स्तंभ में वे जो टिप्पणियां लिखते रहे हैं, उन्हें भी पढ़ने का निरंतर सुयोग मिला है। ‘दुनिया मेरे आगे’ वाली टिप्पणियों का जिक्र यहां इसलिए कर रहा हूं कि वे भी एक अलग ढंग की कला-समीक्षाएं ही हैं। अगर वे किसी पेड़, किसी दीवार की छाया, किसी फूल के रंग या पत्तियों के हरेपन, किसी दृश्य के बहाने किसी फिल्म (खासकर, सत्यजित राय की फिल्मों के दृश्य उनके भीतर बार-बार उभरते हैं) का प्रसंग छेड़ बैठते हैं, तो वह उनके कला-समीक्षक की दृष्टि का ही कमाल होता है।

अब तक प्रयाग जी की कला संबंधी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं- ‘कला की दुनिया में’, ‘स्वामीनाथन’, ‘आज की कला’ (उनकी पहली पुस्तक ‘देखना’ भी इसी में समाहित है) और ‘हेलेन गैनली की नोटबुक’। (सिनेमा पर लिखे आलेख और ‘दुनिया मेरे आगे’ वाली टिप्पणियों की पुस्तकें अलग हैं)। कला संबंधी विवेचन में न सिर्फ उन्होंने भारतीय कला पर, बल्कि पाश्चात्य कलाकारों के काम पर भी बड़े मनोयोग से लिखा है।

‘कला की दुनिया में’ पुस्तक में मुख्य रूप से पिछले चालीस-पचास सालों में लिखे उनके चित्रकला संबंधी लेख हैं। इन लेखों में आधुनिक भारतीय चित्रकला का पूरा इतिहास दर्ज है। अवदान, परख, मूल्यांकन, संवाद, विमर्श, पश्चिमी कला और कलाकार, स्मरण और विविधा शीर्षक कुल आठ खंडों में विभक्त इस किताब में ललित कला की विस्तृत दुनिया को देखने-समझने के अनेक महत्त्वपूर्ण और जरूरी सूत्र रचे गए हैं। इसमें रवींद्रनाथ, राजा रवि वर्मा, यामिनी राय, विनोद बिहारी मुखर्जी, हुसेन, रामकुमार, अंबादास, हिम्मत शाह, जेराम पटेल, अर्पिता सिंह, विकास भट्टाचार्य आदि से लेकर बिल्कुल नए नरेंद्रपाल सिंह तक उन सभी कलाकारों के अवदान पर एकाधिक टिप्पणियां हैं, जिन्होंने भारतीय कला की दुनिया को कुछ नए आयाम दिए हैं। कलाकारों के काम के अलावा कई ऐसे स्वतंत्र आलेख भी इसमें शामिल हैं, जो पूरे के पूरे किसी कला-समय या प्रवृत्ति का मूल्यांकन करते हैं।

‘आज की कला’ पुस्तक में स्थापत्य, मूर्तिशिल्प, भित्तिचित्र आदि को लेकर लिखे विमर्शात्मक लेख हैं, जिनमें भीमबैठका, अजंता आदि के चित्रों और शिल्पों पर बात की गई है। पर इसमें प्रमुख रूप से कला को देखने, समझने के सूत्र हैं, जो कला सामग्री, कला की दुनिया, कैटलॉग की सामग्री, समाज और कलाएं आदि पर चिंतनपरक लेख हैं, तो रामकुमार, यामिनी राय जैसे कलाकारों के बहाने कला की दुनिया को नए ढंग से खोलने वाली टिप्पणियां भी। इसी में उनकी पहली पुस्तक ‘देखना’ भी समाहित है, जिसके कलाओं और चीजों को देखने के सूत्र देने वाले आलेख एक अलग खंड के रूप में हैं।

स्वामीनाथन से प्रयाग जी की बहुत निकटता रही, इसलिए स्वाभाविक ही उनके काम को देखने, उन्हें जानने का उन्हें अधिक अवसर मिला। स्वामीनाथन पर इसी नाम से उनकी पुस्तक दरअसल, स्वामी की जीवनी है। इस तरह यह किताब स्वामी के व्यक्तित्व और उनके कला-जगत को विस्तार और बारीकी से जानने-समझने में मदद करती है। हेलेन गैनली से भी प्रयाग जी का संपर्क था, पर वह संपर्क उनकी बेटी वर्षिता के माध्यम से और गाढ़ा हुआ और जब गैनली की नोटबुक उनके हाथ लगी, तो उनकी कला को जानने-समझने में उन्हें कुछ अधिक मदद मिली। उसी नोटबुक को आधार बना कर गैनली की दुनिया को खोलने के प्रयास इस पुस्तक में हैं।

आमतौर पर अखबारों-पत्रिकाओं में प्रकाशित होनेवाली कला संबंधी टिप्पणियों का स्वरूप सूचना देने या किसी कला अथवा कलाकार के बारे में बुनियादी जानकारियां साझा करने, कलाकृतियों में रंग-रेखा, विषय-वस्तु आदि के स्तर पर किए गए कुछ नए प्रयोगों की तरफ संकेत कर देना भर होता है। मगर प्रयाग जी ने पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी जो टिप्पणियां लिखी हैं उनका स्वरूप विमर्शात्मक, विवेचनात्मक, विश्लेषणात्मक रहा है। वे न केवल कलाकार के रंग-रेखाओं या विषय-वस्तु के स्तर पर किए गए अभिनव प्रयोगों को महत्त्व देते या फिर उन्हें ही मुख्य रूप से रेखांकित करते हैं, बल्कि अपनी टिप्पणियों के जरिए उस कलाकार के बनने और इस तरह उसकी कला के बनने का पता भी देते चलते हैं। इस अर्थ में प्रयाग जी की कला समीक्षा (जो उनकी चारों किताबों में दर्ज है) एक कलाकार के जरिए उसके पूरे कला-समय की भी समीक्षा के रूप में हमारे सामने उपस्थित होती रही है।

किताब – 

  1. कला की दुनिया में ; अनन्य प्रकाशन, ई-17, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32, फोन नं. 011-22825606, 011-22824606; मूल्य : 1200 रु., पेपरबैक 600 रु.
  2. आज की कला ; राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 200 रु.
  3. स्वामीनाथन : एक जीवनी ; राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 199 रु.
  4. हेलेन गैनली की नोटबुक ; सूर्य प्रकाशन मंदिर, नेहरू मार्ग (दाऊजी रोड), बीकानेर (राजस्थान) ; मूल्य : 150 रु.

You may also like

2 comments

Vivek mishra June 13, 2021 - 5:42 AM

प्रयाग शुक्ल जी के कला अवदान पर एक कथाकार , संपादक श्री सूर्य नाथ सिंह जी की टिप्पणी उस पूरी प्रक्रिया पर टिप्पणी है जो एक लेखक के बीच गुजरती है जो समय समय पर संपादक के साथ साझा होती रही है । जनसत्ता के पाठक प्रयाग शुक्ल के देखे संसार और देखने की क्रिया को बराबर गुनते रहें हैं जिसका यहां बहुत गहराई के साथ चित्रण हुआ है । देख कर बात के , जीवन के तह में जाना उन पलों को पकड़ना ही रंग रेखाओं के साथ खेलने की तर है । प्रयाग जी निरंतर धरती के पल पल रंग और रूप के ग्राही और साक्षी बनकर सामने आते रहें हैं । यहां वे बहुत विनम्रता के साथ संसार को देखते हुए देखा संसार पाठक रूपी संसार को सौंप जाते हैं । मुझे यह बराबर लगता है कि प्रकृति के दाय को उन्होंने अपने जीवन संसार में इतना उतार लिया है कि फिर वह सब संसार को सौंपते रहते हैं रंग में , रूप में , कला से , निबंध और दुनिया मेरे आगे की टिप्पणी से …इस तरह एक विपुल संसार हमारे सामने उनके माध्यम से उपस्थित होता जाता है ।
विवेक कुमार मिश्र

Reply
Vijay asharma July 6, 2021 - 11:10 AM

प्रयाग जी से मेरा परिचय पहले उनके लेखन से हुआ, फिर उनसे मिलना हुआ और फिर उनकी कला देखने से. उनके कवि रूप से अभी भी बहुत परिचित नहीं हूँ. गद्य ने प्रभावित किया क्योंकि वे विषय की गहराई में जाते है, शांत व सौम्य व्यक्तित्व ने मोह लिया, कला-रेखाओं में उनकी सरलता बोलती है. उनके देखने और दिखाने की थोड़ी सी झलक देखी है. इस लेख में उनकी किताबों के एवज में उनका बड़ा सटीक आकलन हुआ है. प्रयाग शुक्ल जी से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, थोड़ा सीखने का प्रयास करती हूँ. सूर्य नाथ जी ने खूब डूब कर और प्रेम से लिखा है.

Reply

Leave a Comment

हमारे बारे में

वेब पोर्टल समता मार्ग  एक पत्रकारीय उद्यम जरूर है, पर प्रचलित या पेशेवर अर्थ में नहीं। यह राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह का प्रयास है।

फ़ीचर पोस्ट

Newsletter

Subscribe our newsletter for latest news. Let's stay updated!