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विकास ने नहीं बख्शा किसी गांव को

by Rajendra Rajan
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— प्रतापराव कदम —

मारे देश के गांवों का जिक्र होते ही प्रेमचंदफणीश्वरनाथरेणुशिवमूर्तिमहेश कटारेसुरेन्द्र वर्मामिथिलेश्वर की याद आती हैयाद आता है श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी का शिवपालगंज। आज के गांव सूचनाक्रांति के युग में काफी बदल गये हैं। इन रचनाकारों के गांवों से कतई अलहदा।

खूब चर्चा है विकास कीपर विकास के मायने क्या हैइस कथित विकास की सूर्यनाथ सिंह ने खूब पड़ताल की है, धधक धुआँ धुआँ नाम से आए अपने नए संग्रह की कुल जमा छह कहानियों की मार्फत। कहानियाँ अलग-अलग है पर गांव एक ही है पात्र, घटनाएँ, परिवेश अलग-अलग हैं पर गांव एक ही है कहने को तो यह उत्तर-प्रदेश के एक गांव की कहानी है, पर कमोबेश यह हिन्दुस्तान के किसी भी गांव की कहानी है।

संग्रह की पहली कहानी जो है सो’, इसी कथित विकास का हासिल की कहानी है कि विकास ने किसी भी गांव को नहीं बख्शा फिर वह पूर्वी और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की सीमा पर बसा नौगांव ही क्यों न हो इन कहानियों से गुजरकर यह कहा जा सकता है कि यह एक बड़े कैनवास पर उकेरे गये गांव की कहानियाँ हैं जो समग्र रूप से एक उपन्यास का खाका खींचती हैं पहले के गांव से गांव अब कहांपहले गांव अपने पैरों पर खड़े होते थेअब न जाने गांव कितनी बैखासियों पर खडे हैं।

देखेंहमारे ग्रामीण बाजार कोकृषि उपकरणों के साथ उर्वरककीटनाशक दवाओंसिंचाई की आधुनिक मशीनोंसीमेंटनिर्माण-सामग्रीमोबाइलट्रैक्टरबैंकों की निवेश योजनाओं के बड़े-बड़े पोस्टरशीतल पेयसाबुनटूथपेस्टचाय-कॉफीसाइकिल की दुकानरेस्टारेन्ट पास ही ब्यूटी पार्लर की दुकानजिसकी संचालिका ने बड़े-बड़े बोर्ड में लिखवाया है कि उसने प्रशिक्षणहर्बल सौन्दर्य साधनों के माध्यम से सौन्दर्य बाजार में न केवल टिकनेवाली बल्कि जगह बनानेवाली शहनाज से प्राप्त किया है। गांव के जीवन-स्तर में बदलाव आया है पक्के प्राथमिकमाध्यमिक स्कूल बन गये हैं। कुछ बड़े गांव में हाईस्कूल और हायर सेकेण्डरी स्कूल भी खुल गये हैं निजीकरण की गंगा में शिक्षाचिकित्सा सब हाथ धो रहे हैं अब इससे गंगा की क्या गत बनेगी इसकी फिक्र किसे है?

सूर्यनाथ सिंह

इसी बदले गांव कीइक्कीसवीं सदी के गांव की कहानी है कह रहे हैं सूर्यनाथ सिंह। तो हम बात कर रहे थे उत्तरप्रदेश के नक्शे में नौगांव के नाम से मशहूर इस गांव की, जिसका दिल्ली से सटा हिस्सा चमाचम और शेष अंधेरे और अंधेरगर्दी में डूबा इसी नौगांव में एक्सप्रेस-वेबिजली परियोजना और बिजनेस सेंटर खुलने की खबर आयी रामरख के भट्टे से खबर रिसीवही रामरख जिसने पंचायत अध्यक्ष चुनाव में महिला आरक्षित पद पर पत्नी को चुनाव लड़ा दियायह सोचकर कि दलित-सवर्ण भिड़ेंगे तो पिछड़ों का वोट उन्हें विजयी बना देगापर हुआ उलटा।

सवर्णदलित के पाले में चले गये इसलिए कि रामरख ने उनसे पूछा-ताछा नहीं और महरारू को खड़ा कर दिया- ‘‘हमरे गोद में खेलेअब हमरे सिर पर मूतने की तैयारी! मूतन देंगे तब न’’ तो सवर्णों ने मूतने नहीं दिया, दलित को जिता दियापर रामरख ने हार नहीं मानी- ‘‘राजनीति में घुस के हार मान जाएवह नेता क्या।’’ रामरख की राजनीतिक बाजीगरी के कारण उसे पहले खबर मिल गयीखबर वहीं से रिसीगांव के नवहे खुश पर बुजुर्ग चिंता में डूब गये नवहों की आंखों में चमक थीवे बुजर्गों को डपटते हैं- ‘‘का करेंगे जमीन जायदाद लेके। कितने पुरखे गल-पच गये इसी जमीन मेंक्या उखाड़ लिया। ढोते रहे जिनिगी भर कपार पर गोबर हीलिथड़ते रहे कीचड़-कानों में उगाया बासमतीखाया कुअरहा’’ बुजुर्गों की चिन्ता यह कि सदियों से कमाई पुरखों की जमीन जायदाद खतम हो जाएगी- ‘‘ई जमीनिया है तभी तक मान सम्मान है’’। नवहैं ख्याली घोड़े दौड़ाने लगे

पूरे इलाके का नामकरण हुआ इंडस्ट्रियल विलेज। मुआवजा राशि की किस्त मिली तमाम लोगों को कमीशन देकर। मुआवजा राशि से किसी ने घर बनायाकिसी ने पैखानाअमरजीत ने रेस्तरांकिसी ने गाड़ी-घोड़े खरीदेगांव की औरतें भी बिजनेस के चक्कर में लग गयीं। अमरजीत का रेस्तरां चल गयाएक नेता ने भी रेस्तरां खोला पर ठप्प। अमरजीत का ही खूब चलने लगा। नेताजी अपनी वाली पर आ गये फिर वही गलाकाट प्रतिस्पर्धा में अमरजीत की हत्या सब जानते हैं किसने करायी पर परिणाम सिफर। इसी बीच एक-दो राजनीति प्रेरित आंदोलन भी होते हैंकोई किसी दल से पोषित तो कोई किसी दल के उकसावे परराजनीति चलती है अपनी रौहत्या होती है पर हत्यारा कानून की पहुंच से बाहर क्योंकि यही राजनीति है और यही गांव है आजकल।

इसी गांव का एक चरित्र है छोटकन जो ट्रिकल डाउन’ कहानी के केन्द्र में है तीन बेटियों के बाद हुए छोटकन जाहिर है सबके प्यारे दुलारेपिता बैजनाथ मिश्र खाते-पीते सम्पन्न। छोटकन कविता भी लिखते हैंइसलिए कविराज भी कहाये वामपंथ की तरफ भी झुकाव हुआगांव छोड़ पटना रहने लगे। एनजीओ से जुड़ेदेश की राजधानी आये। मंत्रीविशिष्ट वर्मा से जुड़ेअपने नौकरीपेशा बचपन के मित्र को गुरूमंत्र देते हैं- ‘‘दफ्तर को लांचिग पैड समझिए। जैसे सेटेलाइट को छोड़ने के लिए पैड बनता है वैसा ही। दफ्तर का इस्तेमाल करिए सम्पर्क बढ़ानेअपना रुतबा जमाने के लिए। वहाँ का फोन इस्तेमाल करिएआ सब बड़का लोग से अपना पद का हवाला देते हुए सम्पर्क साधिए। नौकरी करेंगे तो नौकरे बने रहेंगे। नौकरी को बाएं हाथ से करिएदाहिना हाथ को अपने असल मकसद में लगाइए। नौकरी का हैऊ तो दूनिया भर का लोग करता है।….. बिहार का एतना अधिकारी सब बइठा है दिल्ली में आ आप बउंडिया रहे है इधर उधर। ऊ सब से सम्पर्क किए होते तो आज इस हाल में थोड़े होते।’’

छोटकन आजाद साहेब के साथ पत्रिका निकालते हैं नया आयाम। भव्य लोकार्पण होता हैछोटकन साथ-साथ अपनी पत्रिका भी निकालते है सत्ता विमर्श’, राजनीतिक पत्रिका। स्त्री विमर्श और दलित विमर्श पर दो किताबों का संपादन करते है। लेख दूसरे के, भूमिका उनकी, यानी हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा। सफलता के शार्टकट के अनेक नुस्खे हैं छोटकन के पास, उनमें से ही एक है ट्रिकल डाउन थियरी’ जिसकी व्याख्या वे करते हैं– ‘‘ दुनिया के सारे बड़े-बड़े अर्थशास्त्री मानते हैं कि पूंजीवाद के विकास से कमजोर वर्ग को फायदा मिलता है। जितने अधिक कल-कारखाने खुलेंगेउतने ही अधिक लोगों को रोजगार मिलेगा। समाज में खुशहाली आएगी। ….. कम्पनियाँ जो पैसा कमाती हैं वह रिसकर नीचे तक पहुँचता है। यही ट्रिकल डाउन हैरिसन गोरखधन्धे से कमायी में भी होती है बल्कि थोड़ी तेज। बाबाअफसर जो कर रहे हैं वह भी ट्रिकल डाउन का ही एक तरीका है। तिकड़मी आदमी कहकर आप इस शसिख्यत को खारिज नहीं कर सकतेइसी की कहानी है ट्रिकल डाउन। अपने आसपासअपने समाज में भी ट्रिकल डाउन कहानी का मुख्य पात्र मिल जायेगा। इसके लिए आपको गांव का मुँह ताकने की जरूरत नहींपर यह तो आपके मुँह से बेसाख्ता निकल आता है कितने बदले गये है गांव।

यह कहानी आज के युवाओं की उस सोच को भी सामने लाती है कि उनका सोच-समर्पण पैसे के प्रति हैजहां वे कार्यरत हैं उस संस्था के प्रति नहीं और यह व्यवहार एकपक्षीय नहीं है, संस्था का व्यवहार भी पेशेवर हैउसके कर्मचारियों पर अनिश्चितता की तलवार सदैव लटकती रहती है संस्था के लिए भी मुनाफा महत्वपूर्णकर्मचारियों के लिए भी मासिक कमाई, जिसके कारण वे फट से संस्था बदल लेते हैं। यही सत्य है आज कापैसा ही सत्य है आज का, वह है न –‘‘पैसा खुदा तो नहींपर खुदा से कम भी नही’’। इसी खुदा सेजीवन के खुरदरे यथार्थ से बार-बार मुलाकात कराते हैं सूर्यनाथ सिंह।

पहली और दूसरी कहानी का एक्सटेंशन है तीसरी कहानी वैसे तो संग्रह की सभी कहानियां एक दूसरे से इस तरह जुड़ी हुई हैं कि हर कहानी एक बड़े कैनवास का हिस्सा ही लगती है। वरिष्ठ कथाकार संजीव कुमार ने ठीक ही कहा है- वे (इस संग्रह की कहानियाँ) संदर्भयुक्त होकर इतिहास के पाले में एक सुसंगत अर्थ का निर्माण करती हैं। इस प्रक्रिया में ये कहानियाँ औपन्यासिक आयाम ग्रहण करने लगती हैं। छीजते संबंधों की कहानी है देवता घर गये’, जो यह बताती है कि हमारे जंगल किस तरह से कटेविकास-यात्रा में खेती से साबका कैसे हुआअंधविश्वास कैसे सोचने-समझने की क्षमता को डसता हैआरक्षण का तंत्र क्या होता हैबाल-विवाहजाति किस तरह गले की फांस बन जाती हैविस्थापन का दर्द क्या होता है

इन सब बातों से एक समाजशास्त्री की तरह दो-चार होते हैं कथाकार सूर्यनाथ सिंह। सूर्यनाथ सिंह का यह कहानी संग्रह जब आया तब किसान आंदोलन की इस तरह की सुगबुगाहट नहीं थी। लगता है जो गांव के स्तर पर घट रहा है वही देश के स्तर पर भी। आज किसान को यही तो अंदेशा है कि राजनीतिकपट-नीति की मार्फत उसे खारिज किया जा रहा है अपने लोग हीअपने द्वारा चुने गये लोग ही खारिज करेंगे और सौंप देंगे उन्हें कम्पनी के अधीन।

मंडन मिसिर की खुरपी’ इस कथित आधुनिक युग की त्रासदी की कहानी है जो कमोबेश घर-घर घट रही है। कभी अखबार की मार्फत इस त्रासदी के किस्से और उसपर न्यायालय की टिप्पणी पढ़ने को मिलती है कि- पुत्र या पुत्री का कर्तव्य है कि वे अपने बुजुर्ग माता-पिता का पालन-पोषण ही नहींउनका मान-सम्मान भी करें और अगर पुत्र-मोह में बुजुर्ग माता-पिता ने अपनी सम्पत्ति पुत्र-पुत्रीमाँ-बहू के नाम कर दी है तो वे उसे वापस प्राप्त कर सकते हैं। वृद्ध-आश्रम अस्तित्व में ऐसे ही थोड़े आते हैं?

हमारे धर्म-रक्षकसंस्कृति प्रेमीरोज राग अलापते हैं कि भारत विश्वगुरु बनेगाबनारस में मौत की राह तक रहे बुजुर्ग ने अपनी अंत्येष्टि के लिए निश्चित धनराशि जमा करा दीसाथ में अपने इकलौते लड़के का पता भी, ताकि उसे अंत्येष्टि के तीसरे दिनदाह संस्कार के बाद अस्थियाँ भिजवायी जा सकें। उसी विश्व-गुरु बननेवाले देश की पीढ़ी की कहानी है मंडन मिसिर की खुरपी। दादा अगनू मिसिर के पोते और अगस्त मिसिर के बेटे मंडन मिसिर की खुरपी क्या गुमी जीवन की लय ही गुम हो गयी। आखिर मिसिर महराज की खुरपी मिलती हैसूखे कुएँ की जगत पर। वाकई सूखा कुआँजिसमें नहीं जीवन- जलअपनापनभाईचाराबस स्वार्थ अपना ही जहां-तहां। इस सब को नकारते कहां चले गये मिसिर जीएक पीढ़ी जो आई.टी. कहाती हैइंजीनियर और जड़ों के प्रति उसका रुखइसे उजागर करती है यह कहानी।

इस संग्रह का शीर्षक जिस कहानी पर है धधक धुआँ-धुआँ’, वह उस सुलग रही चिनगारी की कहानी है जिस पर प्रशासन पानी डालने की कोशिश कर रहा है। मगर उसे वह जगह नहीं मिल पा रही हैजहाँ चिनगारी दबी है। क्या वाकई प्रशासन ऐसी कोशिश कर रहा हैकहीं ऐसा तो नहीं चोट दाहिने हाथ में लगी और मलहम-पट्टी बायें हाथ की हो रही है। एक समय-समाज के प्रति सजग कहानीकार से यह कैसे छुप सकता है?

समस्या की नब्ज पर हाथ रखने के बजाय जब इधर-उधर हाथ मारे जा रहे होंहल करने का नाटक किया जा रहा होचिनगारी कहीं सुलग रही हो और पानी की बौछार कहीं की जा रही हो तो माहौल आशंका में धधक धुआँ धुआँ’ होगा ही। मारक कहानीजो राजनीतिएनजीओअधिकारियों के अपवित्र गठबंधन को उजागर करती है पर इसका खमियाजा देश-समाजआदिवासी भोगते हैं और परिणाम धधक धुआँ-धुआँ गांव के इस बदलाव को इस संग्रह के माध्यम से बिना कहानीपन को गंवाये सूर्यनाथ सिंह कहते हैं। प्रभावी कहानियां हैंअसर देर तकदूर तक बना रहता है।

किताब धधक धुआँ धुआँ (कहानी संग्रह)

लेखक : सूर्यनाथ सिंह

वाणी प्रकाशन, 21 दरियागंजनई दिल्ली, 225 रुपए।

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