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गंगा-जमुनी तहज़ीब की उम्दा आवाज़ थे मेयार सनेही

by Rajendra Rajan
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— केशव शरण —

जाकर दामने-अल्फ़ाज़ में ख़याल के फूल/ मैं दे रहा हूँ ज़माने को बोल-चाल के फूल- जैसे बेहतरीन शे’र और ग़ज़लों से दुनिया को नवाज़ने वाले हरदिल अज़ीज और अज़ीम शायर मेयार सनेही आज दुनिया में नहीं हैं। उन्होंने अपने जीवन में पचासी से भी अधिक वसंत देखे और जिये जिसमें पचास से भी अधिक वसंतों को अपनी शायरी के रंग बख़्शे। लेकिन ऐन वसंत के पहले उनके जीवन की सरसों पक गयी और उसकी स्वर्णाभा दुनिया को सौंपकर उन्होंने दुनिया से विदाई ले ली। ‘सरसों पक गयी’ रदीफ़ के साथ उनकी एक ग़ज़ल थी जिसका मक़्ता है- ख़ूब हो तुम ‘सनेही’ गुलमुहर के शहर में/ लिख रहे थे गीत देहातों में सरसों पक गयी।

उनका घर मेरे घर से एक किलोमीटर दूर था। एक-दो किलोमीटर के दायरे में रहनेवाले सभी मित्रों की बैठकी उनके यहाँ शाम को हुआ करती थी। डीजल रेल कारखाना वाराणसी से रिटायर होकर उन्होंने अपने घर में जनरल स्टोर की दुकान खोल ली थी जिस पर उनका छोटा बेटा और वे बैठते थे। उनके चार बेटे और दो बेटियाँ हैं जिनके शादी-विवाह करके वे अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर चुके थे। वहीं दुकान के सामने रखी कुर्सियों पर हमलोग भी जम जाते थे। इस जमघट की विशेषता यह थी कि यहाँ राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक बातों से ज़्यादा साहित्य की चर्चा होती थी। सुनायी गयी चीज़ों की अच्छी समालोचना भी हो जाती थी। मेयार सनेही जिन्हें मैं मेयार भाई कहता था, मुझसे उम्र में काफ़ी बड़े थे लेकिन उनमें वरिष्ठता की कोई ग्रंथि नहीं थी। वे एक बे-तकल्लुफ़ दोस्त थे। और अंत तक वे इसी रूप में रहे।

मेरा उनसे प्रथम परिचय सन् अठहत्तर में बनारस की साहित्यिक संस्था ‘साहिती’ में हुआ था। तब मैं इंटर में पढ़ रहा था। सीनियर सहपाठी आनंद परमानन्द और कमल नयन मधुकर जो गोष्ठियों और मंचों पर कविता पाठ करते थे, मुझे उस गोष्ठी में ले गये थे। मेयार सनेही, राजशेखर, तस्कीन वाहदी, शमीम गाज़ीपुर, आनंद परमानन्द और मैं तथा एक और शायर ख़स्ता बनारसी वरुणापार के थे और एक-दूसरे से वाकिंग डिस्टैंस पर थे। मेयार सनेही जिन्हें मैं भी मेयार भाई कहता था, बहुत अच्छी और पुख़्ता ग़ज़लें कहते थे लेकिन उनका अंदाज़ उर्दू का रवायती अंदाज़ था और शब्दावली भी उर्दू की थी।

धीरे-धीरे उनमें भी एक बदलाव आने लगा। वे ग़ज़लों में उर्दू के कठिन शब्दों और लम्बी सामासिक शब्दावली से परहेज़ करने लगे। कई ग़ज़लें उन्होंने ऐसी भी कहीं जिन्हें हम हिन्दी ग़ज़ल कह सकते हैं। इन ग़ज़लों ने उन्हें हिंदी में ऐसा प्रतिष्ठित किया कि मिश्रित शब्दावली के प्रयोग के बावजूद वे हिंदी कविता के मंच और गोष्ठियों तथा पत्रिकाओं के हो गये। अलबत्ता उर्दू मंचों पर बुलाये जाने पर वहाँ भी अपना ग़ज़ब प्रभाव छोड़ते थे। गंगा-जमुनी शायरी अपनाते हुए उन्होंने कई हिंदी ग़ज़लें दीं, एक से एक।

एक गीत लिखने बैठा था मैं कल पलाश का
ये बात सुनकर हँस पड़ा जंगल पलाश का

वादों को भूल जाना ही जिसका स्वभाव है
ऐसे ही एक शख़्स से अपना लगाव है

मदिरा की सुराही में गरल देख रहे हैं
अतृप्त ही रहने में कुशल देख रहे हैं

माहौल में अनबन का चलन देख रहे हैं
बिखरे हुए सद्भाव-सुमन देख रहे हैं

हम जो प्यार से अपनी ग़ज़ल देख रहे हैं
सपनों का सुघड़ ताज महल देख रहे हैं

उसी दौरान कुछ समय बाद मेयार भाई ने एक मुक्तछंद कविता लिखी। उनका यह प्रथम प्रयास था जो वक्तव्यवत् अभिव्यक्ति मात्र थी। मैंने कहा- मेयार भाई, यह क्या लिखे हैं ! आप ग़ज़ल कितनी बढ़िया कहते हैं। ग़ज़ल ही कहिए! मेयार भाई ने फिर कभी ‘नई कविता’ लिखने की कोशिश नहीं की।

उ. प्र. हिंदी संस्थान से सद्भावना पुरस्कार ग्रहण करते हुए

मेयार भाई जिस ऊंचे मरतबे के शायर थे उसके अनुपात में उनका दायरा उतना विस्तृत नहीं था। विस्तार देने की उन्होंने कोई कोशिश भी नहीं की। वगरना, इस बनारस में गंगा-जमुनी तहजीब के शायर नज़ीर बनारसी के बाद वही थे। वे गोष्ठियों और स्थानीय मंचों पर जिस तत्परता और चाव से शिरकत करते थे दूर के कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भाग लेने के प्रति उतने ही उदासीन थे। सिर्फ़ अपने विभाग यानी रेलवे के कवि सम्मेलनों में भाग लेने के लिए बनारस से बाहर जाते थे। वे कहीं भी अपना क़लाम पढ़ते, श्रोताओं के दिल-दिमाग़ पर छा जाते थे।

ऐसे ही किसी कवि सम्मेलन में उनके साथ कवि और नवभारत टाइम्स के संपादक कन्हैयालाल नंदन थे जो उनकी ग़ज़लों से बहुत प्रभावित हुए। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उन्होंने उनसे दो ग़ज़लें लीं जिन्हें अगले ही हफ़्ते शाया भी कर दीं। नंदन जी ने मेयार भाई से अनुरोध किया कि वे उन्हें महीने-दो महीने में अपनी ग़ज़लें भेजते रहें। लेकिन मेयार भाई छपने के लिए अपनी ग़ज़लें कहीं नहीं भेजते थे। कोई संपादक पीछे पड़कर उनसे ग़ज़लें लेकर छाप दे तो अलग बात। दीवान छपवाना तो बहुत दूर। वो तो भला हो उनके घोषित शिष्य कवि और ग़ज़लकार विनय मिश्र का कि उनके पीछे पड़कर सन 2010 में उनका ग़ज़ल संग्रह ‘ख़याल के फूल’ छपवाकर ही दम लिया, जब वे पचहत्तर वर्ष के हो गये थे और उनके पास कई संग्रहों भर की ग़ज़लें इकट्ठा हो गयी थीं।

सही मायने में इस संग्रह के माध्यम से वे समकालीन हिंदी ग़ज़ल के परिदृश्य में आये। उनके श्रोताओं, पाठकों और ख्याति का दायरा ख़ूब बढ़ा। मुझे लगता है कि उनकी जो ग़ज़लें हिंदी ग़ज़ल में समाहित हो सकती थीं उन्हीं ग़ज़लों को इस संग्रह में लिया गया है। लेकिन ऐसी सब की सब ग़ज़लें इसमें ले ली गई हों, ऐसा भी नहीं है। कुछ अवश्य छूटी हैं। यूं भी इस संग्रह में उनकी मात्र अस्सी ग़ज़लें हैं। इसके प्रकाशन के बाद उन्होंने कम से कम पचास ग़ज़लें कही होंगी जिनमें आप हिंदी ग़ज़ल के कथ्य और रूपगत तत्त्व पायेंगे। मोटे तौर पर नये विषय, जनवादिता, प्रगतिशीलता और प्रयोगधर्मिता हिंदी ग़ज़ल की विशेषता कही जा सकती है।

हालांकि रचना की ये सार्वभौम विशेषताएं हैं जो उर्दू में भी पायी जाती हैं जिसके कारण उर्दू के तमाम शायर हिंदी ग़ज़लकारों के लिए प्रकाश स्तंभ बने हैं क्योंकि उनके यहां ग़ज़ल का रचाव परम्परा से ही ज़्यादा परिपक्व और प्रभावपूर्ण है। प्रभाव की दृष्टि से मेयार भाई की ग़ज़लें दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी से कम नहीं हैं। इसी का नतीजा है कि इस ग़ज़ल संग्रह के प्रकाशन के बाद उनकी ग़ज़लों का जो जलवा बनारस में दिखता था वही बाहर भी दिखायी पड़ा। दरवेश भारती, जहीर कुरैशी, कमलेश भट्ट कमल, रामकुमार कृषक, देवेन्द्र आर्य जैसे हिंदी ग़ज़ल के जाने-माने हस्ताक्षर उनके मुरीद हो गये। देश-भर के हिंदी ग़ज़लकारों में उनकी लोकप्रियता बनी। यूँ इस संग्रह के पहले सन 2006 में ग़ज़लकार दीक्षित दनकौरी द्वारा संपादित पुस्तक ‘ग़ज़ल – दुष्यंत के बाद (भाग-दो)’ में वे संकलित हैं।

इसका भी श्रेय विनय मिश्र को ही है। उनके शागिर्दों में विनय मिश्र की गुरुदक्षिणा अनुपम है। विनय मिश्र के कारण ही वे उस्ताद बने। नहीं तो उस्ताद शायर होते हुए भी वे उस्तादी से दूर रहते थे। अट्ठावन वर्ष पर रिटायर होने के बाद मिले समय के कारण वे उस्तादी स्वीकार कर सके। विनय मिश्र के अलावा कुंअर सिंह कुंअर, नसीम अख़्तर और अज़फ़र अली उनके जाने-माने शिष्य हैं। अज़फ़र अली ने उनकी बहुत सेवाएं कीं, तन-मन से अंतिम दम तक। यूं गाहे-ब-गाहे जिनको चाहिए होता उनको वे इस्लाह करते रहते थे। उनमें मैं भी शामिल हूं।

मेयार भाई ने बेहतरीन ग़ज़लें दी हैं। बस थोड़ी-सी नज़्में कही हैं लेकिन वे भी बेहतरीन। इंदिरा गांधी की शहादत पर उन्होंने पांच नज़्में लिखी थीं, जो सन चौरासी में पुस्तिकाकार “वतन के नाम पांच फूल” के नाम से छपीं और वितरित हुईं। इन नज़्मों के साथ वे बनारस में एक दूसरे नज़ीर बनारसी के रूप में उभरे। उनके जीवन की एक ख़ास बात यह रही कि देश विभाजन के समय वे बाल्यावस्था में पाकिस्तान में थे अपनी रिश्तेदारी में। वहां उनके दादा का कारोबार था जबकि उनका खानदान और परिवार उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले में रहकर खेती-किसानी करता था। उस उथल-पुथल में जब मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान जा रहे थे, संकटों का सामना करते हुए वे दादा-दादी के साथ बाराबंकी लौटे। बड़े होकर रेलवे की नौकरी पायी और बनारस में आ गये और यहीं के होकर रह गये। यहीं उन्होंने महकवि सूरदास पर एम.फिल. किया, प्राइवेट पढ़ाई करके।

उनकी शायरी में जो गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रवाह है उनकी शख़्सियत में भी उसकी तहजीब मौजूद थी। यदि ऐसा नहीं होता तो उनकी शायरी में सच्चाई की वह ताक़त नहीं होती जो दिलों पर सीधे असर करती है।

मेयार सनेही जी एक खुशमिज़ाज, नरम स्वभाव और कड़क आवाज़ के व्यक्ति थे। इस आवाज़ में वे बड़े मन और प्यार से ग़ज़लें पढ़ते थे। अच्छे तरन्नुम में ग़ज़ल पढ़नेवालों को वे तरह में ग़ज़ल पढ़कर श्रीहीन कर देते थे। इसके पीछे थी उनकी उम्दा फ़िक्र, फ़न और अन्दाज़े-बयां। ग़ज़ल कहने में उनकी जो महारत थी वह कम ही शायरों में देखने को मिलती है। बदलते समय और हिंदी कवियों, ग़ज़लकारों और साहित्यकारों से निरन्तर बढ़ते सम्पर्क के कारण उनमें जदीदियत बढ़ती गयी और वे ग॔गा-जमुनी संस्कृति के क़ौमी शायर के रूप में उभरे। हिंदी के अतिप्रतिष्ठित ग़ज़लकार जहीर कुरैशी ने बिल्कुल सही लिखा है कि मेयार सनेही की अधिकतर ग़ज़लें हिन्दी-उर्दू की साझा संस्कृति का एक अनुकरणीय उदाहरण हैं।

मेयार भाई ने उर्दू मिश्रित बोलचाल की भाषा में शायरी की है। वे आसानी से उर्दू के शायर कहे जा सकते हैं। लेकिन उनको अपनाया है हिन्दी वालों ने। मेयार भाई को बनारस हमेशा याद करता रहेगा। अपने उद्गारों में उनके अश्आर उद्धृत करता रहेगा। उन्हें हम कभी भूल नहीं सकते। उनकी स्मृति को प्रणाम!

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