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शिव कुमार पराग के गीत और दोहे

by Rajendra Rajan
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रोशनी के शब्द

 

सिर उठाती है

सलाखों की जकड़बंदी से

मेरी चेतना

फिर सिर उठाती है।

 

खुल रहा आकाश

दिखलाई पड़ा है,

रोशनी के शब्द मुझ तक आ गए।

इंद्रधनुषी दिन

भले गहरे दबे हों,

उनके होने की खबर हम पा गए।

 

घर बनाती है

बचे तिनकों को

चुन-चुन कर,

हमारी चेतना फिर घर बनाती है।

 

हम रहे

घोड़े की नंगी पीठ,

जो चाहे सवारी करे या कोड़े लगाए।

चलो यह अच्छा हुआ,

दिन मुट्ठियों के

भींचने, जूझने के लौट आए।

 

गीत गाती है

लहू की गर्म भाषा में,

हमारी चेतना फिर गीत गाती है।

 

डोर टूट चुकी है भरोसे की

 

डोर टूट चुकी है भरोसे की

संयम का बांध हुआ अब-तब है।

 

लोग खड़े हैं गुमसुम

सामने हकीकत है,

तोड़ रहा दम सुंदर ख्वाब है।

सब कुछ तो वे ही हैं

जनता किस गिनती में,

लोकतंत्र की दशा खराब है।

 

किसको चिंता पड़ी अवाम की

जो कुछ है, कुर्सी का करतब है।

 

सिंहासन पर बैठे

रहते ऐंठे-ऐंठे,

जो मन में आए वो करते हैं।

अम्न की नहीं चिंता,

जाति-धर्म प्यारा है,

दिल-दिमाग में नफरत भरते हैं।

 

जल्दी ही फूटेगा, देर नहीं

पाप का घड़ा हुआ लबालब है।

 

डोर टूट चुकी है भरोसे की

संयम का बांध हुआ अब-तब है।

 

सोचे बैठ किसान

 

पकी फसल को देखकर, सोचे बैठ किसान

कब तक साहूकार की, मुट्ठी में खलिहान!

 

हरित क्रांति के बाद से, रुका हुआ अभियान

बस वोटों की फसल पर, उनका सारा ध्यान।

 

महंगाई बढ़ती गई, गिरे फसल के भाव

घाटे में खेती गई, पड़ी भंवर में नाव।

 

खेत विदेशी हाथ में, जाने को मजबूर

अब अपने ही खेत पर, बनें किसान मजूर।

 

मेहनत, लागत, समय का, है नगण्य परिणाम

कब किसान तय करेगा, खुद अनाज के दाम!

 

कृषक आत्महत्या करें, नहीं किसी को फिक्र

घड़ियाली आंसू बहैं, यहा-कदा हो जिक्र।

 

मौके पर से लौटकर, क्यों उदास हे तात!

सरकारी विज्ञप्ति में, खाद-बीज-इफरात।

 

कर्म करो दिन-रात बस, फल पर मत दो ध्यान,

गन्ना देकर मिलों को, मत खोजो भुगतान।

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