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सड़क पर मोर्चा

by Rajendra Rajan
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— विनोद दास —
हम जानते हैं
रेल पटरियां ठिकाने पर पहुंचने के लिए हैं
कटकर मरने के लिए नहीं
सड़क चलने के लिए है
बैठने के लिए नहीं
लेकिन हम सड़क पर बैठे हैं
पिछले एक सौ बीस दिनों से
जैसे गरीब के घर बैठी रहती हैं विपदाएं
जैसे बैठे रहते हैं न्याय की आस में सताये मन
धूल उड़ती अदालत के अहाते में
ठण्ड से कटकटाती हिंसक रातें आयीं
हमारे सैकड़ों साथियों की अस्थियाँ लेकर चली गयीं
कोरोना की पहली लहर आयी
लाखों को बेघर और बेरोजगार कर चली गयी
बिना पानी-खाद
हमारे खेतों में गेहूं की हरी-हरी सुंदर बालियाँ
पीलिया की मरीज बन जमीन पर लेट गयीं
लेकिन हम बैठे रहे
खुले आकाश के नीचे
कोरोना की दूसरी लहर के कहर के बीच
खेतों में पड़े बीजों की तरह
न्याय मेघों का इंतजार करते हुए
दो सौ किलोमीटर दूर चिढ़ाती रही खुशी
हमारे घर में जब सुनायी दी नवजात शिशु की किलकारी
दौ सौ किलोमीटर दूर सुबक सुबक कर हम रोये
आखिरी समय नहीं देख पाये माँ का चेहरा
जिसके खोह जैसे हंसते मुंह में
चमकते थे खुशी के दो दांत
इस बीच पेट्रोल के दाम सौ रुपये कर गये पार
सरकार में शामिल हो गये कई विपक्षी नेता
कसाई की दुकान से फेंके मलगोबा भभोड़ते
लालची कुत्तों की तरह
गणतंत्र दिवस पर
लड़ाकू जहाजों की झांकी भी दिखा दी गयी
जिसमें दलाली का फैसला देने के बाद
न्यायमूर्ति बन गये संसद सदस्य
इधर अनाथ भटकती रही
हमारी जीवनदायी मांग
सड़क पर उड़ते हुए
चिप्स के खाली पैकेटों की तरह
हमारे घरों पर पड़ते रहे छापे
हम नहीं डरे
राशन-पानी पर लगा दी गयी पाबंदी
नहीं टूटी हमारी हिम्मत
डरा-कमाता सेठी मीडिया
साबित करता रहा हमें आतंकवादी
धार्मिक वायरस से संक्रमित नफरती दिमाग
पोतते रहे राष्ट्रद्रोह की हम पर कालिख
हम चुप रहे
जैसे चुप रहती है नदी
उसमें कारखाने का मलबा डालने पर
जैसे चुप रहता है जंगल
पेड़ काटने पर
जैसे चुप रहते हैं कुछ लोग
उन्हें पाकिस्तानी कहने पर
वैसे हम अब भी डटे हैं
जैसे हमारे फौजी बेटे डटे रहते हैं सरहद पर
उनकी ही तरह
जाति धर्म पूछे बिना
लंगर में खाते हैं खाना
उनकी ही तरह करते हैं
खुले में स्नान
कतारों में जाते हैं शौच
उसी तरह हम देखते रहते हैं
दुश्मनों की तरह हमें रोकती
कंटीले तारों की नयी बाड़
रास्तों पर ठोंकी गयीं
हमारी आत्मा को छेदती हुई नोकीली कीलें
राजधानी की सरहद पर
हम इस पृथ्वी के वंशज हैं
हमारी जमीन छीनकर बनी है यह सड़क
यह हमारी जगह है
हमारा मोर्चा है
लेकिन राजधानी जाने के रास्ते बंद हैं
बंद है बातचीत के रास्ते
फिर भी वे हमसे कहते हैं
समाधान एक फोन कॉल की दूरी पर है
लेकिन उनसे कोई नहीं पूछता
हे भक्त वत्सल !
अहर्निश राष्ट्र के लिए आकुल व्याकुल देव!
परिंदों को दाना चुगाने वाले महाबली
क्यों नहीं है तुम्हारे पास एक भी शोक का शब्द
हमारे साथियों की शहादत के लिए
हम नहीं जानते
उन्हें क्यों नहीं मिलता समय
हमसे बात करने के लिए
क्या यह किष्किंधा के बाली की तरह
हमारे वोटों की ताकत से मिला पद का मद है
या चुनाव के लिए मिला गुप्तदान
हालांकि उनके रोजनामचे में
विदेशी दौरे होते हैं
चुनाव दौरों की तारीखें होती हैं
राष्ट्रीय संपत्ति बेचने की कोई फाइल होती है
उनके जूतों पर
नहीं जमती है धूल
वह आकाश मार्ग से चलते हैं
उनके रास्तों में आती ही नहीं
हमारे धरने की सड़क
दोस्त ! हम उनसे ही नहीं
तुम से भी पूछते हैं साफ-साफ
तुम किसकी तरफ हो
क्या मुंह में कौर डालते ही
कभी नहीं आती हमारी याद
क्या भूल गये लाल अमेरिकी गेहूं का मोटा दाना
जो राशनकार्ड से कतार में लगकर मिलता था
क्या तुम उन गोदाम मालिकों की तरफ हो
जो सस्ते दामों पर खरीदेंगे हमारा अनाज
और बाद में बेचेंगे हमें महंगे दामों में
क्या तुम उन लुटेरों के साथ हो
जो हमारे बैंक से कर्ज लेकर भाग जाते हैं विदेश
जबकि हमारे हो जाते हैं कुर्क खेत
देखो! अपराधियों का साथ देनेवाले दोस्तो देखो!
अपनी अंतरात्मा के थिर साफ जल में देखो अपना चेहरा
क्या तुमको कोई ग्लानि नहीं होती
तुम गोली-डंडे से नहीं, हमें मारते हो
अपनी निर्मम उपेक्षा से
अपनी खुदगर्ज़ खामोशी से
अपनी अपार कृतघ्नता से
क्या तुम बना नहीं रहे हो ऐसा देश
जहाँ किसान होना आत्महत्या की कामना है
जहाँ कुजात होना
सिर पर जूते खाना है
विधर्मी होना
घेर कर मारा जाना है
क्या तुम्हारे भीतर उतनी भी नमी नहीं बची है
जितनी बची रहती है खबर
इन दिनों अखबारों में
जितनी नमी बची रहती है
झुलसती गर्मियों में
हरी घास में
जितनी बची रहती है उदारता
सूदखोरों की आंखों में
जितनी बची रहती है ऑक्सीजन
कोरोना मरीज के फेफड़ों में
कितनी बार पश्चिम में सूरज डूब गये
कितनी आंधियां गश्त लगाकर चली गयीं
जाड़ों में आये प्रवासी पक्षी
उड़कर लौट गये अपने देश
कोरोना के खतरनाक समय में
बुला रहे हैं
हमारे प्रियजनों के नमकीन आँसू
लेकिन नाराज आत्माओं की तरह
फिर भी हम बैठे हैं सड़क के मोर्चे पर
धैर्य का कवच पहने हुए
क्रोध की कडुवाहट के साथ
मदमस्त हाथी के विराट कानों को सुना रहे हैं
मेघ सी अपनी हुंकार
हर दिन लिखते हैं अपनी पीड़ा की इबारत
बैनर के मोटे-मोटे हर्फों की तरह
अपनी पेशानी पर
बेचैनी के साथ।

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