कुजात लोहियावाद का भविष्य – योगेंद्र यादव

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Lohiiya

लोहिया-विचार के कुछ पहलुओं पर भी पुनर्चिंतन की जरूरत है। लोहिया के विचारों में महज वक्ती या काल-सापेक्ष का अच्छा उदाहरण ‘गैर-कांग्रेसवाद’ की अवधारणा है। लोहिया के लिए यह केवल एक तात्कालिक रणनीति थी। उनका मानना था कि कांग्रेस के वर्चस्व को एक झटका देना लोकतंत्र के विकास के लिए अनिवार्य है। इसीलिए उन्होंने साठ के दशक के अंत में गैर-कांग्रेसवाद के नारे के तहत कांग्रेस-विरोधी गठबंधनों की व्यूह रचना की। सन 1967 के चौथे आम चुनाव में इस रणनीति का व्यापक प्रयोग हुआ और इसे सफलता भी हासिल हुई। कई राज्यों में संयुक्त विधायक दल या ‘संविद’ (गैर-कांग्रेसी दलों के गठबंधन) की सरकारें बनीं। लोहिया ने इन संविद सरकारों से कोई लंबी-चौड़ी उम्मीदें नहीं बाँधी थीं। उन्होंने साफ कहा था कि अगर ये संविद सरकारें जनता की अपेक्षाओं पर खरी न उतरीं तो इन्हें भी अपदस्थ कर देना चाहिए। लोहिया की दृष्टि में कांग्रेस को सत्ता से एक बार उतारने-भर में संविद प्रयोग की ऐतिहासिक भूमिका पूरी हो जाती थी। लेकिन 1969 में लोहिया के देहांत के बाद उनके चेलों ने इस वक्ती रणनीति को राजनैतिक दर्शन की तरह प्रतिपादित किया और अपने राजनैतिक अवसरवाद को सैद्धांतिक जामा पहनाने की कोशिश की। और तो और, आज भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल कुछ नेता गैर-कांग्रेसवाद का नाम लेकर अपने पाप को धोने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस के साथ जुड़ने को लालायित कुछ दूसरे लोग उसी तर्क का प्रयोग कर ‘गैर-भाजपावाद’ चलाने की कोशिश कर रहे हैं। एक कुजात लोहियावादी को इन दोनों कोशिशों का भंडा फोड़कर यह तय करना होगा कि आज की राजनैतिक परिस्थिति में कौन-सी रणनीति सर्वश्रेष्ठ है।

‘भारत-पाक महासंघ’ का प्रस्ताव लोहिया-विचार का एक दूसरा पहलू है जिसकी प्रासंगिकता आज संदिग्ध हो गई है। अपने जमाने में यह प्रस्ताव निःसंदेह एक साहसिक और रोमांचक परिकल्पना थी। देश के विभाजन के बाद भारत में पाकिस्तान-विरोध की राजनीति करना सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का आसान तरीका था। पहले हिंदू महासभा और जनसंघ और फिर इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इस हथकंडे का इस्तेमाल किया। इस संदर्भ में लोहिया का भारत-पाक महासंघ का प्रस्ताव विश्व-बंधुत्व की राजनीति का हिस्सा था। यह प्रस्ताव भारत-पाक विभाजन के पीछे काम कर रही सांप्रदायिक दृष्टि को नकारने का साहस दिखाता था। संकीर्ण राष्ट्रवाद को चुनौती देनेवाले इस प्रस्ताव ने अपने जमाने में अनेक संवेदनशील लोगों को आकर्षित किया। लेकिन आज परिस्थिति बदल चुकी है।

संकीर्ण राष्ट्रवाद के खिलाफ संघर्ष की जरूरत पहले से ज्यादा मजबूत हुई है, विश्व-बंधुत्व और शांति को राजनैतिक एजेंडे पर स्थापित करना भी पहले से ज्यादा जरूरी हुआ है। लेकिन साथ-ही-साथ पिछले पचास वर्षों में राष्ट्रीयता की पहचान भी गहरी हुई है। आज भारत-पाक महासंघ के प्रस्ताव को सुनकर पाकिस्तान या भारत के अन्य किसी भी पड़ोसी देश के नागरिक को डर लगता है। उसे यह प्रस्ताव दक्षिण एशिया में भारत के वर्चस्व का पर्याय लगता है। इसलिए दक्षिण एशिया उपमहाद्वीप के सभी लोगों में एकता और सहकार के विचार को स्थापित करने के लिए एक नए प्रस्ताव की जरूरत है। लोहिया का प्रस्ताव गलत नहीं था। लेकिन आज के हालात में उनके प्रस्ताव को हू-ब-हू दोहराने से फायदा कम और नुकसान ज्यादा है। इसलिए कुजात लोहियावादियों को इस विचार को नए प्रस्ताव की शक्ल देनी होगी।

इतिहास चक्र की दुविधा

हो सकता है इन सुझावों पर लोहियावादियों को भी एतराज न हो। समय और परिस्थिति में बदलाव के मुताबिक भाषा और रणनीति में भी बदलाव करने की बात सहज लगती है। कुजात लोहियावादियों की समस्या तब शुरू होगी जब वे इससे गहरे सवाल उठाने शुरू करेंगे और लोहिया दर्शन की कुछ बुनियादी अवधारणाओं पर सवालिया निशान लगाना शुरू करेंगे। लोहिया की इतिहास चक्र की अवधारणा इसी श्रेणी में पड़ेगी। पश्चिमी वैचारिक परंपरा को बुनियादी रूप से चुनौती देने के बावजूद लोहिया एक मायने में उसी परंपरा के शिष्य थे। उनपर उन्नीसवीं सदी के यूरोप के इतिहास दर्शन की छाप बहुत गहरी थी। मानव सभ्यता के वर्तमान और भविष्य को समझने का यह तरीका साधारण इतिहास लेखन से बिलकुल भिन्न था। उन्नीसवीं सदी के यूरोप का इतिहास दर्शन महज इतना नहीं कहता कि वर्तमान और भविष्य को समझने के लिए इतिहास को समझना जरूरी है। इतिहास का महावृत्तांत लिखने के पीछे उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय दार्शनिकों की यह मान्यता थी कि इतिहास एक अलिखित विधान से प्रेरित होकर एक पूर्व निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। इस दिशा के संकेत भूत, वर्तमान और भविष्य सभी में प्रतिबिंबित हैं। इतिहास का यह अलिखित विधान क्या है इसकी व्याख्या हर दार्शनिक ने अलग-अलग तरीके से की, लेकिन वे सब मानते थे कि इतिहास को पढ़ने का मतलब है भूत और भविष्य को जोड़नेवाले उस अलिखित विधान की खोज। हीगल और मार्क्स दोनों इसी परंपरा की उपज थे। दोनों ने अपने-अपने तरीके से विश्व इतिहास के महावृत्तांत लिखे। दोनों ने अपने-अपने सपनों को अपनी कहानियों में गूँथा। एक अच्छी हिंदी फिल्म की तरह दोनों ही कहानियों की एक खूबसूरत परिणति होती है। उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय इतिहास दर्शन की हर कहानी का अंत एक सर्वगुण-संपन्न समाज के उदय में होता है।

लोहिया का इतिहास चक्र का सिद्धांत उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय चिंतन के इसी साँचे में ढला है। हीगल और मार्क्स के देश जर्मनी में लोहिया पढ़े थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा जर्मनी की दार्शनिक परंपरा में हुई थी। इसलिए लोहिया ने भी अपनी विश्व-दृष्टि के अलग-अलग टुकड़ों को गूँथने के लिए इतिहास दर्शन के महावृत्तांत का ही सहारा लिया। बेशक लोहिया की कहानी किसी भी यूरोपीय कहानी से बहुत भिन्न थी। मार्क्स और हीगल ने पूरे विश्व इतिहास को केवल एक शक्ति के उत्तरोत्तर विकास की कहानी के रूप में पेश किया। मार्क्स के अनुसार आदिम काल से लेकर आज तक मांनव-इतिहास उत्पादन की शक्तियों के उत्तरोत्तर विकास के द्वारा संचालित होता रहा है। सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक धरातल पर होनेवाली घटनाएँ अंततः आधारभूत आर्थिक ढाँचे में हो रहे विकास का प्रतिबिंब मात्र हैं। विकास की इस प्रक्रिया में अलग-अलग देशों और समाजों का प्रस्थान-बिंदु अलग-अलग हो सकता है। लेकिन अंततः पूँजीवाद आते-आते सारा विश्व इतिहास एकरूप हो जाता है। विश्व-भर में पूँजीवाद का पतन और समाजवाद का उदय इतिहास की अनिवार्य परिणति है।

लोहिया को मार्क्स या उनके समकालीन चिंतकों की यूरोप-केंद्रित एकांगी दृष्टि मंजूर न थी। इतिहास को एक दिशा में उत्तरोत्तर विकास मानने की बजाय लोहिया ने इतिहास चक्र की अवधारणा को स्थापित किया। इस चक्र में विकास और पतन दोनों अवश्यंभावी हैं। साथ ही लोहिया ने केवल एक कारक के मोह को छोड़ते हुए विश्व इतिहास को परिचालित करनेवाली तीन शक्तियों या प्रक्रियाओं का जिक्र किया। पहला, वर्ग और जाति का एक दूसरे में बदलना। यहाँ यह याद रखने की जरूरत है कि लोहिया ‘वर्ग’ को मार्क्सवादी अर्थ में नहीं समझते। ‘जाति’ को भी वह केवल भारतीय संदर्भ में नहीं देखते थे। उन्होंने ‘वर्ग’ का प्रयोग एक ऐसे सामाजिक विभेदीकरण के लिए किया जिसमें ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर जाना संभव है। उनके लिए ‘जाति’ एक ऐसी व्यवस्था का नाम है जिसमें ऐसा परिवर्तन संभव नहीं है, जो कि जड़ हो चुकी है। लोहिया के अनुसार विश्व इतिहास में जाति के वर्ग और वर्ग के जाति बनने की प्रक्रिया सदैव चलती रहती है। जब कोई देश या सभ्यता अपने उभार पर होती है तब उसकी आंतरिक उदारता वर्ग-संरचना का रूप लेती है। ढलान या पतन के दौर में किसी भी देश में जाति-व्यवस्था स्थापित होती है। इतिहास की दूसरी प्रक्रिया इसी से जुड़ी हुई है। लोहिया के अनुसार विश्व इतिहास में सभ्यताओं का उभार और पतन निश्चित है। कोई भी एक देश या सभ्यता दुनिया में शीर्ष पर बहुत देर के लिए बनी नहीं रह सकती है। इतिहास की तीसरी प्रक्रिया सभ्यताओं के उठा-पटक का फैसला करती है। इसके मूल में है हर सभ्यता द्वारा अधिकतम कार्य-कुशलता की तलाश और उसे प्राप्त कर लेने के बाद आनेवाला एक ठहराव। इन तीनों प्रक्रियाओं का मिला-जुला असर इतिहास चक्र को निरंतर चलाता रहता है। जो ऊपर हैं उन्हें नीचे और जो नीचे हैं उन्हें ऊपर लानेवाली उठा-पटक की प्रक्रिया इतिहास में अनवरत चलती रहती है।

आज से पचास साल पहले इतिहास के इस महावृत्तांत की अपनी उपयोगिता थी। इस कहानी में गैर-यूरोपीय देश केवल यूरोप के पुछल्ले की भूमिका में नहीं थे। यहाँ उनकी स्वतंत्र भूमिका थी। लोहिया की कहानी यह भरोसा दिलाती थी कि तीसरी दुनिया के गरीब देश आज भले ही इतिहास चक्र के चलते दबे हुए हैं, लेकिन भविष्य में उनकी भी बारी आएगी। साथ ही वह कहानी यह विश्वास भी जगाती थी कि इतिहास चक्र के शीर्ष पर पहुँचने के लिए इन देशों को यूरोप और अमरीका की नकल करने की जरूरत नहीं है। लोहिया की दृष्टि मानव इतिहास को केवल आर्थिक शक्तियों के प्रतिबिंब के रूप में देखने से बचाती थी। वर्ग और जाति को इतिहास चक्र के एक हिस्से के रूप में देखने का भी एक बड़ा फायदा था। समाज परिवर्तन की चाह रखनेवालों को इससे आशा बँधती थी कि जाति-व्यवस्था भारतीय समाज का अनिवार्य़ अभिशाप नहीं है। जैसे-जैसे समाज में गतिशीलता बढ़ेगी, जाति-व्यवस्था टूटेगी।

लेकिन इन तमाम खूबियों के बावजूद इतिहास चक्र की अवधारणा इक्कीसवीं सदी के क्रांतिकारियों को बहुत मदद नहीं कर सकती। लोहिया की कहानी के निष्कर्ष यूरोपीय परंपरा से भिन्न होने के बावजूद इस कहानी का ढाँचा वैसा ही था जैसा कि हीगल और मार्क्स की कहानियों का। उनकी तरह लोहिया ने भी भूत और भविष्य को एक अनिवार्य विधान का हिस्सा बताया। उन्हीं की तरह लोहिया ने भी अपनी आशाओं और अपने आदर्शों को भविष्य का नाम दिया। उन्हीं की तरह लोहिया के इतिहास दर्शन को भी सबसे बड़ी चुनौती इतिहास के प्रवाह ने ही दी। न हीगल और मार्क्स का इतिहास दर्शन उनके जाने के बाद इतिहास की सटीक व्याख्या कर पाया, न ही लोहिया का इतिहास चक्र इस कसौटी पर खरा उतरता दिख रहा है। अगर इतिहास चक्र की अवधारणा सटीक होती तो उपनिवेश टूटने के बाद यूरोपीय सभ्यता का वर्चस्व टूटना चाहिए था। कम-से-कम उसकी शक्ति घटनी चाहिए थी। लेकिन पिछले पचास साल में इसका कोई सबूत नहीं मिला है। अमरीका के झंडे तले औपनिवेशिक सत्ता के केंद्र और भी मजबूत हुए हैं। पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में विध्वंस झेलने के बाद यूरोप फिर उठ खड़ा हुआ और एक बड़ी आर्थिक-राजनैतिक शक्ति बनने की ओर अग्रसर है। उधर औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त हुए अधिकतर देश बद से बदतर होते जा रहे हैं, गरीबी और भुखमरी का दंश झेल रहे हैं। यानी कुल मिलाकर विश्व इतिहास में सत्ता का केंद्र आज वहीं है जहां वह डेढ़ सौ साल पहले था। कोई अति आशावादी व्यक्ति ही कहेगा कि यह सत्ता-केंद्र अब टूटने के कगार पर है।

बेशक कोई लोहियावादी यह जरूर कह सकता है कि इससे इतिहास चक्र की अवधारणा खंडित नहीं होती है। यह कहा जा सकता है कि सत्ता का केंद्र पलटकर यूरोप से अमरीका में चला गया। पिछले कुछ दशकों में जापान और चीन के बढ़ते असर का जिक्र किया जा सकता है। शायद यह भी कहा जा सकता है कि पिछले पचास साल में इतिहास का चक्र कुछ टेढ़ी डगर पर चल रहा है, लेकिन देर-सबेर इतिहास सही रास्ते पर आएगा। लेकिन यह कमजोर तर्क है। ठीक वैसे ही तर्क, जैसे मार्क्स के अनुयायियों ने मार्क्स की भविष्यवाणी सच होने के बारे में गढ़े थे। कहने का मतलब यह नहीं है कि लोहिया की इतिहास दृष्टि गलत थी। शायद बीसवीं सदी का यही सबक है कि इतिहास की कोई भी व्याख्या भविष्य का पूरा नक्शा नहीं खींच सकती है। समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन की राजनीति करनेवालों के लिए इस तरह का इतिहास दर्शन बहुत घातक है। जो इतिहास रचने का सपना पालते हैं उन्हें इतिहास में मानवीय दखल की गुंजाइश को मानना ही होगा। अगर इतिहास मानव कर्म से बनता है तो उसके अनिवार्य नियम और विधान नहीं हो सकते। यह सच है कि क्रांतिकारी राजनीति संभावनाओं के आकलन और आशा की किरण के अभाव में खड़ी नहीं हो सकती। लेकिन उन्नीसवीं सदी का इतिहास दर्शन इस लिहाज से एक कमजोर संबल साबित हुआ है। इस सिद्धांत पर निर्भरता मार्क्सवादी राजनीति के पतन की वजहों में से एक रही है। लोहियावादी राजनीति सीधे-सीधे इस दर्शन पर निर्भर नहीं रही। लेकिन इक्कीसवीं सदी के कुजात लोहियावादियों को इसका सहारा छोड़कर संभावनाओं और आशाओं के नए विधान की रचना करनी होगी।

कुजात लोहियावाद का भविष्य

अगर लोहिया की रणनीति और उनके इतिहास दर्शन के महत्त्वपूर्ण अंश इक्कीसवीं सदी के लिए मददगार नहीं हैं, तो आखिर हम लोहिया को क्यों याद करें? उन्नीसवीं सदी के यूरोप में उपजी समता और क्रांति की विचारधाराओं का बहुत बड़ा अंश आज अप्रासंगिक हो चुका है। क्या उनकी तरह लोहिया-विचार की जगह भी महज अभिलेखागार में ही है? ऊपर जो कुछ कहा गया है उससे ऐसा लग सकता है, मानो इस लेख में लोहियावाद की बुनियादी स्थापनाओं का खंडन करने की कोशिश की जा रही है। यों भी राजनीति और विचार जगत के हाशिये पर होने की वजह से लोहियावादी किसी भी आलोचना के प्रति अति संवेदनशील हो जाते हैं। यहाँ हमने लोहिया-विचार में अप्रासंगिक या अनुपयोगी अंशों की चर्चा सबसे पहले इसीलिए की, ताकि इक्कीसवीं सदी में लोहिया-विचार की प्रासंगिकता की चर्चा ठीक से हो सके। समाजवाद का विचार और समाजवादी राजनीति एक गहरे संकट में हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद से दुनिया-भर में मानो प्रतिक्रांति का उत्सव चल रहा है। इस प्रतिक्रांति का निशाना सिर्फ रूस-परस्त कम्युनिस्ट ही नहीं बने। पिछले पंद्रह बरस में समता और क्रांति के विचार पर अभूतपूर्व हमला हुआ है। एक शोषण-मुक्त समाज की कल्पना तक को नकारा जा रहा है। पिछले डेढ़ सौ सालों से यूरोप के प्रगतिशील आंदोलनों की परंपरा समाजवादी राजनीति की प्राणवायु रही है। आज वह परंपरा मानो एकाएक लुप्त हो गई है। ऐसे में इक्कीसवीं सदी के क्रांतिकारियों को एक नए क्रांति-धर्म की रचना करनी होगी। लोहिया बीसवीं सदी के उन चंद समाजवादी चिंतकों में से एक हैं जिनके विचार पिछले पंद्रह साल में पूरी तरह अप्रासंगिक नहीं हो गए हैं। लोहिया-विचार में ऐसे अनेक सूत्र मिलते हैं जिनकी मदद से इक्कीसवीं सदी के क्रांति-धर्म की रचना की जा सकती है। इस लिहाज से लोहिया के विचार अपने समय से आगे थे। लेकिन लोहिया से सीखते वक्त हमें यह याद रखना होगा कि लोहिया के ये सूत्र या इशारे हमारी खोज का प्रस्थान-बिंदु हो सकते हैं, हमारी अपनी खोज के विकल्प नहीं।

पहला सूत्र लोहिया के विचार का सबसे बुनियादी बिंदु था। इसे इक्कीसवीं सदी के क्रांति-धर्म का प्रस्थान-बिंदु होना होगा। लोहिया गैर-यूरोपीय समाजवाद के पहले और शायद सबसे मौलिक चिंतक थे। ऐसा नहीं कि लोहिया यूरोप के बाहर पहले समाजवादी थे। समाजवाद का स्थापित मार्क्सवादी विचार यूरोप के बाहर कई देशों में फैला। लोहिया से पहले दुनिया के अनेक गैर-यूरोपीय देशों और खुद भारत में अनेक समाजवादी थे। लेकिन वे सब यह मानकर चलते थे कि समाजवाद की यूरोपीय अवधारणा एक विश्वव्यापी विचार है। समाजवाद को यूरोप से बाहर ले जाने के लिए उसके सिद्धांत और अवधारणाओं में किसी बुनियादी बदलाव की जरूरत नहीं है। ज्यादा-से-ज्यादा रणनीति और विश्लेषण संबंधी कुछ मामूली संशोधन करने की जरूरत है। भारत के कम्युनिस्ट कमोबेश यही सोचते थे। यहाँ तक कि कम्युनिस्टों से असहमति रखनेवाली कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी भी तीस के दशक में यही सोच रखती थी।

इस सोच को पलटने का साहस रखनेवाले पहले चिंतक लोहिया ही थे। शायद इस मायने में बीसवीं सदी में उनका कोई सानी नहीं है। लोहिया ने यह स्थापित किया कि समाजवाद का अर्थ विश्व-भर में एक जैसा नहीं हो सकता। अब तक समाजवाद के नाम से जो विचारधारा जानी गई है वह यूरोप-केंद्रित है। यूरोप में जनमी और यूरोप में पली-बढ़ी यह विचारधारा केवल यूरोप के ऐतिहासिक अनुभव पर आधारित है और यूरोपीय मूल्यों को आदर्श मानकर चलती है। दुनिया के बाकी देशों के लिए, और खासतौर पर उपनिवेशवाद का शिकार हुए देशों के लिए समाजवाद की यह अवधारणा अनुपयुक्त है। इसलिए समाजवाद के विचार को एक नए सांचे में ढालने की जरूरत है। पचमढ़ी अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में लोहिया ने इस नए विचार को ‘एशियाई समाजवाद’ कहा। लोहिया का सारा चिंतन इस पुराने यूरोप-केंद्रित समाजवाद के स्थान पर एक नए समाजवाद का सैद्धांतिक आधार तैयार करने का प्रयास था। इस लिहाज से लोहिया अपने जमाने के सभी समाजवादियों से बुनियादी तौर पर भिन्न थे। उस समय के कम्युनिस्ट तो सीधे-सीधे सोवियत संघ की पूँछ पकड़कर चल रहे थे। उधर कम्युनिस्टों का विरोध करनेवाले लोकतांत्रिक समाजवादी ही ब्रिटेन की लेबर पार्टी को अपना मॉडल मानते थे। आज ये दोनों मॉडल ध्वस्त हो चुके हैं और इन पर आधारित राजनीति का खोखलापन जग-जाहिर है। इन दोनों रास्तों से अलग एक तीसरे रास्ते की खोज का शुरुआती बिंदु लोहिया-विचार हो सकता है।

इस तीसरे मार्ग की दिशा लोहिया ने जरूर दिखाई लेकिन उसका नक्शा नहीं खींचा। उनके लेखन में यह इशारा मिलता है कि समता के आदर्श को केवल यूरोपीय एकांगी दृष्टि से देखने की बजाय उसका विस्तार करने की जरूरत है। लोहिया की सप्तक्रांति की अवधारणा जीवन के आर्थिक पक्ष से आगे बढ़कर सभी किस्म की असमानताओं और शोषण के विरुद्ध खड़े होने का आह्वान करती है। आज यह कहना सहज है कि नर-नारी समता या जाति-व्यवस्था का उन्मूलन केवल आर्थिक विषमता के विरुद्ध संघर्ष से हासिल नहीं हो जाएगा। लेकिन आज से पचास साल पहले समाजवादी दायरों में यह कहना आसान नहीं था। लोहिया की इस वैचारिक जिद ने शायद आज हम सब के लिए यह देखना और कहना संभव बनाया है। इसी तरह गैर-यूरोपीय समाज को समझने के लिए एक नई दृष्टि रखने की बात लोहिया के जमाने में उनकी संकीर्णता और सनक ही समझी जाती थी। लेकिन पिछले बीस वर्षों में एडवर्ड सईद की पुस्तक ओरिएंटलिज्म के बाद से पूरा समाजशास्त्र इसी अध्ययन-मनन में लगा हुआ है। विडंबना यह है कि भारत के बुद्धिजीवी को भी यह विचार एडवर्ड सईद और उनके अमरीकी अनुयायियों से मिला है, लोहिया से नहीं।

इसी तरह पूँजीवाद और उपनिवेशवाद के जुड़वाँ होने का सिद्धांत लोहिया ने 1944 में प्रतिपादित किया। लोहिया ने कहा कि उपनिवेशवाद पूँजीवाद का अंतिम चरण या उसकी विकृति नहीं है। पूँजीवाद की बुनियाद में ही औपनिवेशिक लूट और शोषण है। उस वक्त किसी बुद्धिजीवी ने लोहिया की बात पर कान नहीं दिया। लेकिन सत्तर और अस्सी के दशक में जब कमोबेश यही विचार आंद्रे गुंदर फ्रैंक और उनके डिपेंडेंसी स्कूल के विद्वानों ने रखा तो उसपर दुनिया-भर के समाजशास्त्रियों में खूब बहस हुई। उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय समाजवाद ने सत्य को देश और काल निरपेक्ष माना था। लोहिया ने सत्य की इस स्थूल अवधारणा को खारिज करते हुए यह कहने का साहस किया कि सत्य केवल एक कोण से देखा जा सकता है। सत्य की सापेक्षता को राजनीति से जोड़ने की यह एक अद्भुत मिसाल थी। पिछले कुछ सालों से पश्चिमी विचारक पोस्ट मॉडर्निज्म (उत्तर आधुनिकता) के नाम पर सत्य की सापेक्षता के बारे में काफी उत्तेजित हैं। लेकिन पोस्ट मॉडर्निज्म की माला जपनेवाले किसी भी भारतीय विद्वान ने लोहिया को पढ़ने की कोशिश नहीं की है। इक्कीसवीं सदी के कुजात लोहियावादियों का धर्म होगा कि वे इनमें सूत्रों को पकड़कर एक वैकल्पिक समाजशास्त्र की रचना करें।

उपरोक्त चर्चा में लोहिया के सैद्धांतिक पक्ष का ही जिक्र आया है। लेकिन लोहिया महज चिंतक या समाजशास्त्री नहीं थे। लोहिया की विरासत समाजवाद के सिद्धांत की पुनर्रचना में मदद देने के साथ-साथ समाजवादी राजनीति की पुनर्रचना में भी योगदान दे सकती है। लोहिया ने राजनैतिक कर्मभूमि में समाजवादी परंपरा और गांधी विचार के अनूठे संगम की कोशिश की। लोहिया के ‘वोट, जेल और फावड़ा’ के नारे ने राजनैतिक कर्म की संभावनाओं का विस्तार किया। समाजवाद की पुरानी परंपरा सिर्फ संघर्ष को महत्त्व देती थी। लोकतांत्रिक समाजवादियों ने उसकी बजाय सिर्फ चुनावी राजनीति पर अपना ध्यान केंद्रित किया। लोहिया ने इन दोनों को गांधीजी के रचनात्मक काम की परंपरा से जोड़ा और उसे राजनीति के अनिवार्य अंग के रूप में स्थापित किया। इक्कीसवीं सदी में क्रांतिकारी राजनीति की कल्पना करनेवाले अपनी शुरुआत इन तीन सूत्रों से कर सकते हैं। यही नहीं, लोहिया ने साध्य और साधन में संबंध स्थापित करने के गांधीवादी आग्रह को समाजवादी राजनीति में जगह दी। लोहिया के ‘तात्कालिकता के सिद्धांत’ की यह मांग है कि किसी भी आंदोलन के दीर्घकालिक लक्ष्यों और उसके तात्कालिक कार्यकलाप में कोई विरोधाभास नहीं होना चाहिए। कुजात लोहियावादी इन कसौटियों से शुरू करके क्रांतिकारी राजनीति की नई मर्यादा तय कर सकते हैं।

राजनैतिक दर्शन और राजनैतिक कर्म के अलावा लोहिया की राजनैतिक शैली भी इक्कीसवीं सदी के क्रांतिकारियों के लिए कई नई संभावनाएं खोलती है। लोहिया से पहले समाजवादी राजनीति के लिए राजनीति का मतलब राज्य-सत्ता से जुड़ा एक संकीर्ण दायरा था। समाजवादी राजनीति का उद्देश्य भी अंततः राज्य-सत्ता हासिल करना था। लोहिया ने राजनीति की इस स्थापित परिभाषा को अपने विचार, कर्म और अपनी अनूठी शैली से चुनौती दी। लोहिया से पहले राजनीति में नर-नारी संबंध, कला, साहित्य, नदियों या मिथकों की बात नहीं की जाती थी। ये सब गैर-राजनैतिक विषय थे। लोहिया इन सब को राजनैतिक बहस के दायरे में लाए। लोहिया से पहले ‘प्रगतिशील’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ राजनीति करनेवाले लोग धर्म-ग्रंथों, सांस्कृतिक प्रतीकों और मिथकों का प्रयोग करने से परहेज करते थे। खुद नास्तिक होते हुए भी लोहिया ने भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं से संवाद स्थापित करते हुए एक अनूठा मुहावरा गढ़ा। नर-नारी समता के लिए द्रौपदी बनाम सावित्री का रूपक गढ़ा, जाति-विषमता के बारे में वशिष्ठ बनाम वाल्मीकि की बहस चलाई। और राम, कृष्ण और शिव को तीन राजनैतिक प्रवृत्तियों के बतौर पेश किया। एक देशज किस्म की आधुनिकता गढ़ने का यह अनूठा प्रयोग न लोहिया के पहले हुआ, न उनके बाद। धर्मनिरपेक्ष राजनीति के संकट के इस दौर में लोहिया के प्रयास से सीखने और उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है।

लोहिया के जीवन काल में उनकी सभी किताबों का कवर एम.एफ. हुसेन ने बनाया था। तब हुसेन इतने प्रसिद्ध नहीं हुए थे और लोहिया के पसंदीदा कलाकार थे। शायद उसका कारण यह हो कि लोहिया के अपने चिंतन और हुसेन की पेंटिंग शैली में कहीं कुछ साम्य है। हुसेन की पेंटिंग की तरह लोहिया भी एक बड़े कैनवास पर मोटी ब्रश से बड़ी रेखाएँ खींचना पसंद करते थे। लोहिया के चिंतन में एक बेपरवाह शिल्पी का सा अधूरापन है। मोटी रूपरेखा है लेकिन बारीकियाँ और तफसील नहीं। तीखे सवाल हैं, लेकिन स्पष्ट जवाब नहीं। कड़े और ठोस निषेध हैं, लेकिन विकल्प नहीं। कुजात लोहियावादियों के लिए यही चुनौती है। अगर वे लोहिया के चिंतन को एक संपूर्ण वाद मानकर चलेंगे तो उससे सीख नहीं पाएंगे। लेकिन उसे वैचारिक पद्धति और संकेत मानकर अपना रास्ता खुद तय करने की कोशिश करेंगे तो बहुत दूर तक जाएंगे। कुजात लोहियावाद का भविष्य और इक्कीसवीं सदी में क्रांतिकारी राजनीति का भविष्य इसी पर निर्भर करता है।

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