नागरिक सक्रियता से ही निकलेगी राह – आनंद कुमार

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ए सत्ताधीशों की मेहरबानी से आज देश में सिवाय लोकतंत्र की अनिवार्यता के किसी सवाल पर कोई राष्ट्रीय सहमति नहीं बची है। फिर भी इस सरकार ने जनहित की दिशा में नीति-सुधार की बजाय पुलिस के बल पर लोकतंत्र का दम घोंटने का दुस्साहस दिखाया है। कई हजार किसान भारत की खेती को मनपसंद पूंजीपतियों को सौंपने के कानूनों के खिलाफ देश की राजधानी की सरहदों पर शांतिपूर्ण धरना दे रहे हैं और सरकार पर कोई असर नहीं है। इससे मजबूर होकर किसानों की संयुक्त संघर्ष समिति ने ‘भारतीय जनता पार्टी हराओ!’ का झंडा उठाकर चुनाव अभियान में प्रवेश किया है।

उधर मजदूरों के दस राष्ट्रीय संगठनों ने एक संयुक्त संघर्ष समिति बना ली है। इसकी तरफ से देशी-विदेशी उद्योगपतियों के दबाव में भारत के सार्वजनिक उद्योगों के निजीकरण और श्रमजीवियों के हितों के खिलाफ किए गए कानूनी बदलावों को रोकने के लिए तीन बरस से लोकतांत्रिक तरीके से एकजुट विरोध जारी है। लेकिन केंद्र सरकार रेल और बीमा कंपनी से लेकर हवाई अड्डों और बंदरगाहों को मनपसंद पूंजीपतियों को सौंपने और श्रमजीवियों के लोकतांत्रिक अधिकारों को रौंदने पर तुली हुई है। श्रमिक संगठनों से बातचीत करने का श्रममंत्री को अवकाश नहीं मिला है।

देश के कालेजों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा के व्यवसायीकरण, शिक्षित बेरोजगारी और विश्वविद्यालयों में सत्ताधारी पार्टी के खुले हस्तक्षेप के खिलाफ विद्यार्थियों और शिक्षकों में गहरा रोष है। फिर भी शिक्षाकेंद्रों की स्वायत्तता को रौंदना जारी है। देश के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को पुलिस के निशाने पर ले लिया गया है।

हमारी सरकार विरोध को देशद्रोह करार देते हुए चौतरफा पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, समाजसेवकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को बेसिर-पैर के आरोपों में गिरफ्तार कर रही है। इक्कीस बरस की पर्यावरण रक्षिका दिशा रवि से लेकर बयासी बरस के वयोवृद्ध कवि वरवरा राव तक को गिरफ्तार करना हर स्वतंत्रताप्रेमी के लिए चिंता का विषय बना।  

 लेकिन इस संकट में भी सबको नुकसान नहीं हो रहा है।

केंद्र सरकार के संरक्षण में फल-फूल रहे नवोदित अडानी समूह की कुल संपत्ति में मात्र 2020-21 में 16 अरब से अधिक की बढ़ोतरी हुई है। दूसरे चहेते अरबपति मुकेश अंबानी ने भी अपनी संपदा में इसी एक बरस में आठ अरब की बढ़ोतरी कर ली है। अडानी टोटल गैस लिमिटेड में 96 फीसद, अडानी इंटरप्राइजेज में 90 फीसद, अडानी ट्रांसमिशन लिमिटेड में 79 फीसद और अडानी पॉवर लिमिटेड तथा अडानी पोर्ट्स एंड स्पेशल इकोनोमिक जोंस लिमिटेड में 52 प्रतिशत की बढ़ोतरी का समाचार है। अडानी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड विगत वर्ष 500 प्रतिशत बढ़ी थी। अब अडानी समूह को कृषि उत्पादन और अन्न व्यापार में कब्जा दिलाने के लिए केंद्र सरकार खुलेआम तीन नए कानून बना चुकी है।

राजनीतिक स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का साम-दाम-दंड-भेद के जरिये वर्चस्व बनाया जा रहा है। दल-बदल, खरीद-बिक्री, और जांच संस्थाओं का दुरुपयोग इसके तीन बड़े अस्त्र हैं। इस दुष्कर्म में इसने अपने पूर्ववर्ती शासक दल को बहुत पीछे छोड़ दिया है।

देशों के घटनाक्रम में संकटों का उत्पन्न होना एक अनहोनी नहीं कही जा सकती। लेकिन किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की यह जिम्मेदारी होती है कि इन संकेतों को स्वीकारते हुए समस्या-समाधान के लिए संविधान सम्मत उपाय करे। आज अफसोस की बात है कि हमारे सत्ता-प्रतिष्ठान ने समाधान के उपायों की ओर ध्यान देने की बजाय देश की गंभीर चुनौतियों के लिए मूलत: अबतक के सत्तर सालों की सरकारों, विशेषकर जवाहरलाल नेहरू की नीतियों को जिम्मेदार बताने तक ही अपनी भूमिका रखी है।

यह हास्यास्पद बचाव है। हम इस सच का क्या करें कि नेहरू सत्तर साल की बजाय कुल 12 बरस तक वास्तव में सत्ता-सूत्रधार थे। क्योंकि 1947-1951 की शुरू की चार बरस की संक्रमण-अवधि में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे विपरीत नीतियों वाले लोग भी उनके साथ सत्ता-संचालन में साझेदार थे। इसके समांतर यदि अटलबिहारी वाजपेयी (1999-2004) और नरेंद्र मोदी (2014 – 2021 (2024) का शासनकाल जोड़ा जाए तो इनकी 11 बरस की सत्ता-संचालन अवधि नेहरू-सरकार की 12 बरस की वास्तविक अवधि के निकट पहुँच जाता है।

इसीलिए मुख्य प्रश्नों के न सुलझने पर इधर एक बरस से फैल रही कोरोना महामारी और उससे जुड़ी अफरा-तफरी (‘लाक-डाउन’) को दोषी ठहराया जाता है। इसके जवाब में यह कैसे भुला दिया जाए कि कोरोना के संकट के पहले 2018-19 से ही भारत की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी थी।

फिर भी नेहरू की गलत नीतियों और कोरोना के दुष्प्रभाव- दोनों ही कारणों की भूमिका से इनकार किए बिना ज्यादातर लोगों का यह मानना है कि देश की वर्तमान समस्याओं के मूल में मौजूदा सरकार के तीन महादोष हैं- सत्ताधीशों द्वारा अपने चहेते मुट्ठीभर अरबपतियों की हितरक्षा की अर्थनीति (‘क्रोनी कैपिटलिज्म’), बहुसंख्यकवाद की राजनीति (‘मेजोरिटेरियनिज्म’) और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की समाजनीति का गठजोड़ है। इस गठजोड़ ने लोकतंत्र के सभी छह आधार स्तंभों को (अर्थात 1. विधायिका, 2. कार्यपालिका, 3. न्यायपालिका, 4. मीडिया, 5. राजनीतिक दल व्यवस्था, और 6. नागरिक समाज) कमजोर कर दिया है।

देश की संसद या विधानमंडलों में होनेवाले संवाद का कोई असर नहीं दीखता। विधायिका हाशिये पर धकेल दी गई है। वैसे भी चुनाव प्रणाली की पवित्रता से भरोसा उठ चुका है। पहले से ही धनशक्ति, मीडिया और अपराधियों की बढ़ती भूमिका की समस्या थी। इधर इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन का विवाद जुड़ गया है। चुनाव नतीजों से अलग विपक्षी दलों के विधायकों की खुली खरीद की जा रही है।

कार्यपालिका में प्रधानमंत्री कार्यालय सर्वेसर्वा बन चुका है। इससे जानकार लोग वर्तमान मोदी-शाह सरकार की तुलना आपातकाल की इंदिरा-संजय सरकार से करने लगे हैं। आलोचकों की मनमानी गिरफ्तारी के दौर में कोई दूसरा दौर कैसे याद आएगा ?

‘पूर्व न्यायमूर्ति/ नव मनोनीत सांसद रंजन गोगोई प्रसंग’ और ‘प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना के प्रसंग’ ने दुनिया भर में भारत की न्यायपालिका की बढ़ती गिरावट को चर्चा का विषय बना दिया है। अब हमारी न्यायपालिका की अस्वस्थता कोई ‘राष्ट्रीय रहस्य’ नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीशों से लेकर सरोकारी वकीलों तक एक स्वर से बीमार बना दी गई न्याय-व्यवस्था के सुधार के लिए जन-जागरण में जुटने को विवश हो गए हैं। बीमार न्यायपालिका समाज को स्वस्थ कैसे बना पाएगी? कानून का राज खत्म होने पर असामाजिक तत्त्वों और भीड़ का दबदबा बढ़ना कौन रोकेगा?

मीडिया के क्षेत्र में सत्तारूढ़ पार्टी के चहेते पूंजीपतियों ने एकाधिकार बना लिया है। ज्यादातर टीवी पत्रकार सत्ताप्रतिष्ठान की बुलबुल बन गए हैं। इसका असर अखबारों और सोशल मीडिया पर भयानक हो गया है। राजा का बाजा बनने की होड़ में समाज में विदेशी मीडिया, अर्ध-सत्य और अफवाहों का महत्त्व बढ़ गया है। मीडिया में सरकार की लगाम थामे कुछ पूंजीपतियों के निर्बाध वर्चस्व से देश में नीतियों के बारे में बहस बंद हो गयी है। लोकशिक्षण और असहमति के लिए मीडिया में स्थान के अभाव से लोकतंत्र की बुनियाद हिल गई है।

राजनीतिक दल संसदवाद की विवशताओं के कारण काले धन और वोट-बैंक के बीच आंतरिक जनतंत्र से अलग हो चुके हैं। फिर व्यक्तिपूजा का अविश्वसनीय सिलसिला बन चुका है। विचारों का अवमूल्यन ही सत्ता की सीढ़ी बन गया है। इसलिए गैर-सरकारी दलों की अलग छबि नहीं दीखती। भरोसा नहीं बन पाता। नाग-नाथ और सांप-नाथ के बीच क्या अंतर हो सकता है?

भारत समेत हर लोकतांत्रिक देश में नागरिक समाज दलों के दायरे से अलग एक महत्वपूर्ण लेकिन अपरिभाषित और गतिशील पक्ष होता है। लेकिन यह दलों से असंबद्धता के बावजूद ‘अ-राजनीतिक’ नहीं होता। संविधान की रक्षा, राष्ट्रीय हितों की निगरानी, संस्थाओं की निर्मलता और राज्यसत्ता और लोकसत्ता के बीच संवाद इसकी राजनीतिक जिम्मेदारी की सूची में शामिल रहते हैं।

हमारे देश में 1974 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के बाद से इसका महत्त्व भी बढ़ता गया है। आज केंद्र सरकार      ने संवाद की बजाय विवाद और समस्या समाधान की बजाय प्रतिरोधियों के दमन का रास्ता अपनाकर सभी विरोधी दलों को आत्मरक्षा के लिए विवश कर रखा है इसलिए दलों की निकटता के लिए भी नागरिक समाज की भूमिका की प्रासंगिकता बढ़ी है। हमारे लोकतंत्र के बाकी पांच स्तंभों की सुरक्षा भी इसी के हिस्से आ गई है।

इसलिए विविध संवादों की जरूरत है। इससे नई राष्ट्रीय सहमति की जरूरत पूरी होगी। विभिन्न अभियानों और आंदोलनों का संगम होगा। बिना नई राष्ट्रीय सहमति के दवाई-कमाई-पढ़ाई-सफाई-रिहाई के पंचमुखी नव-निर्माण की जरूरत पर कौन ध्यान देगा? इस दिशा में देश के नीति-निर्माताओं को गाँव-सभा से लोकसभा तक प्रेरित कौन करेगा? नए वाहकों और नए वाहनों का संयोजन और संरक्षण कौन करेगा? वित्तीय पूंजी और सांप्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ से आक्रांत देश के 130 करोड़ स्त्री-पुरुषों का; किसानों, श्रमजीवियों, व्यवसायियों-उद्योगपतियों; बच्चों-युवजनों-गृहस्थों-बुजुर्गों का संकटमोचक कौन बनेगा?

 

2 COMMENTS

  1. सर्वव्यापी अंधेरे में रोशनी का जीवंत दस्तावेज है यह आलेख. ‘आनंद कुमार जी ‘ जैसे ऊर्जावंत मार्गदर्शकों के सामयिक दुर्लभ सोच-चिंतन का अधिकाधिक प्रसार सजग नागरिकों का दायित्व है.
    मैंने इस आलेख को भी 50 ग्रुप में साँझा किया है.
    ‘समता मार्ग पोर्टल को बहुत बहुत बधाई और आनंद कुमार जी का अत्यंत आभार. 🌷🌷🌷📖📖📖🙏🙏🙏

  2. गुरुवर आनन्द कुमार जी बड़ी और टेड़ी बात को जिस सरलता और मजेदार ढंग से कहते हैं वह इनकी खासियत और ताकत है । ईश्वर से प्रार्थना है कि स्वस्थ और दीर्घायु रहें ।एक एक अन्याय के चट्टान को तोड़ते रहें ।

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