— राजू पाण्डेय —
यह समय ऐसे दृश्यों का सृजन कर रहा है जिनके बारे में किसी को भी संशय हो सकता है कि यह एक ही देश और काल में रचे गए हैं। पूरे देश में कोविड-19 की दूसरी लहर का निर्मम प्रसार इंसानी जिंदगियों को लील रहा है। सर्वत्र भय है, अफरातफरी है, अव्यवस्था है, जलती चिताएं हैं, अंतिम संस्कार के लिए अपने आत्मीय जनों की पार्थिव देह के साथ परिजनों की अंतहीन-सी प्रतीक्षा है, रुदन और क्रंदन के स्वर हैं।
समाज पर आई इस विपदा और इस विलाप में राज कहां है? क्या कर रहा है? वह विश्वकवि का बहुरूप धारण कर चुनावी सभाओं में व्यस्त है। सलीकेदार पहनावा, निर्दोष और परिष्कृत केशसज्जा देखते ही बनते हैं। सस्ते संवाद और स्वर के आरोह-अवरोह पर विशेष ध्यान है। कभी कभी हास्य पैदा करने की चेष्टा पर आज्ञापालक प्रजा पता नहीं श्रद्धा अथवा भय, किस भाव की प्रधानता के कारण ठहाके लगाने लगती है। यदि इस विसंगतिपूर्ण परिस्थिति का परिणाम भयंकर न होता तो कदाचित आप भी एक वितृष्णापूर्ण मुस्कान अपने चेहरे पर ला सकते थे। चुनावी भाषण में देश में इस वैश्विक महामारी के अंधाधुंध प्रसार का कोई जिक्र तक नहीं।
एक ही प्राथमिकता है और वह है सत्ता, और अब इसे छिपाया नहीं जाता। निर्लज्जता से उसका इजहार किया जाता है। और इसे आदर्श माननेवाले नेताओं की एक पूरी पीढ़ी सत्तापक्ष और विपक्ष में तैयार हो रही है। इन नेताओं की भी कुछ वैसी ही विशेषताएं हैं- ये आत्ममुग्ध हैं, बड़बोले हैं, असत्य भाषण में सिद्धहस्त हैं, (मिथ्या)प्रचार प्रिय हैं, आलोचना के प्रति असहिष्णु हैं, भाषा के संस्कार से इनका कोई लेना-देना नहीं हैं और इनका ईश्वर कुर्सी है।
कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी इस कठिन समय में असम और केरल जैसे राज्यों की चुनावी सभाओं में वैसे ही स्तरहीन चुनाव प्रचार में व्यस्त रहे हैं। इनके अपने राज्यों में हाहाकार मचा हुआ है। किंतु शहरों के होर्डिंग और अखबार उन विज्ञापनों और प्रायोजित समाचारों से पटे हुए हैं जिनमें इन राज्यों को टेस्टिंग, ट्रेसिंग, आइसोलेशन और वैक्सीनेशन में शिखर पर बताया गया है और रेमडेसेविर, ऑक्सीजन बेड तथा आईसीयू बेड की पर्याप्त उपलब्धता के दावे किए गए हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी महाराष्ट्र सरकार और उसके मुख्यमंत्री की पहली चिंता सत्ता में बने रहना है। शायद इसका खमियाजा महाराष्ट्र की जनता को उठाना पड़ रहा है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पांच राज्यों के चुनावों में अपनी पार्टी के स्टार प्रचारक हैं, निश्चित ही उनकी व्यस्तता आजकल इतनी अधिक होगी कि धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने और अपनी अवास्तविक उपलब्धियों को प्रचारित करनेवाली फिल्मों के लिए समय निकालने में भी उन्हें कठिनाई होती होगी।
प्रधानमंत्री समेत सत्तापक्ष और विपक्ष के सारे मंचासीन नेता जब बिना मास्क के सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ा रहे हों तब जनता से इन सावधानियों की अपेक्षा कैसे की जाए?
लोग इलाज के लिए दर-दर भटक रहे हैं, मौतों की संख्या रोज डरा रही है, शव का अंतिम संस्कार तक कठिन हो गया है किंतु केंद्र तथा राज्य आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में व्यस्त हैं। वैक्सीन की आपूर्ति में भेदभाव की शिकायत गैर-भाजपा शासित राज्यों की है तो इन राज्यों पर टीकाकरण में लापरवाही का आरोप केंद्र सरकार का प्रत्युत्तर है।
विचित्र दृश्यों की श्रृंखला का अंत होता नहीं दिखता। उत्तराखंड के कुंभ में हजारों लोगों की भीड़ एकत्रित थी और वहां की सरकार को इसमें कुछ भी गलत नहीं दिख रहा था, वह इसे खुला संरक्षण और समर्थन दे रही थी। अपने बेतुके और अनर्गल बयानों के लिए चर्चित उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को संकट के समय भी अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं है। यदि हम किसी नाटक के दर्शक होते तो इन विराट दृश्यबंधों की विपरीतता हमें रोमांचित कर सकती थी किंतु दुर्भाग्य से ये दृश्य हमारे जीवन का हिस्सा हैं।
क्या हमें भी उन टीवी चैनलों सा संवेदनहीन हो जाना चाहिए जो जलती चिताओं के दृश्य दिखाते दिखाते अचानक रोमांच से चीख उठते हैं – प्रधानमंत्री की चुनावी सभा शुरू हो चुकी है, आइए सीधे बंगाल चलते हैं। क्या हमें उन नेताओं की तरह बन जाना चाहिए जो कोविड समीक्षा बैठक में ‘दवाई भी और कड़ाई भी’ का संदेश देने के बाद सोशल डिस्टेंसिंग का मखौल बनाती विशाल रैलियों में बिना मास्क के अपने चेहरे की भाव-भंगिमाओं का प्रदर्शन करते नजर आते हैं। सौभाग्य से हमारे अंदर भावनाओं को ऑन-ऑफ करने वाला यह घातक बटन नहीं है।
जो विमर्श कोविड-19 से जुड़ी बुनियादी रणनीतियों पर केंद्रित होना चाहिए था वह राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के कारण बाधित हो रहा है। तार्किक और वैज्ञानिक विमर्श से वर्तमान सरकार का पुराना बैर है। देश के वैज्ञानिकों की योग्यता पर सवाल उठाना देशद्रोह है- जैसी अभिव्यक्तियाँ पुनः सुनाई देने लगी हैं।
सच्चाई तो यह है कि सरकार कोरोना की इस दूसरी लहर का पूर्वानुमान लगाने में पूरी तरह नाकाम रही। सरकार विभिन्न देशों में देखे गए इस वायरस के अनेक म्युटेंटस के हमारे देश में प्रवेश तथा भारतीय शरीर पर उनके प्रभाव को लेकर गंभीर नहीं थी। सरकार यह अनुमान लगाने में भी नाकाम रही कि कोविड-19 की दूसरी लहर बच्चों और युवाओं को भी प्रभावित कर सकती है। बच्चों पर वायरस के प्रभाव का अध्ययन पहली लहर के दौरान भी नहीं किया गया, न ही इनके लिए वैक्सीन तैयार करने की पहल की गई। सरकार ने यह भुला दिया कि विश्व के अनेक देश पहली लहर से भी भयंकर दूसरी लहर का सामना कर चुके थे। और तो और, सरकार ने महामारियों के इतिहास को अनदेखा कर दिया जो यह बताता है कि हमें दूसरी और तीसरी लहर के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
प्रधानमंत्री ने पहली लहर के दौरान हमारे देश में संक्रमण और जन-हानि कम होने की परिघटना के वैज्ञानिक कारणों के अन्वेषण के स्थान पर अपनी पीठ खुद थपथपानी प्रारंभ कर दी और इसी बहाने लाखों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी अविचारित लॉकडाउन को भी न्यायोचित ठहराने की कोशिश की। 27 जुलाई 2020 को उन्होंने कहा था- “आज भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा पीपीई किट मैन्यूफैक्चरर है। सिर्फ छह महीने पहले देश में एक भी पीपीई किट मैन्यूफैक्चरर नहीं था। आज 1200 से ज्यादा मैन्यूफैक्चरर हर रोज पांच लाख से ज्यादा पीपीई किट बना रहे हैं। एक समय भारत एन-95 भी बाहर से ही मंगवाता था। आज भारत में तीन लाख से ज्यादा एन-95 मास्क हर रोज बन रहे हैं। आज भारत में हर साल तीन लाख वेंटिलेटर बनाने की प्रोडक्शन कैपेसिटी भी विकसित हो चुकी है। इस दौरान मेडिकल ऑक्सीजन सिलेंडर्स के प्रोडक्शन में भी काफी मात्रा में वृद्धि की गई है। सभी के इन सामूहिक प्रयासों की वजह से आज न सिर्फ लोगों का जीवन बच रहा है बल्कि जो चीजें हम आयात करते थे अब देश उनका एक्पोर्टर बनने जा रहा है।”
‘वैक्सीन मैत्री’ पर राज्यसभा में वक्तव्य देते हुए विदेशमंत्री ने प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता की प्रशंसा करते हुए 17 मार्च 2021 को कहा- “भारत ने सबसे पहले अपने पड़ोसी देशों को वैक्सीन देने के साथ वैक्सीन मैत्री पहल की शुरुआत की। मालदीव, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार के साथ, मॉरीशस और सेशेल्स को वैक्सीन दी गई। इसके बाद थोड़ी दूर पर बसे पड़ोसी देशों और खाड़ी के देशों को वैक्सीन उपलब्ध कराई गई। अफ्रीकी क्षेत्रों से लेकर कैरिकॉम देशों तक वैक्सीन की आपूर्ति करने का उद्देश्य छोटे और अधिक कमजोर देशों की मदद करना था। हमारे उत्पादकों ने द्विपक्षीय रूप से या कोवैक्स पहल के माध्यम से अन्य देशों को वैक्सीन आपूर्ति करने के लिए अनुबंध भी किया है। अभी तक हमने 72 देशों को ‘मेड इन इंडिया’ वैक्सीनों की आपूर्ति की है।”
आज स्थिति यह है कि स्वास्थ्य मंत्रालय की नवीनतम गाइडलाइंस के अनुसार कोरोना की विदेशों में निर्मित वैक्सीन को भारत में तीन दिनों के अंदर मंजूरी मिलेगी। स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि इस प्रकार के विदेश में निर्मित टीकों के पहले सौ भारतीय लाभार्थियों के स्वास्थ्य पर सात दिन तक निगरानी रखी जाएगी, जिसके बाद देश के टीकाकरण कार्यक्रम में इन टीकों का इस्तेमाल किया जाएगा। इस घटनाक्रम से यह स्पष्ट होता है कि हमारी सरकार ने कोविड-19 की दूसरी लहर की आशंका को बहुत हल्के में लिया अन्यथा वह वैक्सीन मैत्री जैसी अति महत्वाकांक्षी पहल अपने देश के नागरिकों के जीवन की कीमत पर नहीं करती।
कोविड-19 के लिए वैक्सीन तैयार करने की प्रक्रिया विश्व-स्तर पर बहुत जल्दी में पूरी की गई और स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिकों को उतना समय नहीं मिल पाया जितना उन्हें अन्य टीकों को निर्दोष और हानिरहित बनाने के लिए मिलता है। हमारे देश में कोवैक्सीन को तृतीय चरण के ट्रायल के डाटा आने के पहले ही जनता के लिए स्वीकृति दे दी गई थी। एस्ट्राजेनेका की कोरोना वैक्सीन से ब्लड क्लॉटिंग के खतरे की खबरों के बाद पहले यूरोपियन यूनियन के तीन सबसे बड़े देशों- जर्मनी, फ्रांस और इटली- ने एस्ट्राजेनेका की कोविड वैक्सीन का वितरण रोक दिया। इसके बाद स्पेन, पुर्तगाल, लतविया, बुल्गारिया, नीदरलैंड, स्लोवेनिया, लग्जमबर्ग, नॉर्वे तथा आयरलैंड और इंडोनेशिया ने भी इसके टीकाकरण पर रोक लगा दी। इन देशों में टीकाकरण के बाद ब्लड क्लोटिंग के मामले नगण्य हैं, किंतु बावजूद डब्लूएचओ के इस वैक्सीन को सुरक्षित बताने के, इन्होंने अपने नागरिकों की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए इसके उपयोग पर रोक लगा दी।
हमारे देश में भी वैक्सीनेशन के बाद मौत कई मामले सामने आए हैं। कई लोग वैक्सीन की दोनों खुराक लगने के बाद भी संक्रमित हुए हैं। सरकार का कहना है कि मौतों के लिए वैक्सीन को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता और वैक्सीन लगने के बाद कोविड संक्रमण होना अपवाद है, यदि संक्रमण हुआ भी है तो उसका प्रभाव प्राणघातक नहीं है। इस तरह के मामलों को उजागर करनेवालों को वैक्सीन के बारे में भ्रम फैलाने का दोषी माना जा रहा है और उनपर कार्रवाई भी की जा रही है।
वैक्सीन का प्रभावी न होना अथवा कभी-कभी उसके घातक साइड इफेक्ट्स होना सरकार या वैज्ञानिकों की गलती नहीं है बल्कि एक वैज्ञानिक परिघटना है। कोविड-19 की भयानकता ने हमें बहुत कम समय में वैक्सीन तैयार करने को बाध्य किया है। यदि इन वैक्सीन्स में कोई कमी है तो इसे जल्दी से जल्दी दूर किया जाना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब हम वैक्सीन लगने के बाद हो रहे घातक सह-प्रभावों और संक्रमण को एक वैज्ञानिक परिघटना की भांति लें और इनकी गहरी वैज्ञानिक पड़ताल कर अपनी रणनीति में सुधार करें।
अभी तक विश्व अधिकतम टीकाकरण को ही इस महामारी के प्रसार को रोकने का कारगर जरिया मान रहा है। हमारे देश की रणनीति भी यही है। हमें चाहिए कि हम अपने स्वदेशी टीकों के उत्पादन में अन्य सभी सक्षम दवा निर्माता कंपनियों की हिस्सेदारी बढ़ा कर इनका उत्पादन बढ़ाएं। विदेशी वैक्सीन्स को केवल सौ भारतीय शरीरों पर एक सप्ताह के परीक्षण के बाद टीकाकरण कार्यक्रम में सम्मिलित करने के अपने खतरे हैं।
हमने 50,000 मीट्रिक टन मेडिकल ऑक्सीजन के आयात के लिए टेंडर जारी करने का निर्णय लिया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मेडिकल ऑक्सीजन का उत्पादन बढ़ाने के बारे में सरकारी दावे कागजी थे। इससे यह भी ज्ञात होता है कि सरकार कोरोना की दूसरी लहर के बाद संभावित मेडिकल ऑक्सीजन डिमांड का अनुमान लगाने में नाकाम रही। हायपोक्सिया कोरोना से होनेवाली मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है। हमारे अस्पतालों में ऑक्सीजन की अपर्याप्त उपलब्धता के कारण बड़ी संख्या में मौतें हो रही हैं। हम पर्याप्त वेंटिलेटर बेड्स भी उपलब्ध कराने में असफल रहे हैं।
बहुचर्चित और विवादित पीएम केअर फंड की स्थापना ही कोविड से मुकाबले के लिए सक्षम हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के नाम पर की गई थी। यदि इसका उपयोग पारदर्शी ढंग से सही इरादे के साथ किया गया होता तो शायद कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद हालात इतने भयानक न होते।
कुछ गंभीर सवाल डब्लूएचओ तथा दुनिया के अग्रणी देशों द्वारा कोविड से मुकाबला करने के लिए अपनाई जा रही रणनीति को लेकर भी हैं। बेल्जियम के जाने-माने वायरोलॉजिस्ट गुर्ट वांडन बुशा कोविड-19 से मुकाबले के लिए मॉस वैक्सीनेशन की रणनीति को एक भयंकर भूल बता चुके हैं। उन्होंने इस क्षेत्र में कार्य करनेवाले विश्व के अग्रणी वैज्ञानिकों को खुली बहस और इस बारे में सार्वजनिक जनसुनवाई की चुनौती भी दी है। गुर्ट वांडन बुशा गावी व बिल एवं मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन के लिए कार्य कर चुके हैं। वह टीकाकरण विशेषज्ञ हैं तथा इबोला महामारी के समय में टीकाकरण कार्यक्रम का सफल नेतृत्व भी कर चुके हैं। गुर्ट वांडन बुशा के अनुसार मॉस वैक्सीनेशन कार्यक्रम वायरल इम्युनोस्केप की स्थिति ला सकता है।
हमारी सरकार द्वारा कराई गई 13164 नमूनों की जीनोम सिक्वेंसिंग से ज्ञात हुआ है कि संक्रमित आबादी के दस प्रतिशत में डबल म्युटेंट वायरस देखा गया है। जबकि 8.77 प्रतिशत संक्रमित आबादी में कोविड-19 के ब्रिटिश, साउथ अफ्रीकन तथा ब्राजीलियन वैरिएंट देखे गए हैं। ऐसी दशा में क्या मौजूदा टीकाकरण कार्यक्रम स्थिति को नियंत्रित कर सकेगा, यह शोध का विषय है।
विश्वप्रसिद्ध मेडिकल जर्नल द लैंसेट में प्रकाशित कुछ शोधपत्रों के अनुसार कोविड-19 वायरस प्राथमिक रूप से एयरबोर्न है और हमें अपने सेफ्टी प्रोटोकॉल में व्यापक परिवर्तन करना होगा। यदि यह रिपोर्ट सही है तो अब तक संक्रमण से बचने के लिए अपनाई गई सावधानियों का स्वरूप एकदम बदल जाएगा। इस विषय पर भी चर्चा होनी चाहिए।
अतार्किक और भावना प्रधान विमर्श द्वारा अपनी लापरवाही और नाकामी पर पर्दा डालने की सरकारी कोशिशें सरकार समर्थक मीडिया और सोशल मीडिया के सहयोग से भले ही कामयाब हो जाएं लेकिन इनका परिणाम आम लोगों के लिए विनाशकारी होगा।