दांपत्य में समता, समर्पण और सख्य की मिसाल – अनिरुद्ध लिमये

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पिताजी मां को सदा अपनी प्रतिभा को और मांजने, और पढ़ने, और लिखने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे, न सिर्फ मराठी में बल्कि हिंदी और अंग्रेजी में भी। मां जो भी करना चाहती थीं वैसे सब प्रयासों को उन्होंने समर्थन दिया। जब वे बर्मा की राजधानी रंगून में थे (अब म्यांमार का यंगून), जहां पिताजी एशियन सोशलिस्ट ब्यूरो के सचिव के  तौर पर गए थे, उन्होंने मां को कानून की पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित किया, जो कि वह करना चाहती थीं। लेकिन भारत के बदलते राजनीतिक घटनाक्रम के कारण वे जल्दी ही स्वदेश लौट आए और मां का कानून का अध्ययन व्यवधान की भेंट चढ़ गया।

गोवा मुक्ति आंदोलन में शामिल होने का निश्चय पिताजी ने मां की सहमति से किया था। सहमति के लिए उन्होंने कोई दबाव नहीं डाला था। मां ने पिताजी के मन की उथल-पुथल को भांप लिया था और समझ गई थीं कि उनका मन गोवा की आजादी की लड़ाई में शामिल होने को मचल रहा है। तब उनके विवाह को सिर्फ तीन साल हुए थे और मैं महज एक साल का था। लेकिन वह हिम्मत से पिता के निश्चय के साथ खड़ी रहीं और उन्नीस महीनों का बिछोह सहा। पिता के इस निर्णय में भी उनकी सहमति थी कि सत्याग्रह की मर्यादा का पालन करते हुए अदालत में अपने बचाव की कोशिश या अपील न की जाए। अगर आम माफी न हुई होती तो पिताजी को पूरे बारह साल जेल में बिताने होते। दोनों को यह भान रहा होगा कि ऐसा हो सकता है। आखिरकार पुर्तगाल में और पुर्तगाली उपनिवेशों में क्रूर तानाशाह एंटोनियो डि ओलिवेरा सालाजार का शासन था। लेकिन उन्होंने अपने पति के संकल्प को कभी कमजोर नहीं होने दिया।

1961 में हमारे घर में पानी गर्म करने का गीजर या एलपीजी चूल्हा नहीं था। चाहे खाना बनाना हो या कुछ भी गर्म करना, केरोसिन के चूल्हे पर करना पड़ता था। एक दिन स्टोव पर से गर्म पानी से भरा बर्तन उठाते समय मां का पैर फिसल गया और खौलते पानी से भरा बर्तन उनके पैरों पर उलट गया। हालांकि कपड़े के कारण कुछ बचाव तो हुआ, पर दोनों पैर जांघ से लेकर पांव तक खौलते पानी से काफी हद तक जल गए। उनके घावों पर दिन में दो बार सावधानीपूर्वक मरहम-पट्टी करना जरूरी था। पिताजी ने फौरन मुंबई से बाहर की अपनी सारी यात्राएं रद्द कर दीं और हफ्तों बड़े प्यार और जतन से मां की देखभाल करते रहे, जब तक जलन से हुए घाव ठीक नहीं हो गए। वह हम सभी के लिए नाश्ता तैयार करते और मां को खिलाते। उसके बाद दोपहर और रात का खाना बनाने के लिए कामवाली आती। मां जब भी गंभीर रूप से बीमार पड़ीं, पिताजी हमेशा उनके पास रहे, प्यार से देखभाल करते हुए, जब तक वह स्वास्थ्य-लाभ करके सामान्य नहीं हो गईं।

पिताजी सात बार चुनाव लड़े और मां ने हर बार उनके लिए प्रचार किया- पहले दिल तोड़ देनेवाले नाकाम प्रयास (जब वह गोवा मुक्ति आंदोलन से नायक बनकर लौटे थे और महाराष्ट्र विधानसभा के लिए बांद्रा-खार निर्वाचन क्षेत्र से उम्मीदवार थे) से लेकर लोकसभा के लिए लड़े गए छहो चुनावों में। लोकसभा ‌के लिए छहो चुनाव बिहार से लड़े गए- तीन बार मुंगेर से और तीन बार बांका से। दोनों जगह तीसरी बार की उम्मीदवारी नाकाम रही।

1967 के आम चुनाव में मां ने शानदार भूमिका निभाई थी। चुनाव प्रचार के दौरान पिताजी पर जानलेवा हमला हुआ था। सौभाग्य से वह बच गए, क्योंकि हमलावरों के पास अत्याधुनिक हथियार नहीं थे, जैसे कि आजकल वे ऑटोमैटिक गन से लैस होते हैं। लेकिन मेरे पिता उस हमले में गंभीर रूप से घायल हो गए थे और उन्हें मुंगेर के सिविल अस्पताल में भर्ती कराया गया था। दुर्योग से उस समय मां को पैर में चोट लगी थी, उनके दाहिने पैर के अंगूठे का नाखून निकल गया था और दाहिने पैर का लिंगामेंट उधड़ गया था। उन्हें दर्द निवारक दवा लेनी पड़ती थी, उनके पैर पर पट्टी बंधी थी और वह काफी मुश्किल से, छड़ी के सहारे, चल पाती थीं। लेकिन मेरे पिता की अनुपस्थिति में उन्होंने आगे बढ़ कर लोगों को कोई बदले की कार्रवाई करने से रोका और चुनाव में प्रचार अभियान का नेतृत्व किया, न सिर्फ मेरे पिता के लिए बल्कि मुंगेर सब डिवीजन में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे उनके साथियों के लिए भी। यदि मैं ठीक याद कर पा रहा हूं तो मुंगेर सब डिवीजन में लोकसभा के लिए संसोपा के सभी चार और विधानसभा के चौबीस में से बाईस उम्मीदवार जीते थे।

मेरे माता-पिता ने हमेशा एक-दूसरे का साथ दिया, एक-दूसरे का सहारा बने। 1970 के दशक के शुरू में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कॉलेज प्राध्यापकों और प्रोफेसरों के लिए नया वेतनमान घोषित किया था। कॉलेजों को उन सभी प्रोफेसरों के नामों की सिफारिश करनी थी जो विभिन्न विभागों के प्रमुख रह चुके थे और जिनके पास स्नातकोत्तर स्तर पर अध्यापन का अनुभव था। लेकिन मेरी मां के कॉलेज ने तय किया कि विभिन्न भाषाओं के विभागाध्यक्षों के नाम की सिफारिश नहीं की जाएगी, अंग्रेजी को छोड़कर। मेरी मां और उनके सहकर्मी, जो दूसरी भाषाओं के विभागों से ताल्लुक रखते थे और योग्यता की शर्त पूरी करते थे, नजरअंदाज किए जाने ‌और भेदभाव किए जाने से नाखुश और क्षुब्ध थे। पिताजी ने इस मामले को उठाया और महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग, भारत सरकार और यूजीसी से अपनी बात मनवाने में कामयाब रहे।

पिताजी ने सिर्फ एक चीज के लिए मेरी मां को कभी प्रोत्साहित नहीं किया, वह था चुनाव लड़ना। एक समय मां को मुंगेर से लगी हुई सीट से लोकसभा के लिए संसोपा का टिकट दिए जाने की बात चली थी। पिताजी ने उस चर्चा को वहीं रोक दिया। और मेरी मां से कहा, मैं नहीं चाहता कि तुम मेरे कंधे पर चढ़कर सवारी करो। हम हर तरह के भाई-भतीजावाद और वंशवादी राजनीति के खिलाफ हैं। सो, हम यह कभी नहीं कर सकते।

मेरे माता-पिता एक-दूसरे के प्रति इतने समर्पित थे कि 1955 से 1988 के दरम्यान, उन्हें लंबे-लंबे समय के लिए एक दूसरे से दूर रहना पड़ा, पर कभी भी चरित्र पर दाग लगानेवाली या शक पैदा करनेवाली कोई बात नहीं हुई। हालांकि  पिता के घनिष्ठ मित्रों में कई महिलाएं भी थीं और मां के करीबियों में कई पुरुष भी, पर दोनों ‌की आंखें केवल एक-दूसरे के लिए थीं।

मेरे माता-पिता को एक-दूसरे का साहचर्य आनंदित करता था। सार्वजनिक मसलों, जिसमें राजनीति शामिल है, समेत कई चीजों में दोनों की समान रुचि ‌थी। मां और मैं बहुत बार ऐसे मुद्दों पर बहस करते, जिनपर पिताजी अपने साथियों के साथ करते होंगे। शुरुआती वर्षों में वे दोनों और बाद के वर्षों में हम तीनों ऐसे अनेक स्थानों के सफर पर गए जो इतिहास, पुरातत्त्व, कला और प्राकृतिक सौंदर्य के लिहाज से महत्त्व के थे।

पिताजी कभी भी परिग्रही वृत्ति के नहीं थे। किताबों और म्यूजिक रिकार्ड्स तथा कैसेट्स को छोड़कर उन्होंने शायद ही अपने लिए कभी कुछ खरीदा हो। लेकिन जब भी वह देश में या देश से बाहर यात्रा पर जाते, कुछ न कुछ भेंट की चीज हमारे ‌लिए ले आते, खासकर मेरी मां के लिए। वह चीज साड़ी या शॉल होती या परफ्यूम या निजी पसंद की कोई और चीज, महंगी नहीं लेकिन हमेशा कलात्मक और उस जगह की खूबी बयान करनेवाली।

पिताजी हालांकि देश-भर का दौरा करते रहते थे, लोकसभा ‌के लिए चुने जाने तक उनका बसेरा मुंबई था। इसलिए गोवा से उनके लौटने और दिल्ली में डेरा डालने के बीच मुझे और मेरी मां को उनके साथ रहने को थोड़ा अधिक समय मिल जाता था।‌ उसके बाद, मां और मैं दिल्ली जाते, जब मेरी स्कूल/कॉलेज की और उनकी कॉलेज की छुट्टियां होतीं। जब लोकसभा के सत्र न चल रहे होते, पिताजी अपने निर्वाचन क्षेत्र तथा देश-भर का दौरा करते, और तब वह कोशिश करते कि मुंबई भी आएं ताकि हम लोग साथ-साथ मजे से कुछ समय बिता सकें। तब हम गप-शप और तमाम मुद्दों पर बहस कर सकें, नाटक या फिल्म देखें, संगीत-नृत्य के समारोह में जाएं, मित्रों और परिवार के साथ कुछ वक्त गुजार सकें। पिताजी टेलीफोन का इस्तेमाल लोगों से बहुत संक्षिप्त बातचीत के लिए करते थे- या तो कोई महत्वपूर्ण सूचना देने या लेने के लिए या मुलाकात का वक्त तय करने के लिए। सिर्फ एक शख्स से वह फोन पर लंबी बातचीत करते थे- और वह मेरी मां थीं।

बहुत-से लोग मेरे पिता की विनोद वृत्ति, हाजिरजवाबी और बच्चों से उनके बेहद लगाव के बारे में नहीं जानते होंगे। वह जब चाहते, मजाकिया तुकबंदी कर सकते थे। उन्हें दूसरों को उपनाम देने में भी मजा आता था- जाहिर है इस तरह मुझे और मेरी मां को अनेक उपनाम मिले थे। बातूनी होने के कारण मुझे पोपट नाम मिला ‌था। ‘गोवा डायरी’ में मेरी मां के लिए एक उपनाम आता है- स्ट्राबेरी, या सिर्फ स्ट्रा। वह उन्हें अक्सर कल्याणी या बायजाबाई भी कहते।

गोवा में पिता की लंबी कैद के दौरान मां जिस चिंता और तनाव में रही थीं उसे मैं महसूस नहीं कर सकता था क्योंकि तब मैं बहुत छोटा था। लेकिन तब तो मैं बड़ा हो चुका था‌ जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई और प्रमुख विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया। इमरजेंसी के दौरान पिताजी की सेहत और सुरक्षा को‌ लेकर मां बहुत चिंतित रहती थीं। वह विभिन्न जेलों में, जहां पिताजी कैद होते, उनसे मिलने जातीं और उनके पढ़ने के लिए किताबें ले जातीं। वह पिताजी के दृष्टिकोण और विचारों को उन नेताओं तक पहुंचाने का जरिया बन गई थीं जो या तो बाहर थे या भूमिगत थे या दूसरी जेलों में बंद थे। इसी तरह उन नेताओं के विचारों और घटनाक्रम से वह पिताजी को, जब भी मुलाकात होती, अवगत करातीं। इमरजेंसी के दौरान ही मेरी मां को अत्यधिक तनाव (जो बाद में दिल की बीमारी का सबब बना) और डायबिटीज की तकलीफ़ शुरू हुई (जो उनके मायके में पहले से थी)।

जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के प्रावधानों का दुरुपयोग करते हुए लोकसभा के पांच ‌साल के कार्यकाल को बढ़ा दिया, तो पिताजी ने विरोधस्वरूप अपनी सदस्यता से इस्तीफा देने का फैसला किया, 18 मार्च 1976 से, जिस दिन लोकसभा का मूल कार्यकाल पूरा होता था। लोकसभा के सिर्फ एक और सदस्य ने, उनसे प्रेरित होकर, इस्तीफा दिया था, और वह थे जबलपुर से चुने गए श्री शरद यादव। मां पूरी तरह पिताजी के इस फैसले के साथ थीं। यही नहीं, जैसे ही पिताजी का इस्तीफा तत्कालीन लोकसभाध्यक्ष बलिराम भगत को सौंपा गया, मां फौरन दिल्ली रवाना हो गईं, उस बंगले (12, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड) को खाली करने और वापस सौंपने के लिए, जो लोकसभा सदस्य के नाते मेरे पिता को आवंटित किया गया था।

पिताजी ने कोई पेंशन कबूल नहीं की- चाहे वह स्वतंत्रता सेनानी पेंशन हो या राष्ट्रीय सम्मान पेंशन हो या गोवा मुक्ति सेनानी पेंशन, या पूर्व सांसद की ही पेंशन क्यों न हो। मां ‌पिताजी के रुख से सहमत थीं और पिताजी के निर्णय का उन्होंने समर्थन किया। सक्रिय राजनीति से विलग होकर मेरे माता-पिता ने दिल्ली में अपना घर-खर्च बेहद सादगी से चलाया, उस मामूली सी आय से, जो पिताजी के लेखों और किताबों से अर्जित होती थी।

मां 1988 में सेवानिवृत्त होते ही दिल्ली चली गईं। 8 जनवरी 1995 को पिताजी की मृत्यु होने तक दोनों वास्तव में एकाकार हो चुके थे। वे उनके सबसे खुशी के दिन थे, हालांकि सेहत बिगड़ने लगी थी। पूरे दांपत्य-जीवन में निर्बाध रूप से एकसाथ इतना वक्त गुजारने का मौका उन्हें पहले नहीं मिला था। उन्होंने थोड़ा सफर भी किया, पर ज्यादातर वे दिल्ली में ही रहे। ज्ञानार्जन और लेखन की दृष्टि से ये मेरे पिता के सबसे उर्वर साल ‌भी थे। अपने विद्वान मित्र और नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय के उपनिदेशक डॉ. हरिदेव शर्मा तथा मेरी मां की सहायता से मेरे पिता ने अखबारों और पत्रिकाओं के लिए ‌बेशुमार लेख व निबंध लिखे और अंग्रेजी, हिंदी तथा मराठी में अनेक पुस्तकें प्रकाशित ‌कीं।

हालांकि काफी प्रदूषित हो चुकी दिल्ली में जाड़े का मौसम पिताजी को रास नहीं आता था, उन महीनों में उनका श्वासनली का दमा उभड़ आता था। फिर भी सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बाद वह मुंबई आकर रहने को कतई इच्छुक नहीं थे,  भले ठंड के ही दिन क्यों न हों। इसकी वजह सिर्फ यह नहीं रही होगी कि 1950 और 1960 के शुरू के वर्षों में उन्हें मुंबई के उमस-भरे मौसम में तकलीफ उठानी पड़ी थी।  मेरा खयाल है कि 1940 के दशक के अंतिम सालों और 1950 के दशक के शुरुआती वर्षों में सिर-आंखों पर बिठाने के बाद मुंबई और महाराष्ट्र के लोगों ने जिस तरह उन्हें ठुकरा दिया था उसे लेकर उन्हें रंज भी था।

इसके बाद उन्हें जनता की तरफ से बेरुखी तब झेलनी पड़ी थी, जब वह गोवा मुक्ति आंदोलन से एक नायक की तरह लौटे थे, फिर भी 1957 के विधानसभा चुनाव में जमानत तक गंवा बैठे, क्योंकि सोशलिस्ट पार्टी ने संयुक्त महाराष्ट्र समिति के तत्वावधान में चुनाव लड़ने की बजाय अपने दम पर चुनाव लड़ा था। और आखिरकार एक वजह निरंतर होती रहने वाली यह झूठी, शरारतपूर्ण और जहर-बुझी आलोचना भी थी, खासकर मुंबई और महाराष्ट्र में, कि दोहरी सदस्यता यानी जनसंघ सदस्यों के आरएसएस से जुड़े होने का मुद्दा उठाकर जनता पार्टी की टूट के लिए वही जिम्मेवार थे। जबकि उन्होंने पार्टी को बचाने के लिए आखिरी दम तक प्रयास किए थे। इसलिए मेरा खयाल है कि सक्रिय राजनीति से विरत हो जाने के बाद वह मुंबई नहीं लौटना चाहते थे।

पिताजी ने शायद ही कभी इन चीजों के बारे में मुंह खोला हो या अपना दर्द बयान किया हो। दूसरी तरफ उनके प्रति हुए अन्यायों पर मेरी मां क्षुब्ध और मुखर थीं, विधानसभा और लोकसभा चुनावों में ‌पिताजी की पराजयों‌ को भी वह पचा नहीं पाती थीं।

पिताजी कभी भी अतीत की गांठ बांध कर नहीं रखते थे। वह किसी के खिलाफ कुंठा या शिकायत पाले नहीं रहते थे। उदाहरण के लिए ‘गोवा डायरी’ में  हम उनके दो प्रिय नेताओं- श्री एसएम जोशी और श्री जयप्रकाश नारायण- के खिलाफ उनकी निराशा और नाराजगी देख सकते हैं (तीसरे प्रिय नेता डॉ. राममनोहर लोहिया थे)। हालांकि समय बीतने के साथ एसएम और जेपी के प्रति उनका प्रेम और आदर फिर से पहले जैसा हो गया था। हालांकि उनकी आत्मकथा मरणोपरांत प्रकाशित हुई, लेकिन माता-पिता की इच्छानुसार इसे एसएम जोशी और साने गुरुजी की प्रेमपूर्ण स्मृतियों को समर्पित किया गया।

1988 के बाद शायद ही कभी ऐसा होता था जब मेरे माता-पिता साथ न हों। जनवरी 1995 में ऐसा ही एक विरल मौका था जब मां दिल्ली में पिताजी को अकेला छोड़ कर कुछ ‌दिनों के लिए पुणे आई थीं, अपनी भतीजी के विवाह में शरीक होने के लिए। विवाह के ‌बाद वह दो दिन के लिए मुंबई रुक गई थीं। पिताजी को 6-7 जनवरी 1995 की रात को दमे का भयानक दौरा पड़ा, जब मां मुंबई में ‌मेरे साथ थीं। 7 जनवरी की सुबह जब यह पता चला कि पिताजी को अस्पताल में भर्ती ‌कराया गया है, वह भागी-भागी दिल्ली गईं। पीछे-पीछे मैं भी गया। लेकिन दमे के इस संक्षिप्त दौरे के बाद 8 जनवरी की शाम को पिताजी का निधन हो गया।

बरसों-बरस मेरे सांत्वना देने के बावजूद मां ने कभी खुद को माफ नहीं किया। कहीं न कहीं उन्हें यह बात कचोटती थी कि उनकी अनुपस्थिति मेरे पिता की असामयिक मृत्यु के लिए जिम्मेवार थी। हालांकि उस आघात से उबर जाने के बाद उन्होंने पिताजी के अप्रकाशित और प्रकाशित लेखों को पुस्तकाकार लाने के काम में खुद‌ को झोंक दिया था। उन्होंने मुंबई और दिल्ली में पिताजी के सारे कागजात इकट्ठा किए और उन्हें नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय को सौंप दिया ताकि वे विद्वानों व शोधकर्ताओं के अध्ययन के काम आ सकें।

मेरी मां को ताउम्र (नवंबर 2003 में उनका निधन हुआ) यह अफसोस रहा कि वह पिताजी को उनकी आत्मकथा पूरी करने के लिए राजी न कर सकीं, न ही इसमें कुछ मदद कर पाईं। पिताजी अपनी आत्मकथा का किसी तरह केवल पहला भाग पूरा कर पाए, जो उनके जन्म से लेकर 15 अगस्त 1947 तक के कालखंड को समेटता है। दूसरे भाग में देश को आजादी मिलने के दिन से लेकर नवंबर 1964 में  लोकसभा के लिए उनके पहली बार चुने जाने तक की अवधि ली जानी थी। यह समाजवादी आंदोलन के घटनाक्रम और मुंबई में ट्रेड यूनियन आंदोलन को समझने का एक अच्छा स्रोत हो सकता था। तीसरे और अंतिम भाग में पिताजी के संसदीय जीवन, सक्रिय राजनीति से उनके संन्यास और उसके बाद के दौर को समेटा जाना था। दुर्भाग्य से दूसरा और तीसरा भाग नहीं लिखे जा सके और मेरी मां अपने दिल में दो अफसोस लिये इस दुनिया से विदा हो गईं।

दोनों को मैं बड़े प्यार से याद करता हूं और अपने इस सौभाग्य पर फूला नहीं समाता कि मुझ ऐसे माता-पिता मिले जो आदर्श दांपत्य की मिसाल थे।

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