— आनंद कुमार —
अपने अतीत को जानना किसी भी देश के लिए एक अनिवार्यता है। अगर देश-विशेष ने अपने ताजा इतिहास में पराधीनता से स्वाधीनता की सफल यात्रा की हो तो इतिहास का साक्षात्कार अत्यंत रोमांचक हो जाता है। क्योंकि स्वराज के लिए दी गई कुर्बानियों का विवरण हमारे पुरखों के प्रति आदर भाव पैदा करता है। पराधीन होने की दुखद स्मृतियों के बावजूद पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ने के घटनाक्रम का ज्ञान होने से आत्म-विश्वास उत्पन्न होता है। उच्च आदर्शों के लिए आत्म-त्याग की श्रेष्ठता प्रमाणित होती है। समाज हित के लिए पुरुषार्थ की महत्ता स्पष्ट होती है। लोकशक्ति निर्माण के जरिये देश के बेहतर भविष्य के प्रति भरोसा बनता है। यूरोप के विश्व-विस्तार के एशिया में प्रथम शिकार गोवा प्रदेश (गोमान्तक) की स्वराज-यात्रा की कथा इसका एक रोमांचक उदाहरण है।
इस संदर्भ में ग्वालियर स्थित आईटीएम विश्वविद्यालय (ए.एच–43, तुरारी बायपास, झाँसी रोड, ग्वालियर, म.प्र. – 474001; मोबाइल 8959595755) ने गोवा मुक्ति संघर्ष के 75वीं वर्षगाँठ उत्सव में योगदान के रूप में तीन परस्पर संबद्ध पुस्तकें प्रकाशित करके इस दिशा में बहुमूल्य योगदान किया है – वरिष्ठ मराठी साहित्यकार इंदुमति केलकर की लाहौर किला जेल से गोवा की अग्वाड जेल तक – डा. राममनोहर लोहिया के संघर्ष का एक अध्याय (48 पृष्ठ, मूल्य 60 रुपये), प्रसिद्ध हिंदी पत्रकार गणेश मंत्री की गोवा मुक्ति संघर्ष (186 पृष्ठ, मूल्य 200 रु.) तथा संस्कृत व मराठी की प्राध्यापिका चम्पा लिमये व हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार क़ुरबान अली द्वारा संपादित गोवा लिबरेशन मूवमेंट एंड मधु लिमये (214 पृष्ठ, मूल्य 250 रु.)। चम्पा लिमये और क़ुरबान अली की संपादित किताब तो मधु लिमये जन्मशताब्दी वर्ष के समारोहों के लिए प्रथम सादर अर्पण मानी जानी चाहिए। तीनों किताबों की नई प्रस्तुति आकर्षक और पठनीय है। इनकी कीमत भी सामान्य पाठकों, विशेषकर नई पीढ़ी के सरोकारी युवाओं तक इनकी पहुँच को सुगम करेगी।
इन तीनों किताबों से भारत में यूरोपीय साम्राज्यवाद के 1510 से बने हुए अड्डे गोवा की पुर्तगाल से मुक्ति के लिए 1946 से 1961 के बीच की रोमांचक संघर्ष-कथा और इसके मुख्य पात्रों की युगांतरकारी भूमिका की महत्ता बढ़ेगी। क्योंकि यह गोवा और भारत के स्वराज संघर्ष के इतिहास को नजदीक से देखने के लिए तीन खास खिड़कियाँ हैं।
पहली खिड़की
इस पुस्तक श्रृंखला से बनी पहली खिड़की लोहिया की भारतवर्ष से विदेशी राज के खात्मे के लिए सम्पूर्ण समर्पण के रोमांचक सिलसिले के 1942 से 1947 तक के कालखंड से जुड़ी है। इंदुमति जी ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के एक बहुचर्चित अध्याय अर्थात ‘9 अगस्त – भारत छोडो आन्दोलन’ और अत्यंत अल्प-ज्ञात कथा यानी गोवा मुक्ति संघर्ष को एकसाथ पिरोया है। क्योंकि दोनों के केंद्र में डॉ. राममनोहर लोहिया का कर्मयोग रहा है। इन दोनों की आधारभूमि के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की अंतर्कथाएं कैसे नहीं सामने आएँगी? ‘9 अगस्त 1942 क्रांति पर्व’ अध्याय में कुल 12 पृष्ठों में 4 बरस के विस्तार में घटित क्रांतिकथा और लोहिया के बंदीजीवन का फिल्म जैसा जीवंत चित्रण है। फिर अप्रैल 1946 में रिहाई के बाद आगरा से लेकर कलकत्ता तक अभूतपूर्व अभिनंदन। लोहिया की गांधी से बढ़ती निकटता और नेहरू-पटेल से बढ़ता फासला। इसमें भारत-विभाजन, संविधान सभा, गोवा और नेपाल के सवालों का योगदान।
कांग्रेस की महासमिति में भारत विभाजन की बहस और स्वीकृति के दुखद निर्णय में सोशलिस्टों की तटस्थता (14 जून, 1947; दिल्ली) और दूसरी तरफ इससे पहले सोशलिस्टों का लोहिया की अध्यक्षता में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में (26-28 फरवरी, 1947; कानपुर) नाम-सुधार और सिद्धांत-समीक्षा का फैसला। इसी बीच लोहिया का 18 जून, ’46 और 29 सितम्बर, ’46 को गोवा में नागरिक अधिकारों के लिए सत्याग्रह। गोवा नेशनल कांग्रेस की स्थापना। कलकत्ता (26 जनवरी, ’47), दार्जिलिंग (25 अप्रैल 1947) और वाराणसी (16 जुलाई ’47) में नेपाल की राणाशाही से मुक्ति के लिए नेपाली कांग्रेस को प्रोत्साहन।
दूसरी खिड़की
इस सिलसिले में दूसरी खिड़की गोवा मुक्ति संग्राम का सघन कथानक प्रस्तुत करती है। इसे गणेश मंत्री जी ने शोध, प्रतिबद्धता और परिश्रम से बनाया है। छह चित्र, सात पत्रों और तेरह अध्यायों से सुसज्जित यह किताब गोवा की स्वराज यात्रा की हिंदी में श्रेष्ठतम रचना है। इसे गोवा आन्दोलन की स्वर्णजयंती पर 1996 में प्रकाशित किया गया। आज हीरक जयंती पर इसका पुन:प्रकाशन स्वागत-योग्य पहल है। यह किताब कई अनछुए तथ्यों को एकसाथ पढ़ने का मौका देती है। इसकी मदद से कुछ विचित्र सत्यों का साक्षात्कार होता है।
एक तो, हम सभी देख सकते हैं कि गोवा का सवाल नव-स्वाधीन भारत के सर्वोच्च नेतृत्व की उदासीनता के कारण शेष देश की आज़ादी के पंद्रह साल बाद तक अटका रहा। फिर भी सर्वदलीय गोवा विमोचन सहायक समिति द्वारा संयोजित सत्याग्रह ने गोवावासियों में साहस पैदा किया। सरकारी उपेक्षा और अन्य कारणों से सत्याग्रह अभियान के निर्बल हो जाने पर सशस्त्र समूहों को भी सक्रियता का अवसर मिला। इसकी गोवा में विशेष उपलब्धि नहीं रही लेकिन दादर और नगर हवेली में कुछ सफलता मिली।
दूसरे, गोवा के लिए हुए सत्याग्रहों में पुर्तगाली शासन ने बहुत क्रूरता दिखाई। सभी सत्याग्रही बर्बरता के शिकार हुए। कम से कम दस लोगों की जाने गईं। कई लोगों को चार बरस से सत्ताईस बरस तक के कैद की सजा दी गई। कुछ लोगों को पुर्तगाल और उसके अफ़्रीकी उपनिवेशों में कैद रखा गया।
तीसरे, गांधी गोवा के लिए 1946-47 में बहुत चिंतित थे। लेकिन नेहरू और पटेल दोनों की रहस्यमय उदासीनता रही। सरदार पटेल के निधन के बाद भारत सरकार की गोवा नीति नेहरू-कृष्ण मेनन की जोड़ी के निर्देशन में ‘यथास्थितिवादी’ बनी रही।
चौथे, 1954-55 में बनी गोवा विमोचन सहायता समिति और इसके सत्याग्रह को महाराष्ट्र और कर्नाटक के सभी दलों में सक्रिय समर्थन था। लेकिन शेष भारत से सत्याग्रहियों के पहुँचने के बावजूद देशव्यापी उत्साह का अभाव था। 1955-56 में बम्बई प्रदेश में प्रादेशिक पुनर्गठन के प्रश्न पर आन्दोलन के बढ़ने के अनुपात में ही गोवा मुक्ति का आन्दोलन घटता चला गया।
पांचवें, 1946 और 1955 के सत्याग्रहों के प्रति उपेक्षा भाव रखने वाले जवाहरलाल नेहरू और कृष्ण मेनन की सरकार ने 1961 में बिना किसी बड़ी वजह के सेना भेजकर गोवा को पुर्तगाल से आजाद कराया। यह देर से ही सही, दुरुस्त कदम रहा। लेकिन इसके बाद 1962 के आम चुनाव में इसका सरकारी पार्टी के लिए वोट जुटाने में इस्तेमाल करना प्रशंसनीय नहीं माना गया। जब गोवा की आजादी के लिए लम्बे अरसे से प्रयासरत लोगों के मुख्य संयोजक समाजवादी नेता पीटर अल्वारेस को गोवा पर बरसों मौन रहनेवाली सरकार के एक बड़े मंत्री कृष्ण मेनन ने गोवा-मुक्ति का श्रेय लेते हुए बम्बई से लोकसभा के चुनाव में पराजित कर दिया! शायद इसीलिए सैनिक हस्तक्षेप से जुड़ी गोवा मुक्ति के चरमबिन्दु की कथा अध्याय 13 के मात्र 10 पृष्ठों की विषय-वस्तु है।
तीसरी खिड़की
हमारे लिए तीसरी खिड़की एक ऐसी आत्मीय किताब है जो गोवा मुक्ति संघर्ष में समाजवादी नेता मधु लिमये की भूमिका को केंद्र में रखकर रची गई है। इसे चम्पा लिमये के संस्मरण आधारित लेख, मधु लिमये के दो विश्लेषणउन्मुख निबंध, अनिरुद्ध लिमये का अपने यशस्वी पिता और ममतामयी माँ का पुण्य-स्मरण, रमाशंकर का प्रकाशकीय आह्वान और कुर्बान अली का सम्पादकीय मिलकर हर समाजवादी के लिए एक पाठ्य-पुस्तक बनाते हैं। यह किताब भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अंतिम अध्याय अर्थात गोवा मुक्ति संघर्ष की लगभग अनकही कहानी की एक प्रामाणिक प्रस्तुति भी करती है। निश्चय ही इसे गोवा मुक्ति संघर्ष का ‘समाजवादी दर्पण’ माना जाएगा।
अगर इंदुमती केलकर रचित अध्यायों से बनी पहली खिड़की से हमें डॉ. लोहिया के तूफानी प्रवेश के बहाने गोवा मुक्ति संघर्ष का राष्ट्रीय राजनीतिक चित्र सामने आया तो चम्पा लिमये के इस योगदान से मधु लिमये की साहसपूर्ण हिस्सेदारी के बहाने गोवा सत्याग्रह के नायकों के अन्तरंग परिदृश्य की दुर्लभ झलक मिलती है। मधु लिमये की जेल डायरी इसका मूल तत्व है क्योंकि इसमें एक तेजस्वी देशभक्त समाजवादी नायक की बारह बरस की कैद की सजा भुगत रहे युवा पति और कुल एक बरस के शिशु के बंदी पिता के रूप में कोमल भावनाओं से लेकर समाजवाद के बेहतर भविष्य के लिए कठोर सैद्धांतिक संकल्पों के बीच की लुका-छिपी का चित्रण है। यह एक समाजवादी सत्याग्रही के मनोविज्ञान को जानने-समझने के लिए भी उपयोगी रहेगी। कांग्रेस सरकार के प्रति समाजवादियों के आक्रोश और आकर्षण की दुविधा का सटीक वर्णन है। इस किताब में नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश, डॉ. लोहिया, अशोक मेहता, श्रीधर महादेव जोशी, नारायण गणेश गोरे जैसे समर्पित देशभक्त समाजवादियों के जुटने-बिखरने का मार्मिक मूल्यांकन इसे मधु लिमये की राजनीतिक यात्रा के कुछ उलझे प्रसंगों को भी सुलझाता है।
1 मई 1922 को एक निम्न-मध्यम वर्ग परिवार में जनमे मधु लिमये ‘भारत छोड़ो’ की 1942 की ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी सफल लड़ाई के बाद पूंजीवाद, जातिवाद और सामंतवाद के विरुद्ध आगे बढ़ी साहसी पीढ़ी के एक श्रेष्ठ प्रतीक थे। उन्होंने एस.एम. जोशी की प्रेरणा से पंद्रह बरस की उम्र में आजादी की लड़ाई के लिए इंटर से आगे की पढ़ाई छोड़ कर एक कांग्रेस सोशलिस्ट के रूप में अक्टूबर, 1940 में युद्ध-विरोधी सत्याग्रह करके लगभग एक बरस का कारावास अनुभव पा चुके थे। इसके तुरंत बाद अच्युत पटवर्धन, जयप्रकाश नारायण और डॉ. लोहिया के युवा अनुयायी के रूप में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ को अपनी जवानी के चार बरस दिए। 1946 में जेल से बाहर आकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक प्रशिक्षक बने। इसी प्रक्रिया में उनकी एक युवा अध्ययन मंडल में चम्पा गुप्ते से आत्मीयता बनी और 15 मई 1952 को दोनों का अंतरजातीय विवाह हुआ। चम्पा–मधु को जुलाई, 1954 में अनिरुद्ध के रूप में पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। अपनी मनपसंद युवती से प्रेम-विवाह और एक नवजात शिशु के शुभ जन्म ने मधु लिमये के जीवन में निर्मल आनंद की बाढ़ ला दी। लेकिन मधु लिमये के व्यक्तित्व में आत्मसुख से जादा बड़ी जगह देश-धर्म की थी। इसलिए उन्होंने अपनी विवाह की तीसरी वर्षगाँठ पर अपनी तरफ से ‘भेंट’ के रूप में गोवा सत्याग्रह में जेल जाने की इच्छा प्रकट की और चम्पा जी ने सहमति दे दी! अनिरुद्ध की पहली वर्षगाँठ पर हुई मित्र-संध्या मधु लिमये की गोवा सत्याग्रह के लिए विदाई की गोष्ठी भी बन गयी!
मधु लिमये 25 जुलाई को ज्वरग्रस्त दशा में गोवा सत्याग्रह के एक दस्ते के नायक के रूप में पुर्तगाली पुलिस द्वारा बर्बर व्यवहार के साथ गिरफ्तार किये गए। पांच महीने के बाद पुर्तगाल सरकार ने उनको 12 साल की सख्त कैद की सजा सुनाई। इस क्रम में मधु जी ने 26 जुलाई ’55 से 1 फरवरी ’57 के 19 महीने के गोवा कारावास के दौरान एक डायरी भी लिखी जिसे चम्पा जी ने यथावत इस किताब में शामिल किया है। इस डायरी में उनके बेहद निजी आत्मचित्रों के जरिये अंग्रेजों को भारत से बाहर करने में सफल नौजवान भारतीय लोकसेवकों का स्वप्न-संसार सामने आता है। देश के नए सत्ताधीशों और समाजवादी आन्दोलन के महानायकों दोनों से मोहभंग है। व्यक्तिगत जिम्मेदारियों और राष्ट्रीय चुनौतियों के बीच बिगड़ रहे समन्वय को लेकर आत्म-मंथन है। भविष्य की चुनौतियों की रूपरेखा उभरती है। गोवा और पुर्तगाली उपनिवेशवाद के अंतिम मुकाबले के गूढ़ रहस्यों से जुड़ी यह खिड़की इसलिए भी अनूठी मानी जानी चाहिए कि इसमें गोवा के यशस्वी मुख्यमंत्री प्रताप सिंह राणे की 1996 के प्रथम संस्करण के लिए लिखी भूमिका और गोवा विमोचन सहायक समिति के सचिव जयंतराव तिलक द्वारा लिखा प्राक्कथन भी है।
गोवा एशिया में यूरोपीय विस्तारवाद का सबसे मार्मिक उदाहरण रहा है। 3702 किलोमीटर क्षेत्रफल वाले इस सुंदर समुद्र-तटीय प्रदेश पर 1510 में साम्राज्यवादी पुर्तगाल का कब्ज़ा हो गया। पुर्तगाली शासन ने तब से 1961 तक गोवा की संस्कृति और समाज के पश्चिमीकरण के हरसंभव तरीके अपनाए। धर्म-परिवर्तन, धर्म-स्थानों को तोड़ना, हिन्दू और मुस्लिम धर्मावलम्बियों के साथ भेदभाव, और पुर्तगाली भाषा को प्रशासन और नौकरियों में अनिवार्य करना पुर्तगाली राज की सांस्कृतिक नीति के मुख्य पहलू थे। (क) पुर्तगाल सरकार के प्रोत्साहन, (ख) धार्मिक भ्रांतियों, और (ग) मानसिक गुलामी के तिहरे दबाव ने गोवा की विदेशी राज की लम्बी गुलामी से मुक्ति के सपने को ही कठिन बना रखा था। राष्ट्रवादियों में एकता के अभाव ने शताब्दियों से चले आ रहे पुर्तगाली नियंत्रण को और मजबूत बना दिया था।
यह भी विस्मयकारी सच है कि ब्रिटिश राज से भारत की 15 अगस्त 1947 को मुक्ति के बावजूद गोवा की पुर्तगाली गुलामी स्वाधीन भारत के नायकों की गलत नीतियों के कारण 1961 तक बनी रही। इस विलम्ब के बारे में आज भी गोवा के लोगों में कई प्रश्न बने हुए हैं। इसीलिए भारत के अनेकों यशस्वी नेताओं की तुलना में गोवा में मुक्ति के संघर्ष का बिगुल फूँकने वाले स्वतंत्रता सेनानी डॉ. राममनोहर लोहिया, त्रिश्तांव द ब्रिगान्स कुन्हा, जुलियांव मिनेजिस, पीटर अल्वारेस, पुरुषोत्तम काकोडकर, नेशनल कांग्रेस (गोवा), गोवा विमोचन सहायक समिति और आजाद गोमान्तक दल का गोवा के स्वराज, भारत से एकजुटता, और अस्मिता पुनर्निर्माण में अनूठा स्थान है।
‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के लिए अंग्रेजों की जेल में 1944 से 1946 तक यातनामय बंदी से रिहा होते ही 18 जून ’46 और 29 सितम्बर को दो बार नागरिक आजादी के लिए अपनी गिरफ्तारी देनेवाले डॉ. राममनोहर लोहिया के प्रति गोवा में निर्विवाद अपनत्व है। 1954-55 में चले सर्वदलीय सत्याग्रह के नायकों और देशभर से जुटे हजारों सत्याग्रहियों के प्रति कृतज्ञता की भावना है। गोवा की आजादी के लिए पुर्तगाली पुलिस की बर्बरता का शिकार बनने के लिए आगे आए और पुर्तगाल सरकार की जेलों में हँसते-हँसते 4 से 29 बरस तक का कठिन बंदी-जीवन बितानेवाले वीर भारतीय स्त्री-पुरुषों की कहानियां याद हैं। गोवा में डॉ. लोहिया की एक आदमकद प्रतिमा है जहां हर साल 18 जून को गोवा मुक्ति संघर्ष दिवस मनाया जाता है। गोवावासियों ने अपनी आजादी के मसीहा के प्रति आभार-प्रदर्शन के लिए उस स्थान को ‘लोहिया मैदान’ का नाम दिया है। गोवा मुक्ति संघर्ष के सत्याग्रहियों को कैद रखनेवाले अग्वाद जेल को भी एक दर्शनीय संग्रहालय में बदलने की योजना कार्यान्वित की जा रही है। इसी जेल में डॉ. लोहिया को 1946 में कई दिनों तक कैद रखा गया और गांधीजी द्वारा सर्वोच्च स्तर पर हस्तक्षेप से 8 अक्तूबर की मध्यरात्रि में रिहाई हुई। लेकिन अगले पांच बरस तक गोवा में प्रवेश न करने का प्रतिबन्ध भी घोषित किया गया था।
गोवा की दुर्दशा से व्यथित डॉ. लोहिया तुरंत तीसरी बार पुर्तगाल के फासिस्ट शासन से टकराने के लिए तैयार थे लेकिन गांधीजी और नेहरूजी के निर्देश पर अपनी गिरफ्तारी को स्थगित करके सत्याग्रह को गोवा और आसपास के कार्यकर्ताओं के जिम्मे करना पड़ा। इसके लिए लोहिया ने गांधीजी के मार्गदर्शन में ‘गोमंताकियों के नाम खुला पत्र’ जारी किया। 24 दिसम्बर ’46 के इस ऐतिहासिक पत्र की गोवा में हजारों प्रतियां बांटी गईं। इसके अंत में लोहिया ने साहस और सत्याग्रह का मन्त्र दिया था– ‘जेल जाइए। लाठी खाइए। गोली खाइए। मोर्चा–जुलूस निकालिए और यूरोपियों का पैर एशिया से उखाड़िए!’ दूसरी तरफ गोवा, बेलगाँव, सावंतवाडी, पूना, मुंबई, रत्नागिरी, धारवाड़, कोल्हापुर आदि में जन-जागरण करके एक कुशल सेनापति की तरह गोवा मुक्ति संघर्ष की अगली कतार को तैयार किया। खानापुर (बेलगाँव) में डॉ. लोहिया, नाना पाटिल, कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसे दिग्गज राष्ट्रीय नेताओं के मार्गदर्शन में गोमान्तकियों का प्रशिक्षण हुआ। राष्ट्र सेवा दल की ऐतिहासिक भूमिका रही। गोवा मुक्ति के लिए लोहिया की अपील पर महिलाओं ने आभूषण दिए, कलाकारों ने बंबई और पुणे से लेकर बेलगाँव तक में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए। सभी तरीकों से साधन जुटाए। नवम्बर ’46 से फरवरी ’47 तक सत्याग्रह का संचालन कराया।
इसमें भारत-विभाजन से जुड़े प्रश्नों और दुनिया में विजेता राष्ट्रों द्वारा फासिस्ट सालाजार की सरकार को पुर्तगाल में समर्थन देने से पैदा अत्यंत प्रतिकूल हालात के बावजूद लोहिया प्रेरित आन्दोलन में लगभग 600 लोगों ने साहस के साथ हिस्सा लिया। इस सत्याग्रह ने सात बरस बाद 1954-55 में उठी दूसरी लहर के लिए मजबूत बुनियाद का निर्माण किया। डॉ. लोहिया ने 18 जून 1947 को ‘हमारा गोमान्तक’ के विशेषांक में आह्वान दुहराया था कि ‘यूरोप की एशिया में सीनाजोरी को गोवा में ही ठुकराना चाहिए। गोवा विमोचन के लिए न दिल्ली की तरफ देखना चाहिए, न संयुक्त राष्ट्रसंघ की तरफ। अपनी हिम्मत से ही स्वयं का उद्धार हो सकता है। गोवा के महाद्वार से यूरोप ने एशिया में प्रवेश किया। अब गोवा में ही यूरोप की शिकस्त होनी चाहिए।’ (केलकर, पृष्ठ 42-48)
इतिहास की दृष्टि से गोवा का सम्राट अर्णन अशोक के शासनकाल से शुरू होता है। उस दौर में बौद्ध भिक्षुओं ने बौद्ध धर्म का प्रचार किया। आज भी गोवा में बुद्धकालीन अवशेष हैं। आठवीं शताब्दी में राष्ट्रकुटा और कदम्ब काल में जैन धर्म की शिक्षा का प्रभाव था। 14वीं शताब्दी के आरम्भ में गोवा 1312 से दिल्ली सल्तनत के अधीन ले लिया गया। 1370 से 1469 तक यह विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत रहा। 1469 से इसपर गुलबर्गा के बहमनी सुलतान का राज कायम हुआ।
1510 में पुर्तगालियों ने बीजापुर के युसूफ आदिलशाह को युद्ध में पराजित किया और गोवा यूरोपीय उपनिवेशवाद का एशिया में पहला शिकार बनाया गया। विजयनगर के हिन्दू राजा के सूबेदार तिमोजा ने गोवा का शासक बनने के लालच में पुर्तगाली बेड़े के प्रधान और वायसराय आफोंस द अलबुकर्क को गोवा पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया था। 25 नवम्बर 1510 को पुर्तगालियों ने गोवा द्वीप और आसपास के कुछ द्वीपों पर अपनी सत्ता स्थापित की। 1543 में संत फ्रांसिस जेवियर का गोवा आगमन हुआ जिससे ईसाई धर्म का प्रभावशाली प्रचार होने लगा। पुर्तगालियों को यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि कालिकट शहर में काफी तादाद में ईसाई रहते थे और वहां एक गिरजाघर भी था। वस्तुत: ईसाई धर्म संत थामस के जरिये दूसरी शताब्दी में ही दक्षिण भारत पहुँच गया था। लेकिन पुर्तगालियों द्वारा गोवा पर कब्ज़ा जमाने के पहले उसका यूरोप के संगठित चर्च से कोई सम्बन्ध नहीं था।
गोवा के इतिहास की किताबों के अनुसार फरवरी 1666 को छत्रपति शिवाजी ने गोवा के फोंडा क्षेत्र की घेराबंदी और 1667 में बार्देश पर हमला किया था। 1675 में फोंडा पर कब्ज़ा कर लिया था। वस्तुत: सोलहवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी के बीच पुर्तगाली साम्राज्यवाद के खिलाफ चौदह बार विद्रोह हुए। इसमें राणे विद्रोहियों के प्रयास आज भी याद किये जाते हैं। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पहले ही 1851 में दीपाजी राणे ने पुर्तगाली राज को उखाड़ने का प्रयास किया था।
बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दौर में ‘केसरी’, ‘मराठा’, ‘हिन्दूमत’, ‘प्रभात’, ‘प्रदीप’, ‘डिबेट’ आदि पत्र-पत्रिकाओं ने स्वराज के पक्ष में जनमत जागरण में योगदान किया। फिर भी यह दुखद तथ्य है कि 1961 में भारत की सैन्य कार्रवाई होने तक गोवा गुलाम रहा। वैसे गोवा के लोगों पर ब्रिटिश राज से मुक्ति के लिए भारतीयों द्वारा किये जा रहे आन्दोलनों का सीधा प्रभाव था। 1920-21 के असहयोग आन्दोलन का गोवा के सरोकारी लोगों पर ऐसा असर पड़ा कि 1928 में गोवा कांग्रेस कमिटी बनाई गई। फिर कांग्रेस द्वारा 1935 से अपनी गतिविधियों को ब्रिटिश भारत तक सीमित रखने के निर्णय के कारण गोवा की समिति से संबंध टूट गया।
उधर पुर्तगाल में 1910 से 1926 तक राजनीतिक अस्थिरता का दौर रहा। इस अवधि में पुर्तगाल में नौ राष्ट्रपति बनाए गए और 44 सरकारें बनी और गिरीं। 1930 में सालाजार प्रधानमंत्री बनाये गए और पुर्तगाल जर्मनी के नात्सी और इटली की फासिस्ट सरकारों के प्रभाव क्षेत्र में आ गया। सालाजार खुद तानाशाह बन गया और पुर्तगाल फासिस्ट ताकतों की पकड़ में फंस गया। इससे गोवा में प्रतिरोध के नायकों का दमन और देश-निकाला आम बात हो गई। फिर भी त्रिश्तांव ब्रान्गास कुन्हा, शिरगांवकर, मिनेजिस ब्रान्गास, गोविन्द पुंडलीक देसाई और दादा वैद्य जैसे सेनानियों ने हार नहीं मानी। 1938 में फिर से गोवा कांग्रेस समिति का त्रिश्तांव ब्रंगास द कुन्हा के संयोजकत्व में गठन हुआ। गोवा के सवाल पर कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष बोस से भेंट की। 425 बरस के कलंकमय संबंध को समाप्त करने के लिए इस समिति ने 1946 में ए. जी. तेंदुलकर की अध्यक्षता में ‘गोवा छोड़ो’ का आह्वान किया। डॉ. लोहिया द्वारा 18 जून 1946 को किए गए सत्याग्रह से स्वराज के लिए निर्णायक संघर्ष का अध्याय शुरू हुआ जिसकी पंद्रह बरस बाद 19 दिसम्बर 1961 को पणजी में भारतीय सेना के सामने पुर्तगाली गवर्नर जनरल के आत्म-समर्पण से पूर्णाहुति हुई।
इंदुमती केलकर, गणेश मंत्री और चम्पा लिमये-कुर्बान अली की इन पुन:प्रकाशित किताबों को पढ़ने के बाद गोवा को भारत का अभिन्न अंग बनाने के लिए 18 जून ’46 से शुरू और 21 दिसम्बर ’61 को पूरा हुए अभियान में अपनी आहुति देनेवाले हर चर्चित–अचर्चित स्त्री-पुरुषों के प्रति मन में आदर भाव की लहर उठती है। गोवा मुक्ति के मंत्रदाता डॉ. राममनोहर लोहिया के साहस और देशभक्ति के प्रति श्रद्धापूर्ण नमन का भाव उत्पन्न होना सहज है। आज भी गोवा में डॉ. लोहिया को स्वतंत्रता का मार्गदर्शक और प्रेरक माना जाता है।
इस सब के बारे में प्रसिद्ध कोंकणी साहित्यकार बा. भ. बोरकर की एक प्रसिद्ध कविता की पंक्तियां आज भी पठनीय हैं :
लिहिल्या या जा ओली त्यांची वालली न शाई
डोळे भरुनी तोंच देखिली उडलेली लाही
धन्य लोहिया, धन्य भूमि ही, धन्य तिचे पुत्र
धन्य त्यांचा त्याग देखते जनतेचे नेत्र
(इन पंक्तियों की स्याही अभी सूखी तक नहीं है, आँखे भर-भर कर देखा है वह बहता हुआ लावा, धन्य लोहिया, धन्य है यह भूमि, धन्य हैं इसके पुत्र, धन्य हैं जनता के वे नेत्र, जिन्होंने यह त्याग देखा।)
एक अन्य लोकप्रिय कवि मनोहर सरदेसाई ने तो अपनी कविता में लोहिया को ‘आग्वाद के सिंह’ के रूप में चिर-स्मरणीय बना दिया है :
“अग्वादाज्या शिवा तुमे हाउसी आप का जाग, तुकाय भाव कामचे टले आमचे धाय दाग. अन्याय जयं, जुल्म जंग तू रे जयं तूं रे यंय.”
(ओ रे आग्वाड के सिंह, तुमने ही हमें जगाया। हमारी भावनाएं तुम ही समझ सके। हमारे काले दाग तुम्हीं जानते हो। जहां-जहां जुल्म है, अन्याय है वहां तुम हो, वहां तुम हो।)
हिंदी में उपलब्ध दोनों पुस्तको को कैसे प्राप्त किया जा सकता है कृपया बताएं.