1
नये सवाल मिले
जब-जब उत्तर चाहा,
तब-तब नये सवाल मिले।
रोटी-पानी, खेती-बारी,
इनके लिए ही मारा-मारी।
जानबूझकर जूझ रहे हैं,
जाने कैसी है दुश्वारी।
एक यही सपना था,
सबको रोटी-दाल मिले।
सबके अपने-अपने सपने,
सबकी अपनी-अपनी गाथा।
अपनेपन में अलग-अलग हैं,
हाथ, पैर, बाजू, मुँह, माथा।
कोई नहीं सलामत,
सब के सब बेहाल मिले।
कल की आशा में जीते हैं
फटी हुई चादर सीते हैं।
कोई दुख को देख न पाए,
इसीलिए आँसू पीते हैं।
पता, पूँजी, मरजादा वाले,
घर कंगाल मिले।
2
बदलावों के नाम पर
अस्थिरताएं झेल रहे हैं,
बदलावों के नाम पर।
चलते-चलते आ पहुँचे हम,
कैसे आज मुकाम पर।
आदमकद लोगों का,
जैसे आज अभाव हुआ।
कहकर बात मुकर जाना ही,
आज स्वभाव हुआ।
प्रगति पंथ के राही पहुँचे,
कैसे आज विराम पर।
भाई-चारा दुआ बंदगी
सब कुछ रीत रहे।
देश बेचकर खाने वाले,
ही हैं जीत रहे।
हर मौसम बाजार लगाते,
हैं पुरखों के नाम पर।
बारूदी तहजीब के हाथों,
सब नीलाम हुआ।
खाने और खिलाने का,
हर किस्सा आम हुआ।
नीलामी हो रही यहाँ,
है औने-पौने दाम पर।
3
कुत्तों का सा जीवन
कुत्तों का सा
जीवन जीना।
कमजोरों पर गुर्राना,
बलवानों का सब
गटगट पीना।
अधिकारों की भीख मांगते,
ये कैसे अधिकारी हैं।
हर कोई नीचे वाले पर,
हर दम कसे सवारी है।
कुछ भी करना पड़े मगर,
बेनागा मिलता रहे महीना।
पट्टा बांध गले में कैसे,
रौब दिखाना आता है।
गुर्राना या दांत दिखाना,
यही सिखाया जाता है।
यह कथरी बतलावो सालो,
क्या उधेड़ना, कैसा सीना।
4
नौकरी तो नौकरी है
नौकरी तो नौकरी है
लाख हो सुख-पूर्ण,
फिर भी,
राह कांटों से भरी है
चाहा अनचाहा सभी
करना ही पड़ता है।
तंत्र में ईमान को,
मरना ही पड़ता है।
निडर दिखती है मगर,
भीतर ही भीतर
यह डरी है।
कल के डर में,
आज का भी सुख नहीं पाते।
हर कदम के पहले,
सौ-सौ बार घबराते।
किन्तु गैरों की नजर में,
सुख भरी इंदर परी है।
क्या समेटें, क्या उठायें,
और कितना छोड़ जायें।
यह गणित उलझी हुई है,
सपनों को कैसे सजायें।
रंग-रोगन से पुती दीवार,
यह सीलन भरी है।
5
नहीं बदल पाया है
नहीं बदल पाया है कुछ भी,
चली आ रही वही प्रथा।
अपने-अपने राम सभी के,
अपनी-अपनी रामकथा।
अब भी यज्ञ ध्वंस होते हैं,
आश्रम सभी निशाने पर।
बौद्धिक प्रतिभा कसी जा रही,
खुद के ही पैमाने पर।
घटी नहीं कुछ और बढ़ी है ,
वसुंधरा की हृदय व्यथा।
मातृशक्ति, अपहर्ता, प्रताड़ित
होकर पत्थर आज हुई।
रक्षणीय जो थी उसकी,
हर ओर बिकाऊ लाज हुई।
गड़ी जा रही है, धरती में,
कहती हुई समस्त व्यथा।
मरता है हर वर्ष मगर,
जाने कैसे जी जाता है।
यह समाज ही प्राणशक्ति,
दे देकर उसे जिलाता है।
राम के भ्रम में रावण-लीला,
का ही सारा साज सजा।
(28 मार्च 1955 को मीरजापुर के नियामतपुर कला गाँव में जनमे क्षमाशंकर पाण्डेय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की और उत्तर प्रदेश की राजकीय उच्च शिक्षा सेवा में प्राध्यापक नियुक्त किए गए। एसोसिएट प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए। कवि,समीक्षक और सम्पादक के रूप में पहचान बनाई। मुक्तिबोध, धूमिल, उग्र और तुलसीदास के साहित्य पर नए ढंग से विचार किया। अपनी दर्जनों प्रकाशित पुस्तकों से वे स्तरीय आलोचक और सजग कवि के रूप में सामने आते हैं। विगत 12 मई को कोविड संक्रमण से प्रयागराज में उनका निधन हो गया। समता मार्ग की ओर से श्रद्धांजलि।)