— उमेश प्रसाद सिंह —
मैं कबीर नहीं हूं। मगर मैं कुछ खोज रहा हूं। मैं जो खोज रहा हूं वह कोई बड़ी चीज नहीं है। मैं बहुत ही मामूली चीज को अपने आसपास के जन-जीवन में, अपनी समाज-व्यवस्था में ढूंढ़ रहा हूं। जाने कब से हलकान हूं। खोज-खोजकर थक रहा हूं। हार रहा हूं। कहीं वह मिल नहीं पा रही है। मैं अपने देश के जनतंत्र में जन को खोज रहा हूं। जन कहां है? जन के लिए क्या है?
हमारे जनतंत्र में जन सिर्फ एक दिन दिखाई पड़ता है। उस दिन वह हर कहीं दिखाई पड़ता है। शहर में, बाजार में, गांव में। हर जगह। खुले आकाश के नीचे तपती हुई दोपहरी में, पसीने-पसीने वह लंबी-लंबी लाइन में लस्त-पस्त लगा हुआ हर किसी को दिखाई देता है। मतदान के दिन मतदान के लिए वह हर कहीं आसानी से देखा जाता है। हालांकि मतदान लोकतंत्र की किताबों में एक शब्द मात्र है, जिसका व्यवहार में कोई अर्थ नहीं होता। मत जैसी कोई चीज अगर है भी, तो दान से उसका कतई कोई लेना-देना नहीं है। हमारे समय में वह केवल हथियाने की, हड़पने की और लूटने की चीज बनकर रह गया है। धनबल से, बाहुबल से, बुद्धिबल से जो बीस पड़ता है बटोर लेता है। फिर उस एक दिन के बाद जन हमारे जनतंत्र में पता नहीं कहां खो जाता है। ऐसा खो जाता है कि खोजे कहीं नहीं मिलता। हेरे से हाथ नहीं लगता।
जिसे हर कहीं होना चाहिए वह कहीं नहीं है। न देश में न प्रदेश में। न शहर में न गांव में। न बाजार में न खेत में। कहां गया जन? कुछ पता नहीं। जनतंत्र में जन का कहीं पता नहीं है। हमारे जनतंत्र में जन बूंद है। सरकार सागर है। बूंद समुद्र में समा गई। समाहित हो गई। बूंद समानी समद में। सरकार के अस्तित्व में आते ही सारी जनता सरकार में विलीन हो गई।, अब जन नहीं है, जनता नहीं है, बस सरकार है। हां सरकार है, देश में है, प्रदेश में है, गांव-गांव में गांव की सरकार है। जन कहीं नहीं है। जनता कहीं नहीं है।
जनता में महामारी है। महामारी जनता को मार रही है। जनता मर रही है।
जनता काहे लिए है? मरने के लिए है। जनता में बीमारी है। दवा नहीं है। अस्पताल नहीं है। इलाज नहीं है।
जो अस्पताल हैं वे अस्पताल नहीं हैं। अस्पताल की शक्ल में, कानून के संरक्षण में धन उगाही के बेशर्म अड्डे हैं।
जनता में भूख है, भय है। अशिक्षा है, असुरक्षा है। स्कूल नहीं है। सुरक्षा का आश्वासन कहीं नहीं है। क्यों नहीं है? इसलिए कि जनता में भूख को, भय को, अशिक्षा को, असुरक्षा को बने रहने देना है। इनके साथ रहने से ही जनता, जनता जैसी रह सकती है।
जनता तो सरकार के लिए है। मगर सरकार किसके लिए है? नहीं, यह प्रश्न ठीक नहीं है। यह प्रश्न कानून के खिलाफ है। यह प्रश्न लोकतंत्र की मर्यादा के विरुद्ध है। इससे जुड़े और भी बहुत प्रश्न हैं जिन्हें पूछने की मनाही है। प्रश्न यह भी है कि क्या सरकार और देश एक ही चीज है? मगर नहीं। नहीं पूछना है। कुछ भी पूछना, किसी से भी पूछना मना है।
हमारे समय में किताबें भयानक रूप से झूठ बोलने लगी हैं। हम क्या करें? आखिर किसका विश्वास करें? किताब कहती है कि सरकार जनता के लिए है। सरकार देश के लिए है। मगर ऐसा दिखता नहीं है। दिखता यह है कि सरकार सिर्फ सरकार के लिए है। सरकार को बनाए रखने के लिए। समूचा देश सरकार के लिए है। हमारी किताबों में जो कुछ लिखा है वही हमारे जीवन में दिखता क्यों नहीं है? जनतंत्र के कानून की किताब में जनता के प्राथमिक अधिकारों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता घोषित की गई है। अपने प्राथमिक कर्तव्य से सरकार अपना पीछा क्यों छुड़ा रही है, कौन पूछे।
हमारे देश में सरकार है, अपनी पूरी ठसक के साथ है मगर जनता के लिए नहीं है। जनता अपने बच्चों को पढ़ाने में पसीने-पसीने है। निजी स्कूलों को फीस देते-देते बेहाल हो रही है। एक ही कोर्स को पूरा करने के लिए तीन-तीन तरह से फीस भर रही है। स्कूल में अलग, ट्यूशन में अलग, कोचिंग में अलग। सब कुछ करके केवल कागज की डिग्रियां पा रही है जो आंसू पोंछने के काम भी नहीं आ रही हैं। मामूली-सी बीमारी के लिए निजी अस्पतालों में लाखों का बिल चुका रही है। हाँफ रही है। नाक से ऊपर चढ़ते पानी में अफना रही है। सुरक्षा की तो बात ही छोड़िए। फिर भी सरकार है। पता नहीं किसके लिए है। इधर महामारी ने तो पूरे तंत्र को पूरा-पूरा नंगा करके रख दिया है।
पूरा देश बिलबिला रहा है। मर रहा है। पिट रहा है। मिट रहा है।
आदमी एक बार नहीं, बार-बार मर रहा है। वह मरने से पहले भी मर रहा है। मरने के समय भी मर रहा है। मरने के बाद फिर मर रहा है।
न जाने कैसी त्रासदी है। न जाने कैसा संकट है, अभूतपूर्व। नहीं, इससे पहले ऐसा नहीं हुआ था। कुछ समझ नहीं आ रहा है, कोई कुछ समझ नहीं पा रहा है, क्या करे। आलंब के, अवलंब के, सहारे के सारे आश्रय छिन गए हैं। आदमी जहां भी है अकेला है। असहाय है। लाचार है। सरकार कहीं नहीं है।
सरकार जहां कहीं भी है, आदमी से बहुत दूर है। आदमियों के बीच में केवल लाचारी है। दहशत है। आतंक है। असहायता है।
कोरोना इस महादेश के गांवों में पांव पसार रहा है। यहां बीमारी से संघर्ष की कोई बात नहीं है। केवल आत्म-समर्पण है। बीमारी का आक्रमण हो और लोग मर जायं।
हमारे गांवों में कहीं भी सरकार का कोई नामोनिशान तक नहीं है। अखबारों में, टेलीविजन के समाचारों में सरकार के वक्तव्य हैं। लड़ने की उद्घोषणाएं हैं। मैदान में कोई नहीं है।
मैं एक गांव में रहता हूं। कितने दिन से रोज सुन रहा हूं। सरकार आ रही है। बचाव के सारे इंतजाम के साथ आ रही है। मगर पता नहीं कहां है। यहां तो कहीं नहीं है।
हमारे जनतंत्र में समूचा जन सरकार में समाहित है। मैं सरकार में खोज रहा हूं, जन कहीं नहीं है। मैं आपद काल में जनता के बीच सरकार को खोज रहा हूं। सरकार कहीं नहीं है।
मैं खोजते-खोजते थक रहा हूं। पक रहा हूं। मुझे लगता है मैं खुद ही खो गया हूं। मैं न सरकार में हूं न जनता में हूं।
‘हेरत हेरत हे सखी गया कबीरा हेराय।’ मैं भी हेराय गया हूं। खो गया हूं। मगर कबीर की तरह नहीं। बिलकुल अपनी तरह। बूंद बूंद में ही सूख गई है। हर जगह महामारी है। आदमी कहीं नहीं है।
हेरत-हेरत, निबन्ध पढ़ी। गहन यथार्थ को दर्शाता हुआ, मार्मिक निबन्ध है। सर की सधी हुई शैली प्रशंसनीय है।