— शिवदयाल —
भूख, शोषण और हकतलकी जिनके पल्ले आया है सत्तर साल की आजादी में, उन्हीं श्रमजावी मानव-समूहों, जन-गण के जीवन के अंधेरों, उनके सपनों और संघर्षों का बयान है ‘अँधेरे अपने अपने’।
उत्तर-भूमंडलीकरण हिंदी साहित्य में यह तबका प्रायः छूटा हुआ है, कम से कम इसपर पूरी तरह केंद्रित कोई कविता संग्रह (बल्कि जोड़ा कविता संग्रह) ध्यान में नहीं आता। मजदूर वर्ग तो मालूम पड़ता है, समकालीन राजनीतिक विमर्श से गायब ही हो गया है। किसानों की तो फिर भी बात होती रहती है। श्रम संघों, श्रम संघ आंदोलन का आखिरकार हाशिये पर चला जाना, मजदूर वर्ग की शक्ति में निरंतर ह्रास, और इसके बरअक्स पूंजी और तकनीक का बढ़ता प्रभुत्व और प्रचलित विकास के संदर्भ में इनकी बढ़ती स्वीकार्यता, मजदूरों के पक्षधर राजनीतिक दलों- वामपंथ की उत्तरोत्तर शक्तिहीनता- इन सब कारणों से आज मजदूर वर्ग की आवाज उतनी प्रखरता से नहीं सुनाई देती राजनीति के आकाश में। गौर से देखें तो भूमंडलीकरण ही नहीं, अस्मितावादी राजनीति ने भी मजदूरों की वर्गीय पहचान को क्षति पहुंचाई है।
उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के वैश्विक दबाव, उद्योग-व्यवसाय से सरकारों का हाथ खींचना और निजी क्षेत्र द्वारा जगह लेना, स्थायी की जगह तदर्थ नियुक्तियां और कुल मिलाकर श्रमजावी वर्ग के प्रति सरकार और समाज के ठंडे नजरिए ने वास्तव में इनकी स्थिति शोचनीय बना दी। कहीं-कहीं मजदूरों के असंतोष ने विस्फोटक रूप धारण कर लिया (जैसे 2012 में मानेसर स्थित मारुति कार फैक्टरी की घटना) लेकिन उससे भी स्थिति पर कोई सकारात्मक फर्क नहीं पड़ा।
इस पूरे दृश्य को याद किए बिना, उनको ध्यान में रखे बिना सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव के दो कविता संग्रहों ‘रोटियों के हादसे’ और ‘अँधेरे अपने अपने’ के महत्त्व को नहीं समझा जा सकता। उनका पहला कविता संग्रह तो रोटी और भूख पर ही केंद्रित है। एक बिंब देखिए- ‘भूखा बच्चा रोटी समझ/ चांद को लपकना चाहता है/…उसके हिस्से में/ ना तो रोटी है ना ही उड़ान/ उसके हिस्से में सिर्फ भूख है।’ उल्लेख करना अवांतर या अप्रासंगिक नहीं होगा कि सत्येन्द्र कलकत्ता के जूट कारखाने के मजदूर के बेटे थे। उन्होंने स्वयं भी कम उम्र से श्रमजीवी पत्रकार का जीवन जिया। मजदूरों की जीवन स्थितियों के वे साक्षात भोक्ता रहे। उन्होंने एक मजदूर की आंखों से दुनिया को देखा। वे अपनी कविताओं में मजदूरों के पक्षधर या सच्चे हितैषी बन गए – इतना भर कहने से बात पूरी नहीं होगी। वास्तव में कवि सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव आज के इस मजदूर विरोधी समय में मजदूरों की आवाज रहे। वह तो कविता को लाठी बनाने का आह्वान करते हैं (कविता की लाठी), व्यवस्था बदलने की निर्णायक लड़ाई में हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का आग्रह रखते हैं।
‘अँधेरे अपने अपने’ की कविताएं मनुष्य के मूलभूत, अस्तित्वगत संकट से जूझती हैं। कवि भूख-प्यास जैसे आवेगों के अनेक दोषों से देखता-परखता है, उनके होने के कारणों की तहों तक पहुंचने की कोशिश करता है। और जिस वर्ग में भूख एक वास्तविकता है उसमें यह पारिवारिक-सामाजिक संबंधों की भी बारीक पड़ताल करता है। कहीं न कहीं कवि भूख की स्थितियों के खिलाफ प्रतिरोध की तलाश में ही प्रवृत्त नहीं होता, बल्कि स्वयं प्रतिरोध का प्रतीक भी बन जाता है। उसे लगता है कि अगर वह बोलेगा नहीं तो आनेवाली पीढ़ियां ‘बिना जीभ वाली’ पैदा होंगी। अर्थात गूंगी पैदा होंगी। कवि देख रहा है कि आम आदमी की पहचान, उसका होना एक पहचानपत्र में कैद होकर रह गया है जो सत्ता और सरकार उसे प्रदान करती है। वह शुतुरमुर्गी मध्यवर्गीय जीवन की विडंबनाओं पर भी तल्ख टिप्पणी करता है जो ‘सुविधा के हिसाब से रिश्वत देकर ईमानदारी का राग अलापता है’, जिसके पास ‘खतरों से मुंह छिपाने के लिए/ तमाम आधुनिक तकनीक हैं’, जो इतना डरपोक है कि शुतुरमुर्ग हो गया है (शुतुरमुर्ग)।
‘अँधेरे अपने अपने’ का कवि अँधेरे और उजाले को भी नई दृष्टि से देखता है। उसकी नजर में अँधेरा उजाले की साजिशों को खोलता है- अँधेरा उजाले की तरह बेईमान नहीं होता। वह सत्ता का अँधेरा बनाम जनता का अँधेरा जैसे बिंब गढ़ता है- ‘सत्ता का अँधेरा ऐसा ही होता है/ वह उजाले का भ्रम फैलाकर/ सब कुछ निगल लेना चाहता है – दूसरी ओर ‘जनता का अँधेरा’ अलग होता है/ वहां मौजूद होती है उजाले की उम्मीद/ यह अँधेरा डराता नहीं/ हौसला बढ़ाता है’….. कवि घोषणा करता है – ‘इतिहास गवाह है/ उजाले की उम्मीद के आगे / बार-बार हारा है सत्ता का अँधेरा’।
‘रोटियों के हादसे’ और ‘अँधेरे अपने अपने’ का कवि कथ्य को अधिक महत्त्वपूर्ण मानता है इसलिए अपने एप्रोच में अधिक खुला हुआ और प्रत्यक्ष है। वह कला के मानकों की बहुत परवाह न करते हुए भी कुछ विरल बिंब उकेरता है। वह ‘भुखमरी’ के सामने ‘दुखमरी’ को ला खड़ा करता है, वह पेट की आग का दिल की और चूल्हे की आग से रिश्ता बैठाता है। वही कवि ‘स्त्री’ को लेकर अत्यंत संवेदनशील रचनाएं करता है। इस युग को वह मां से छल करनेवाली संतानों का युग मानता है, वह इंतजार करती उस मां के प्रति पाठक को संवेदित करता है जिसे दुख की आदत है। वह युद्ध को भी मां के नजरिए से देखने का साहस करता है। वह बेटियों को दिल्ली भेजने के प्रति आगाह करता है जो आए दिन बर्बरता का शिकार हो रही हैं (बेटियां और दिल्ली)। वह आज की अहल्या की अलग भूमिका देख रहा है- ‘कलियुग में/ एक बलत्कृत लड़की ने/ कर दिया है अहल्या बनने से इनकार/ अपनी चेतना के समस्त वेग के साथ/ उसने भींच ली है मुट्ठी/ पत्थर बनने की जगह/ उसने हाथ में उठा लिये हैं पत्थर/ डोल रहा है/ इंद्र का सिंहासन।’ वे छोटी कविताओं के कवि कहे जा सकते हैं, उनका जोर भाव और कथन की क्षिप्रता पर अधिक है।
सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव की कविताओं में व्यंजना खूब है, जो चीजों के बीच सादृश्यता ही नहीं, वैपरीत्य से भी जन्म लेती है। ‘जड़’ सीरीज की कविताओं में उन्होंने जड़ (मूल) और जड़ (संवेदनहीन) को एक दूसरे के सामने ला खड़ा किया है, पाठक को चौंकाते हुए- ‘दिल्ली/ हर समस्या की / जड़ है।…. ‘दिल्ली/ हर समस्या पर/ जड़ है।’ संग्रह की अंतिम कविता ‘एक मुलाकात खुद से’ का अंत कितने धारदार तरीके से होता है, लेकिन कितनी सादाबयानी से- ‘मैं मिल रहा हूं खुद से/ कि जैसे अपने अच्छे दिन से/ मिलता है आदमी/ इतना आसान भी नहीं है/ खुद से मिल लेना।’ वे युगचेतस कवि हैं, अपने समय की पहचान रखते हैं। प्रेम और मानवता को बचाने की लड़ाई में वे कविता का इस्तेमाल करते हैं। उनकी कुछ कविताओं को पढ़कर लगता है जैसे बात जल्द खत्म हो गई, रसोद्रेक तो अभी शुरू हुआ था। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि उनमें कोई दिखावा या बनावटीपन नहीं है, कोई लागलपेट नहीं। वे शोषित-पीड़ित जन-गण के सच्चे हितैषी कवि हैं।
किताब : अँधेरे अपने अपने (कविता संग्रह)
कवि : सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव
लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ
मूल्य : 100 रु.
(मूल रूप से उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले से संबंध रखने वाले सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव की शिक्षा-दीक्षा कोलकाता में हुई। उनके पिता जूट कारखाने में काम करते थे। उनका आरंभिक जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा, तब भी उन्होंने फिजिक्स ऑनर्स करने के बाद हिंदी में और फिर पत्रकारिता में एम.ए. किया जिसमें उन्हें गोल्ड मेडल प्राप्त हुआ। 1990 में उन्होंने कोलकाता में दैनिक अखबार सन्मार्ग से पत्रकार के रूप में शुरुआत की और वहां दस साल काम किया। 2001 में वे टीवी पत्रकारिता में आए, पहले ईटीवी और फिर सहारा समय में। अभी वे टीवी टुडे के तेज आजतक चैनल में वरिष्ठ संपादक के पद पर कार्यरत थे।
सत्येंद्र एक संवेदनशील और समर्थ रचनाकार थे। उन्होंने कविताएँ, कहानियाँ और एक लघु उपन्यास भी लिखा। ‘रोटियों के हादसे’ और ‘अंधेरे अपने अपने’ उनके दो कविता संग्रह हैं। किंडल पर उनका लघु उपन्यास ‘कसक’ प्रकाशित है। वे साहित्यिक ई-पत्रिका लिटरेचर पॉइंट के संस्थापक-संपादन थे और श्रेष्ठ रचनाओं को प्रकाशित करने के अतिरिक्त नई रचनाशीलता को भी प्रोत्साहित करते रहे।
कोलकाता जर्नलिस्ट क्लब द्वारा उन्हें संतोष घोष मेमोरियल अवार्ड मिला। इसके अतिरिक्त ‘दूध’ कहानी के लिए कोलकाता हिंदी मेला (समकालीन सृजन) की ओर से उन्हें अलखनारायण स्मृति पुरस्कार प्रदान किया गया।
सत्येन्द्र जी का बारह वर्ष पूर्व किडनी प्रत्यारोपण हुआ था, उनकी पत्नी ही दाता थीं। पहले उनकी पत्नी को कोविड संक्रमण हुआ, वे ठीक हो गईं। लेकिन लाख सावधानी बरतने के बाद भी सत्येन्द्र जी संक्रमित हो गए। उन्हें 30 अप्रैल की रात को गुरुग्राम स्थित पारस हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। वहीं 13 मई 2021 की सुबह केवल तिरपन वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। एक संवेदनशील रचनाकार, प्रखर पत्रकार और अत्यंत सौम्य, सदाशय और प्रेमी व्यक्ति के रूप में सत्येन्द्र जी की स्मृति सदा बनी रहेगी।
सत्येंद्र जी वैशाली, गाजियाबाद के सेक्टर 6 स्थित प्लॉट 156, मीडिया एनक्लेव में रहते थे। यहीं इनका परिवार रहता है।)