हिम्मत की वकालत – राजकुमार जैन

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पी.एन.लेखी ( फोटो इंडिया टुडे से साभार )

ज वकालत के पेशे में अर्श से लेकर फर्श तक के वकीलों की एक लंबी कतार काम कर रही है जिसमें बड़ी तादाद में महिलाएँ भी शामिल हैं। 1960 के दशक में  दिल्‍ली यूनिवर्सिटी की लॉ फैकल्टी में इका-दुक्‍का ही लड़कियां पढ़ती थीं। सुनने में आता है कुछ वकील ऐसे हैं जो एक पेशी पर 5 से 15 लाख रुपये तक की फीस पाते हैं, वहीं वकीलों का एक तबका ऐसा है जो मुश्किल से गुजारे-भर का खर्च निकाल पाता है।

मेरे बचपन में वकील का खिताब पाये इंसान की गली-मोहल्‍ले में बड़ी इज्‍जत और हैसियत होती थी। समाज पर उनका रुतबा गालिब होता था। गली-मोहल्‍ले के लोग, बिना जान-पहचान के भी वकील साहब के आते-जाते दुआ सलाम, नमस्‍कार करते थे। लोगों को लगता था कि हम पर अगर कुछ मुश्किल आ जाए, तो वकील साहब हमें बचा लेंगे। परंतु आज  अगर हम सच्‍चाई से रूबरू हों तो उनकी सामाजिक प्रतिष्‍ठा पैसे की तराजू तुलने लगी है। आज का इंसान सोचता है कि वकील की एक फीस होती है, वक्‍त पड़ने पर अगर मेरी जेब में उतने पैसे होंगे तो मैं वकील साहब को अपना पैरवीकार बना लूँगा। मगर वकालत के पेशे में हर दौर में ऐसे वकील हुए हैं, जिनको समाज पैसे की बिना पर नहीं, बल्कि उनकी काबलियत, समाज में अन्‍याय के विरुद्ध, नागरिक हकूकों की बहाली, जुल्‍मी शासन के खिलाफ़ लड़नेवाले सत्‍याग्रहियों, वंचित तबको के लिए बिना किसी फीस और डर के लड़नेवाले योद्धा के रूप में याद करता आया है। आजादी की जंग में तो महात्‍मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, बैरिस्‍टर आसफ अली, तेज़ बहादुर सप्रू, सी.आर. दास जैसे अनेक नेता उस जमाने के नामी वकील थे। अपनी सुख-सुविधा की जिंदगी छोड़कर सत्‍याग्रही बनकर लंबी-लंबी जेल यातनाएँ भुगत रहे थे। मेरे जीवन में भी कई ऐसे किरदार हैं।

सबसे पहला नाम मरहूम प्राणनाथ लेखी जी का, जिन्‍हें पीएन लेखी के नाम से जाना जाता है। लेखी जी सोशलिस्‍ट नेता डॉ राममनोहर लोहिया के अनुयायी भी थे तथा उनके वकील भी। मैंने उनको सबसे पहले नवंबर 1966 में देखा। मैं दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय छात्रसंघ का उपाध्‍यक्ष और ‘समाजवादी युवजन सभा’ का कार्यकर्ता था। डॉ. लोहिया की अगुआई में छात्रों की मांगों को लेकर एक प्रदर्शन 18 नवंबर, 1966 को दिल्‍ली में संसद भवन के सामने हुआ था। उस सिलसिले में मैं भी गिरफ्तार होकर डॉ. लोहिया के साथ तिहाड़ जेल में बंद था। पता चला कि पीएन लेखी डॉ लोहिया से मिलने जेल में आए हैं तथा जेल में  बंद सब सत्‍याग्रहियों के लिए केले तथा कुछ और सामान भी साथ लाए हैं। उस समय सत्‍याग्रहियों के वार्ड तक उनके मुलाकातियों को आने की इजाज़त होती थी। लेखी साहब और डॉ साहब आपस में बात कर रहे थे, तब मैंने पहली बार उनको देखा। अगले दिन अदालत में जज साहब के सामने बहस करते हुए सुना।

डॉ लोहिया का वकील होना कितना टेढ़ा काम होता था उसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है। सोशलिस्‍ट पार्टी ने तय किया कि दिल्‍ली में जितने भी विदेशी गुलामी के  बुत (चिह्न) हैं उन्‍हें तोड़ना है।

लोकसभा के सामने लॉर्ड इर्विन का बुत लगा हुआ था। गोरखपुर के सोशलिस्‍ट कार्यकर्ता फना गोरखपुरी बुत तोड़नेवालों में सबसे आगे थे। उनको एक महीने की सजा हो गई थी। डॉ लोहिया ने लेखी जी को बुलाकर कहा कि तुम्‍हें फना का मुकदमा लड़ना है, वो बीमार है। परंतु डॉ लोहिया ने साथ ही बड़ी मुश्किल हिदायत भी दे दी कि झूठ नहीं बोलना, इस बात से इनकार नहीं करना कि बुत तोड़नेवालों में फना गोरखपुरी भी एक थे। लेखी जी के सामने बड़ी विकट समस्‍या थी। उन्‍होंने लोहिया जी से कहा कि एक तरफ तो हम अदालत में यह मानें कि हमने बुत तोड़ा है, फिर भी हम चाहें कि हमें रिहा कर दिया जाए। डॉ लोहिया ने कहा हाँ मैं यही चाहता हूँ। ऐसा ही होना चाहिए।

चूँकि फना गोरखपुरी को केवल एक महीने की कै़द की सजा हुई थी, इसलिए लेखी जी ने इसकी अपील दायर नहीं की बल्कि दोबारा सजा पर गौर करने की दरख्‍वास्‍त जज एनएस जोशी की अदालत में पेश की। लेखी जी केस पर काफी माथापच्‍ची करके अदालत में पेश हुए, कहा कि मैं कुछ बातों को अपने मुवक्किल की तरफ से इकरार करना चाहता हूँ। पहले यह कि मैंने इस बुत को तोड़ने की तैयारी की, फिर लोगों को इकट्ठा किया, बुत तोड़ने के औजार मंगवाये, फिर सीढ़ी द्वारा ऊपर चढ़ा, बुत की हथौड़े से नाक तोड़ दी और लूक ओढ़ा दिया। चूँकि बुत बहुत मजबूत था, मैं तोड़ नहीं पा रहा था, इसलिए मैंने इसका मुँह काला कर दिया। लेखी साहब ने आगे कहा मैं इन सब बातों का इकरार करता हूँ।

जज साहब सुनकर हैरान रह गए। उन्‍होंने कहा कि अब बचा ही क्‍या है? लेखी साहब ने कहा कि मैंने किसी कानून को नहीं तोड़ा है, क्‍योंकि जुर्म और उसकी परिभाषा तो कानून की किताब में लिखी है। जब तक कानून का उल्‍लंघन न हो, मुझे सजा नहीं मिलनी चाहिए। लेखी साहब ने कलकत्ता हाई कोर्ट के एक फैसले की ओर अदालत का ध्‍यान दिलाया। अदालत में लेखी जी ने दलील दी कि जुर्म तब बनता है अगर कुछ लोग कहें कि बुत उनकी संपत्ति था। यह बुत किसी की संपत्ति नहीं है क्‍योंकि भारत सरकार ने अपने गजट में अंग्रेजों के इन बुतों की मिल्कियत नहीं लिखी है और न ही दिल्‍ली म्‍यूनिसिपल कमेटी ने इनकी मिल्कियत का दावा किया है। इसलिए अदालत को मेरे मुवक्किल को रिहा कर देना चाहिए। सरकारी वकील ने अदालत से कुछ दिन का समय मांगा। इन्‍हीं दिनों में भारत सरकार ने गजट नोटिफि़केशन निकालकर इन बुतों की मिल्कियत अपने नाम कर ली। लेखी जी ने अदालत का ध्‍यान इस नोटिफिकेशन की तरफ़ दिलाया और कहा कि यह साबित करता है कि यह बुत तोड़ते वक्‍त किसी की सम्‍पत्ति नहीं था। जिस प्रकार सड़क पर पड़े पत्‍थर को मैं अपने पैर से ठोकर मार सकता हूँ, वह कोई जुर्म नहीं बनता है। इसलिए मेरे मुवक्किल को रिहा किया जाए, अदालत ने फना गोरखपुरी को बाइज्‍जत रिहा कर दिया।

लेखी जी की शख्सियत की असली पहचान मुझे तिहाड़ जेल में हुई। 1975 में आपातकाल में मैं मीसा-बंदी था, लेखी जी भी मीसा-बंदी होकर हमारे वार्ड में थे। उनकी पत्‍नी श्रीमती कमला लेखी जी जब कभी तिहाड़ जेल में उनसे मुलाकात करने आती थीं, तो वार्ड में रह रहे अन्‍य बंदियों के लिए हमेशा कुछ न कुछ खाने का सामान लाती थीं। जेल में कई बंदी अपनी अपनी तकलीफों पर उनसे अर्जी लिखवाते थे, परंतु मैंने कभी भी लेखी जी के माथे पर शिकन नहीं देखी, कई साथियों की वो माली मदद भी करते थे। उनका हौसला इतना बुलंद था कि ही नहीं था वे मीसा-बंदी हैं।

बड़ी से बड़ी सरकारी तथा अदालती ताकत से भिड़ने को वो हमेशा तैयार रहते थे। जिस किसी केस में फीस न मिलने, बदनामी तथा अपने को खतरे में डालने का जोखिम हो, लेखी जी पहल करके उसमें आगे बढ़ते थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के मुजरिम सतवंतसिंह का केस लड़ने की हिम्‍मत किसी और वकील में नहीं थी, बॉर कौंसिल ने शायद फैसला भी किया था कि कोई वकील उनका केस नहीं लड़ेगा। पर लेखी जी सतवंतसिंह के वकील बन गए। चारों तरफ उनकी बेहद निंदा हुई। मगर लेखी जी का कहना था  कि वकालत के पेशे में मैंने यह कसम ली थी कि अपने मुवक्किल को बचाना मेरा धर्म है। मैं अपनी फर्ज अदायगी के लिए यह केस लड़ रहा हूँ।

लेखी जी के परिवार के कई सदस्‍य आज मुल्‍क के नामवर वकील हैं। उनके बेटे अमन लेखी एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया जैसे बड़े ओहदे पर हैं। लेखी जी की पुत्रवधू मीनाक्षी लेखी वकील होने के साथ-साथ नई दिल्‍ली से लोकसभा की संसद सदस्‍य भी हैं। नामवर वकील बनना, फीस के रूप में मोटी रकम पाने की काबलियत होना, संसद सदस्‍य बनना कोई बहुत बड़ी बात नहीं, परंतु पीएन लेखी बनकर इतिहास रचना जि़गरे का काम है।

खतरों से खेलनेवाले दूसरे नामी वकील केके लूथरा थे। इमरजेंसी में जॉर्ज फर्नांडीज तथा अन्‍य कुछ लोग डायनामाइट केस में दिल्‍ली की तिहाड़ जेल में बंदी थे। सोशलिस्‍ट वकील ओपी मालवीय उनके जूनियर थे। उस वक्‍त ऐसा भय का माहौल था कि गैरों की बात तो छोड़ो अपने सगे-संबंधी भी मिलने से कतराते थे, फिर जॉर्ज तो वैसे भी हिंसा की साजिश रचने के केस में बंदी थे। ये लूथरा साहब ही थे जो जज एमएम शमीम की अदालत में हर पेशी में जॉर्ज की तरफ से खड़े होते थे।

मैं मीसा में रिहा होकर तीस हजारी कोर्ट में पेशी पर जाता था, लूथरा  साहब जितने भी पेशी पर आए कार्यकर्ता  होते थे, सबको कैन्‍टीन में ले जाकर नाश्‍ता-पानी कराते थे। मैं जब कभी किसी गरीब कार्यकर्ता को लेकर उनके पास गया, उन्‍होंने उसकी मदद की। लूथरा साहब के बेटे सिद्धार्थ लूथरा भी एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया जैसे बड़े कानूनी पद पर रह चुके हैं, उनकी बेटी गीता लूथरा भी वकीलों की पहली कतार में शामिल हैं। लूथरा साहब के बेटे-बेटियाँ आज दिग्‍गज वकीलों में शामि हैं, उनकी एक पेशी की फीस लाखों रुपये में है। नागरिक अधिकारों, समाज में अन्‍याय के विरुद्ध लड़नेवाले आंदोलनकारियों का बिना फीस के उन्‍होंने कितना साथ दिया है इस बारे में मेरी कोई मालूमात नहीं।

लूथरा साहब की विनम्रता तथा प्रेरणा देने की बात मैंने अपने कानों से सुनी है। एक दिन एक नया-नया बना वकील बड़ी मायूसी से उनसे कह रहा था ‘सर वकालत तो वही कर पाएगा जिसके बाप-दादा वकील हों या किसी गॉडफादर का हाथ उसके सर पर हो। बड़ी-सी अपनी लायब्रेरी हो, पैसा हो।’ लथूरा साहब ने उसका मनोबल बढ़ाने के लिए अपना उदाहरण देते कहा, ‘काका तू हौसला मत खोना, मेहनत कर, सफलता तुझे ज़रूर मिलेगी, मैं भी पार्टीशन के वक्‍त पाकिस्‍तान में सब कुछ गंवा के  शिमला आया था तो मेरे पास कुछ नहीं था।’ आदर के साथ याद केके लूथरा साहब को किया जाएगा, ना कि लाखों रुपये की फीस पाने व सरकारी कानूनी पद पर रहने के तमगे को।

उस वक्‍त सोशलिस्‍ट रंग में रँगे हुए नए-नए वकील बने स्‍वराज कौशल तथा उनकी पत्‍नी (भाजपा की नेता) सुषमा स्‍वराज भी आपातकाल समाप्ति के बाद के दौर में तीस हजारी अदालत पहुँच जाते थे।

कंवरलाल शर्मा जी का जिक्र किये बिना तो दिल्‍ली के गरीबनवाज वकीलों का इतिहास अधूरा रह जाएगा। शर्मा जी पुरानी कांग्रेस के समर्थक थे परंतु हर विचारधारा का कार्यकर्ता उन्‍हें अपना मान कर चलता था। दिल्‍ली की विधानसभा में मैं भी उनके साथ मेम्‍बर था। अँग्रेजी जुबान पर उनको महारत हासिल थी। किस्‍सागोई में भी वह माहिर थे। उनकी फितरत सत्ताधारियों से भिड़ने की थी। जॉर्ज के मुकद्दमे  में भी वो पहुँच जाते थे। तीस हजारी के किसी भी सियासी मुकद्दमे में बिना फीस के उनको स्‍थायी पैरोकार मानकर हम चलते थे।

आर.के. गर्ग ( फ़ोटो साभार )

सुप्रीम कोर्ट के मशहूर वकील मरहूम आरके गर्ग  देश के चोटी के वकील थे। 1970 में संयुक्‍त सोशलिस्‍ट पार्टी तथा भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का ‘संयुक्‍त भूमि मुक्ति आंदोलन’ हुआ था। इस सिलसिले में हमने इंदिरा गांधी के महरौली के फार्म हाउस पर प्रदर्शन किया था। मैं और गर्ग साहब दोनों गिरफ्तार हो गए थे। मैं सोशलिस्‍ट पार्टी का कार्यकर्ता था, गर्ग साहब कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के एमएलए रह चुके थे, परंतु तिहाड़ जेल की उस दोस्‍ती का लिहाज वह इस हद तक करते थे कि जब कभी मैं उनके चैम्‍बर या नीति बाग वाले बँगले पर किसी कार्यकर्ता के केस को लेकर जाता था तो हमेशा यह कहकर कि अरे भई, राजकुमार तो तेरे जेल का साथी है, ये गरीबों का हमदर्द है, इसका हुक्‍म तो मुझे हर हाल में मानना है। बिना फीस केस करने के साथ-साथ खिलाए-पिलाए बगैर अपने घर-दफ्तर से कभी आने नहीं देते थे।

दिल्‍ली की तीस हजारी अदालत के दीवानी के नामी वकील थे मुनीश्‍वर त्‍यागी, जिनका हाल ही में इंतकाल हुआ है आपातकाल में तिहाड़ जेल में जब घरवाले मिलने से कतरा रहे थे, सहसा एक दिन साथी जयकुमार जैन के साथ मुझसे मिलने आए। मैं डर गया कि कहाँ ये शरीफ लोग खतरा उठाने चले आए, ये घर-परिवार वाले हैं, इनको भी अगर मीसा में बंद कर दिया तो क्‍या होगा? मैंने उनको मना किया कि कृपया आगे से मत आना, मैं नहीं चाहता कि तुम खतरे में पड़ो। परंतु एडवोकेट जयकुमार जैन, (पूर्व विधायक) डॉ हरीश खन्‍ना तिहाड़ जेल व हिसार जेल से लेकर अदालत में पेशी वाले दिन जरूर पहुँचते थे।

न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना

1977 में आपातकाल समाप्ति के तुरंत बाद एक बेहद रोचक घटना घटी। आपातकाल में हैबियस कार्पस (बंदी प्रत्‍यक्षीकरण याचिका) का केस एडीएम जबलपुर बनाम शिवकान्‍त शुक्‍ला सुप्रीम कोर्ट में मुख्‍य न्‍यायाधीश एएन रे, न्‍यायाधीश हंसराज खन्‍ना, न्‍यायाधीश एमएच बेग, न्‍यायाधीश वीवी चन्‍द्रचूड़, न्‍यायाधीश पीएन भगवती की बेंच के सामने आया। चार न्‍यायाधीशों का निर्णय सरकार के पक्ष में था कि आपातकाल में नागरिकों के मौलिक अधिकारों, आजादी के अधिकारों को निरस्‍त किया जा सकता है। न्‍यायाधीश खन्‍ना का अकेला मत था कि संविधान की धारा 21 के अंतर्गत मिले मौलिक अधिकारों को खत्‍म नहीं किया जा सकता। इंदिरा गांधी सरकार ने मुख्‍य न्‍यायाधीश एएन रे के रिटायरमेंट के बाद खाली हुए पद पर वरीयता के आधार पर न्‍यायाधीश खन्‍ना को मुख्‍य न्‍यायाधीश न बनाकर उनके जूनियर न्‍यायाधीश एमएच बेग को मुख्‍य न्‍यायाधीश बना दिया। इसके विरोध में न्‍यायाधीश खन्‍ना ने सुप्रीम कोर्ट के न्‍यायाधीश पद से इस्‍तीफा दे दिया।

दिल्‍ली के कान्‍स्‍टीट्यूशन क्‍लब के लॉन पर न्‍यायाधीश खन्‍ना के सम्‍मान के लिए एक आयोजन हुआ, जिसमें अन्‍य प्रसिद्ध हस्तियों के साथ उस समय के काफी मशहूर वकील एनए पालकीवाला तथा सोशलिस्‍ट नेता मधु लिमये भी थे। मधु लिमये ने अपने भाषण में पालकीवाला की यह कहकर आलोचना की कि आपने जिंदगी-भर संपत्ति के अधिकारों के लिए टाटा-बिड़ला और अन्य बड़े कारोबारी घरानों के लिए केस लड़े हैं परंतु 19 महीने जेल में गुजारने वाले किसी नागरिक के अधिकारों की आपको चिंता नहीं रही। पालकीवाला साहब में आत्‍मग्‍लानि का भाव जागा। कुछ दिन बाद ही दिल्‍ली की तीस हजारी कोर्ट में एक केस दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा आपातकाल के पहले किए गए प्रदर्शन को लेकर आया, जिसमें अरुण जेटली भी एक अभियुक्‍त थे।

पालकीवाला साहब को केस का पता चला तो वो तीस हजारी कोर्ट में छात्रों की तरफ से पैरवी करने पहुँच गए। अदालत में खबर फैल गई, जूनियर सब जज की अदालत में केस था। जब उन्‍हें पता चला कि पालकीवाला साहब आए हैं तो हड़बड़ा कर उनके स्‍वागत में जज साहब खड़े होकर नमस्‍कार करने लगे। बिना बहस के ही छात्रों को बिना शर्त रिहा कर दिया गया।

मैंने इस लेख में केवल उन वकीलों का जिक्र किया है जिनसे मेरा संपर्क रहा  है या  जिन बातों का मैं चश्‍मदीद रहा हूँ। आज भी मौलिक अधिकारों, बोलने की आज़ादी, सत्‍याग्रह करनेवालों का बिना किसी डर के, बिना फीस के पैरवी करनेवाले कई वकील हम देख रहे हैं।

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