— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
छह जून की शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दूरदर्शन पर फिर राष्ट्र को संबोधित करते हुए कोरोना महामारी से बचाव के लिए टीकाकरण की केंद्र सरकार की नीति में बदलाव की घोषणा की। इस घोषणा में उन्होंने कहा :
1. अब केंद्र सरकार 75 प्रतिशत टीकाकरण की जिम्मेदारी खुद सम्हालेगी और 25 प्रतिशत टीकाकरण निजी अस्पतालों के द्वारा किया जाएगा।
2. अठारहसाल से 44 साल के समूह के लिए केंद्र तथा राज्यों के द्वारा फ्री टीकाकरण किया जाएगा।
3. राज्यों को भी केंद्र सरकार टीका खरीद कर वितरित करेगी।
4. निजी अस्पतालों के द्वारा टीका निर्धारित कीमत के अतिरिक्तमात्र 150 रुपए सेवा शुल्क लेकर लगाया जाएगा।
5. टीकाकरण की इस नई नीतिको आगामी 21 जून से लागू किया जाएगा।
यहाँ सबसे पहला सवाल यह उठता है कि टीकाकरण की नीति में बदलाव क्या मोदीजी के अचानक हृदय-परिवर्तन का परिणाम है या इस देश में कुछ बचे-खुचे स्वतंत्र एवं सरोकारी पत्रकारों के द्वारा मोदी सरकार की दोषपूर्ण टीकाकरण की नीति की निरंतर आलोचना, सुप्रीम कोर्ट के द्वारा केंद्र सरकार से टीकाकरण की नीति के विषय में पूछे गए तीखे सवालों, चार राज्यों के गैर-भाजपाई मुख्यमंत्रियों सहित देश के 12 विपक्षी दलों के द्वारा प्रधानमंत्री को चिठ्ठी लिखकर सभी के लिए फ्री टीकाकरण की मांग, केरल की वामपंथी सरकार के द्वारा सभी के लिए फ्री टीकाकरण के पक्ष में विधानसभा से पारित प्रस्ताव, या महामारी की विकरालता के शिकार लाखों लोगों की मृत्यु से जनता में निरंतर बढ़ते गुस्से तथा आक्रोश से मोदीजी के डर का परिणाम है?
यहाँ दूसरा सवाल यह है कि क्या मोदीजी मानते हैं कि अब तक केंद्र सरकार की टीकाकरण की नीति गलत थी और इसलिए उसमें परिवर्तन की आवश्यकता हुई? क्योंकि बिना इस बात को स्वीकार किए इस परिवर्तन से लगता है कि मोदीजी जब जो करते हैं, ठीक करते हैं और उनका हर निर्णय ठीक होता है तथा उसपर सवाल करना राष्ट्र के निर्माण में उनके अभूतपूर्व योगदान पर संदेह करना है।
तीसरा सवाल यह उठता है कि मोदीजी ने पहले 18 से 44 साल के समूह के लिए फ्री टीकाकरण की सरकारी नीति क्यों नहीं अपनाई जबकि 45 साल से अधिक आयुवर्ग के लिए सरकार की तरफ से फ्री टीकाकरण का नियम लागू किया गया था?
चौथा सवाल यह है कि राज्य सरकारों की तरफ से लगातार यह मांग किए जाने के बावजूद उन्हें केंद्र सरकार के द्वारा खरीदे गए वैक्सीन की कीमत के बजाय ऊंची कीमत पर वैक्सीन खरीदने के लिए क्यों मजबूर किया गया? सच यह है कि केंद्र ने अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए राज्य सरकारों को सीधे वैक्सीन खरीदने के लिए छोड़ दिया जो भारत की संघीय व्यवस्था में विकसित सहयोगी संघवाद की भावना के विपरीत तो था ही बल्कि उसका नुकसानदेह परिणाम यह निकला कि राज्यों ने जहाँ टीका उत्पादन करनेवाली देश की कंपनियों से ऊँची कीमत पर टीके की खरीद की, वहीं राज्य सरकारें देश के बाहर की टीका उत्पादन कंपनियों से सीधे टीका खरीदने की कोशिश में सफल नहीं हो पायीं क्योंकि विदेशी कंपनियों ने राज्य सरकारों को सीधे वैक्सीन बेचने से इनकार कर दिया और केंद्र सरकार को ही वैक्सीन बेचने की हामी भरी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि टीके की भारी कमी के कारण टीकाकरण की गति बहुत धीमी हो गयी।
यह साफ लगने लगा कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हर हाल में जीतने में महीनों से दिन-रात लगे रहे मोदीजी ने जनता को कोरोना की दूसरी लहर में संक्रमण का शिकार होकर असमय काल के गाल में जाने के लिए छोड़ दिया है। लगता था कि उन्हें चिंता है तो सिर्फ चुनाव की, और बंगाल का चुनाव जीत जाएंगे, तो किसान आंदोलन के प्रति उनकी सरकार की निष्ठुरता से लेकर महामारी से निपटने में बरती गई कोताही और बदइंतजामी तक, हर चीज क्षम्य हो जाएगी। आलोचकों का मुंह बंद हो जाएगा। लेकिन वह भूल जाते हैं कि चुनाव पांच साल पर होता है मगर सरकार और सत्ता में बैठी पार्टी की जवाबदेही की परीक्षा रोज होती है। और संकट काल में तो इम्तहान भी सख्त होता है। मोदी सरकार इस इम्तहान में पूरी तरह फेल रही।
अब नाकामी और निष्ठुरता पर पर परदा डालने के लिए सच्चाई को झुठलाने, झूठा प्रचार करने, चरम चाटुकारिता से भरे बयान देने और जनता को बरगलाने के लिए मीडिया के इस्तेमाल का सिलसिला तेज हो गया है ताकि छवि बिगड़ने का आनेवाले चुनावों में नुकसान न उठाना पड़े।
हमारे सामने एक ऐसी सरकार है जो विशेषज्ञों की चेतावनियों को लगातार अनसुना करती रही। कोरोना संक्रमण के फैलने का खतरा स्पष्ट तौर पर दिखने के बावजूद, हरिद्वार में महाकुंभ तथा कई राज्यों में विधानसभा चुनाव अपने राजनीतिक लाभ के लिए होने दिया, और संक्रमित लोगों को हॉस्पिटल में बिस्तर, आक्सीजन और कुछ जरूरी दवाओं की कमी के कारण रामभरोसे मरने को छोड़ दिया। गंगा तथा कई अन्य नदियों में बहती सैकड़ों लाशें इसका नग्न प्रमाण थीं।
कोरोना की पहली लहर में अचानक पूरे देश में लाकडाउन करके इस सरकार ने महानगरों और शहरों के लाखों प्रवासी मजदूरों को असहाय, अपने हाल पर जीने-मरने के लिए छोड़ दिया था। लेकिन लाकडाउन के समय का जो उपयोग कोरोना से निपटने की तैयारी के लिए करना चाहिए था वह भी नहीं किया। ताली-थाली बजाने की मजमेबाजी पर ही सरकार का ध्यान लगा रहा।
कोरोना की दूसरी लहर में तो सरकार नदारद ही हो गई। फिर भी यह कहते शर्म नहीं आती कि हमने मोदी जी के नेतृत्व में कोरोना की दूसरी लहर को हरा दिया। लगता है खुशामद के मामले में भाजपा ने कांग्रेस को मीलों पीछे छोड़ दिया है।
पांचवां सवाल यह उठता है कि नई टीकाकरण की नीति को तुरंत लागू ना करके 21 जून का इंतजार क्यों? क्या मोदी जी इसे भी एक राजनीतिक इवेंट बनाना चाहते हैं क्योंकि 21 जून को योग दिवस है… क्या सरकार जनता के टीकाकरण के लक्ष्य को जल्द जल्द से पूरा करके जनता को कोरोना संक्रमण से बचाने के बजाय अपने राजनीतिक छवि निर्माण को अधिक महत्त्वपूर्ण मानती है?
और अंतिम सवाल – अब भी निजी अस्पतालों को 25 प्रतिशत टीका खरीदने की छूट क्यों? सरकार क्यों नहीं निजी अस्पतालों को भी फ्री टीका आपूर्ति करती है और निजी अस्पतालों को भी निःशुल्क सेवा प्रदान करने के लिए बाध्य करती है ताकि वे भी लोगों का टीकाकरण करने के राष्ट्रीय लक्ष्य प्राप्त करने में अपना योगदान करें? महामारी में निजी अस्पतालों को सरकार ने आपदा में अवसर पाने की काफी छूट पहले से ही दे रखी है, अब और छूट क्यों?
वैश्विक महामारी जनित इस भयानक विपदा में शत-प्रतिशत टीकाकरण की जिम्मेदारी केंद्र सरकार को पहले ही उठानी चाहिए थी, और अब भी तुरंत यह जिम्मेदारी सरकार ले क्योंकि जनता का पैसा है, और जनता लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधियों को इसलिए चुनती है ताकि वो जनता के पैसे का जनता के जीवन की रक्षा तथा उसके विकास के लिए इस्तेमाल करें, ना कि राजसी भोग-विलास, मूर्ति निर्माण और महामारी में भी सेंट्रल विस्टा जैसे प्रोजेक्ट पर जनता का पैसा लुटाने के लिए।
सुंदर।लेकिन गोदी मीडिया इसे मास्टर स्ट्रोक बता रहा है।अदालत के डर से दुबके मोदी।