— विवेक मेहता —
तिल का ताड़ बनाना हो, राई का पहाड़ खड़ा करना हो, बाल की खाल निकालना हो, बातों का बतंगड़ बनाना हो या अर्थ का अनर्थ करना हो- राजनीतिक पार्टी इनमें माहिर होगी तो ही सत्ता का स्वाद चखती है। इन दिनों जो हंगामा होता दीख रहा है वह इन्हीं की महारतों का नजारा है। आंखों में धूल झोंकना भी इसे ही कहते होंगे। हेराल्ड अखबार के शेयर बदलाव मामले में सरकार को घोटाला दीख रहा था। सप्ताह तक घंटों-घंटों पूछताछ होती रही। इधर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ शेल कम्पनियों के बारे में तथ्यों के साथ बात कर रहा है और ईडी शवासन लगाये है। राजा होने के यही तो फायदे हैं। कभी भी धृतराष्ट्र बना जा सकता है।
समय काटने के लिए सोशल मीडिया भी आग में घी डालता रहता है। आग ज्यादातर एक दो दिन जलती है। फिर बुझ जाती है। जैसे कभी लगी ही नहीं हो। यदा कदा अंदर से चिंगारी फूट पड़ती है और फिर आग फैल जाती है।
भाई लोगों ने पिछले दिनों यूपी के एक आईएएस ऑफिसर का वीडियो वायरल कर दिया। जिसमें किसी बड़े स्कूल में, छोटी बच्ची के साथ हुए रेप से संबंधित मामले के निपटारे के लिए बड़े अफसर ने 20 लाख रुपए की मांग रखी। फिर बड़े के बड़े अफसर का स्पष्टीकरण आया कि मामला साल भर पहले का है। जांच हो गई। अफसर का प्रमोशन भी हो गया। अब यह वीडियो क्यों वायरल किया गया? किसने किया? क्या उद्देश्य था?- यह जांच करेंगे।
(जांच आमतौर पर अनावश्यक काम के लिए अयोग्य व्यक्तियों में से चुने हुए बिनइच्छुक व्यक्तियों द्वारा उस निर्णय पर पहुंचना होता है, जो ज्ञात आरोप से अज्ञात होना तय होता है।)
अरे, रिश्वत तो आनी जानी चीज है। आपने मुझे दी, मैंने उसे दी, उसने किसी और को दी, किसी और ने आपको दे दी। यह तो सर्कल है। इससे रोटेशन चलता रहता है। अच्छी अर्थव्यवस्था के लिए यह जरूरी भी है।
भाई लोगों को तो इलेक्टोरल बांड व्यवस्था से भी समस्या है। कहते हैं- राजनीतिक पार्टी को चंदा किसने दिया? कितना दिया? मालूम नहीं पड़ता। अदाणी से भी समस्या है। ईडी से भी समस्या है। समस्या ही समस्या है इसीलिए तो विपक्षी हो! विश्व में पैसों के मामले में देश का नाम रोशन हो रहा था। कभी 27वें, कभी 10वें, कभी तीसरे नंबर पर आ रहे थे। देखा नहीं गया। विदेशियों से हाथ मिलाया, उसे नीचे गिरा दिया। यह देशद्रोह नहीं तो क्या है! अरे भाई रोटेशन चलाना है कि नहीं! लोगों को पैसा नहीं मिलेगा तो जियेंगे कैसे?
चुनाव में भीड़ जमा करने, प्रचार-प्रसार, सूट-बूट, कैमरे, गाड़ियों में खर्चा करना पड़ता है। बड़े सांसद, विधायक तक पहुंच नहीं है तो छोटे पार्षद से ही पूछ लो। लोगों में दारू-शारू बांटनी पड़ती है कि नहीं। यह सब पैसा कहां से आता है? नोट छापने की मशीन तो नहीं मिली हुई है। जो इलेक्टोरल बांड देगा वह भी कमाएगा या नहीं? उसे कमाने के लिए काम भी तो देना पड़ेगा। काम के लिए सरकारी कंपनी दे दी तो क्या बुरा किया? समाज में मुअनजोदड़ो के वक्त के आउटडेटेड, सोकॉल्ड नैतिक, ईमानदार आदमी निकल आते हैं। बात का बतंगड़ बनाते रहते हैं। ऐसे लोगों को सीधा करने के लिए ट्रोल गैंग लगाना पड़ता है। उन्हें रोजगार देना पड़ता है। तुम्हारी औकात हो खर्चा करने की तो तुम भी करो। रोका किसने? मगर खर्चा करने के लिए पहले चुनाव तो जीतो। और चुनाव जीतने के लिए पहले खर्चा तो करो!
पिछले दिनों एक मजेदार बात और हो गई। एक राज्य में थोड़े दिनों में चुनाव होने वाला है। राजनीति जमाने के लिए नेताजी धरने पर बैठ गए। पुलिस वालों ने रोका तो उनके बाप तक पहुंच गए। कहते हैं कि धरने के दौरान जब पुलिस ने गिरफ्तार किया तो नेताजी का पजामा गायब हो गया। नंगे को तो नंगा होने से डर नहीं लगता। कहते हैं नंगे से तो भगवान भी डरता है। जनता तो भगवान नहीं है। नंगई से भी डरती है और नंगा होने से भी। इसलिए ही तो जनता है। आम जनता पजामा संभाले रखती है। अत्याचार सह लेती है पर धरने, विरोध, प्रदर्शन से दूर रहती है।