— हरीश खन्ना —
युसूफ मेहर अली का नाम सभी ने सुना होगा जो बम्बई के मेयर भी थे और प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी भी थे। ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो’ यह नारा गांधीजी को उन्होंने ही दिया था।उनकी एक छोटी सी पुस्तक है – ए ट्रिप टु पाकिस्तान। इसमें उन्होंने उन दिनों पाकिस्तान की यात्रा का वर्णन किया है। जहां कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के विभिन्न महत्त्वपूर्ण राजनीतिक व्यक्तियों से मुलाकात का उन्होंने जिक्र किया है।
एक जगह लाहौर में उनसे मिलने कुछ लोग आते हैं। इनमें विद्यार्थी और शिक्षक थे। वहां बात चलती है प्रोफेसर तिलक राज चड्ढा की और प्रेम भसीन की। ये दोनों अविभाजित पंजाब के, उस ज़माने के बहुत प्रसिद्ध कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के लीडर थे। युसूफ मेहर अली लिखते हैं – कि अचानक मैंने देखा वहां लोगों में कुछ फुसफुसाहट और हलचल हुई। कुछ लोग कहने लगे लो वह आ गए हैैं।
यूसुफ मेहर अली फुसफुसा कर धीरे से, वहां आए लोगों से पूछते हैं- यह कौन हैं ?
जवाब मिलता है प्रोफेसर रामकुमार। यहां की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी।
यूसुफ मेहर अली व्यंग्य में मजाक करते हुए वहां उपस्थित लोगों से कहते हैं –
क्या फिर प्रोफेसर? क्या यहां की सोशलिस्ट पार्टी सिर्फ प्रोफेसरों से ही बनी है?
पुस्तक में एक अन्य जगह यूसुफ मेहर अली ने पाकिस्तान में अपनी गिरफ्तारी का जिक्र किया है कि 1942 में लाहौर में रात को प्रो. रामकुमार के घर पर गपशप हो रही थी तो उन्हें अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था।
प्रो. रामकुमार से मैं 1983 में पहली बार दिल्ली में मिला था, दिल्ली के मॉडल टाउन इलाके में। उस समय मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता था। यह संयोग ही था कि उनकी बेटी और दामाद मेरे मित्र हैं। एक दिन उनके यहां मैं डिनर पर गया हुआ था। उनकी बेटी वहीं अपने माता-पिता के साथ रहती थी। उनके पिता प्रो. रामकुमार और माता जी श्रीमती ज्योत्सना गुप्ता जो शादी के बाद विद्यावती गुप्ता हो गईं थीं, दोनों से मेरी मुलाकात हुई। दोनों स्वतंत्रता सेनानी थे और विचारों से दोनों ही प्रगतिशील। समाजवाद में उनकी गहरी आस्था थी। सक्रिय राजनीति से हट चुके थे और अध्ययन-अध्यापन में ही उनका समय बीतता था।
विभाजन के बाद वे दिल्ली में आकर बस गए थे। ज्योत्सना जी कमला नगर में अपना स्कूल चलाती थीं। वह भी स्वतंत्रता सेनानी थीं। (ज्योत्सना जी के बारे में फिर कभी लिखूंगा)। प्रो. रामकुमार विभाजन के बाद दिल्ली में आकर एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ाते रहे। मैं उनसे अकसर मिलता रहता था और एक तरह से उनके परिवार का हिस्सा बन गया था।
प्रो. रामकुमार का जन्म पंजाब के मुदकी, जिला फिरोजपुर में 26 मई ,1917 को हुआ। स्कूल की शुरुआती शिक्षा उनकी वहीं हुई थी। इनके पिता लाला तिलकराम टीचर थे। रिटायर होने के बाद वह खेती से अपना गुजारा करते थे। वह कट्टर आर्यसमाजी थे। वह ‘वंदे मातरम’ और ‘हरिजन’ अखबार नियमित पढ़ते थे। इन सबका प्रभाव उनके पुत्र रामकुमार पर भी पड़ा। शुरुआती पढ़ाई मुदकी में पूरी करने के बाद वह मोगा चले गए और वहीं से उन्होंने 1933 में मैट्रिक पास की। बाद में उच्च शिक्षा के लिए लाहौर चले गए।
1936 में इन्होंने लाहौर में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। 1937 में लाहौर में डीएवी कॉलेज से इन्होंने ग्रेजुएट परीक्षा पास की। उसी साल लाहौर सिटी की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी निर्वाचित हुए। 1939 में एमए इतिहास में किया और पढ़ाने लगे। उन्हीं दिनों कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के मुंशी अहमद दीन और टीकाराम सुखन जैसे बड़े नेताओं से उनका सम्पर्क हुआ।
सितंबर 1939 में दूसरे विश्वयुद्ध के समय अधिकतर बड़े सोशलिस्ट लीडर गिरफ्तार कर लिये गए। उस दौर में जिस मजबूती और उत्साह का परिचय उन्होंने दिया वह देखने लायक था। अविभाजित पंजाब की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की इकाइयों में नई जान फूंकने का काम इन्होंने किया। 1940 में वह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की प्रांतीय इकाई के जनरल सेक्रेटरी चुने गए।
अंग्रेजों के खिलाफ लाहौर में पब्लिक मीटिंग, हड़ताल, विरोध प्रदर्शन इत्यादि में लगातार हिस्सा लेते रहे। 1941 में रावलपिंडी में ही उत्तेजित और भड़काऊ भाषण देने के कारण अंग्रेज सरकार ने इन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। इन्हें एक साल की सज़ा हुई। जहांगीरी लाल वधावन जो कि उस समय के महत्त्वपूर्ण सोशलिस्ट नेता थे,उन्होंने इनकी आर्थिक रूप से मदद की और इनका केस लड़ने में सहायता की।
1942 में जब यूसुफ मेहर अली रामकुमार जी के साथ उनके घर पर थे, वहां से अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया था। इस बात का जिक्र अपनी पुस्तक में यूसुफ मेहर अली ने किया है। अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन में इन्होंने बड़ी अहम भूमिका निभाई। अपने साथी और विश्वासपात्र पूर्णचंद आजाद के साथ मिलकर इन्होंने अंग्रेज सरकार की अदालतों के साथ जुड़े न्यायाधीशों और सरकार के बड़े अफसरों को चिट्ठियां लिख कर अपनी नौकरियों से इस्तीफा देने और राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लेने की राय दी। 18 अगस्त, 1942 को गोवल मंडी लाहौर में इन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया।
देश आजाद तो हुआ पर विभाजित होकर। इसकी गहरी चोट उनके दिल पर लगी। विभाजन के बाद दिल्ली में आकर बस गए। उसके बाद भी वैचारिक और सक्रिय राजनीति करते रहे। पर धीरे-धीरे राजनीति का विकृत रूप देखकर उखड़ते गए। अपने आप को सक्रिय राजनिति से अलग कर लिया और अध्ययन-अध्यापन तक सीमित कर लिया।
मुझे नहीं मालूम था कि रामकुमार जी जिन्हें मैं पापा जी कहकर संबोधित करता था, वास्तव में कितने बड़े आदमी थे और एक तरह से गुमनाम जिंदगी जी रहे थे। 1985-90 के दौरान की बात है। एक दिन मुझसे बोले – हरीश, मैं अपने मित्रों से मिलना चाहता हूं। समाजवादी नेताओं सुरेंद्र मोहन जी, प्रो. तिलक राज चड्ढा, प्रेम भसीन, ब्रजमोहन तूफान, जस्टिस राजिंदर सच्चर, इन सब का उन्होंने नाम लिया। आज इनमें से कोई नहीं है। तब पहली बार मुझे उनके मित्रों के बारे में पता चला।
मैंने कहा, एक जनवरी को सोशलिस्टों का नव वर्ष मिलन समारोह, हर साल रेलवे फेडरेशन के दफ्तर में होता है और यह आयोजन समाजवादी मजदूर नेता हरभजन सिंह सिद्धू और तूफान साहब की तरफ से आयोजित होता है। वहां मैं आपको ले चलूंगा। सब से आपकी मुलाकात हो जाएगी।
मुझे याद है उनको लेकर उस साल एक जनवरी को मैं वहां गया था। वर्ष तो मुझे याद नहीं है पर हां, उस साल यह आयोजन वहां न होकर पंचकुइयां रोड पर कम्युनिटी सेंटर में हुआ था। उनकी मुलाकात लगभग सभी मित्रों से हुई। बडे़ खुश हुए। वहीं पहली बार मुझे उनके बारे में पता चला कि अपने जमाने में कितने महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रहे। वहीं सुरेंद्र मोहन जी से मुझे उनके बारे में पता चला। यूसुफ मेहर अली ने अपनी किताब में उनके बारे में जो जिक्र किया था, उसका पता भी मुझे वहीं चला।
जिंदगी के आखिरी दिनों में एक दिन अपने परिवार के लोगों के बारे में मुझसे बोले- हरीश इनको समझाओ कि अब मेरे इलाज पर ज्यादा खर्च क्यों करते हैं। मैं अब किस काम का हूं। यह वैसे ही मेरे पर इतना ध्यान देते रहते हैं। अब मेरे अंदर क्या बचा है?
मैं उनको देखता ही रह गया। कोई व्यक्ति अपने बारे में इतना तटस्थ होकर कैसे मूल्यांकन कर सकता है, कोई साधु और संत ही ऐसे सोच सकता है। मेरी आंखों में पानी आ गया।
मैंने कहा पापा जी, आप ऐसा मत सोचो। आपने भी सबके लिए बहुत कुछ किया है,अब औरों को भी अपना फर्ज निभाने दो।
इनका हार्ट का अॉपरेशन होना था। खून की जरूरत थी। मैंने स्वयं इनकी बेटी और दामाद के सामने ख्वाहिश जाहिर की कि मैं भी अपना खून देना चाहता हूं। मुझे इस बात की खुशी और गर्व है कि जिस व्यक्ति ने आजादी की जंग में अपने सुखों को तिलांजलि देकर जेल काटी और यातनाएं सहीं, उस व्यक्ति के लिए मामूली सा ही सही, मैं काम आ सका। इसके अलावा मैं और कर भी क्या सकता था?
इतिहास के पन्ने उन लोगों से भरे रहते हैैं जो पद या शोहरत पा लेते हैं। पर बहुत सारे लोग ऐसे भी होते हैं जिनका त्याग बड़े से बड़े पद या शोहरत वालों से किसी भी तरह कम नहीं होता पर समय के साथ-साथ लोग उन्हें भूल जाते हैं। 4 नवम्बर, 1993 को प्रो. रामकुमार इस दुनिया को छोड़ कर चल दिए। उनकी यादें और बहुत सी कहानियां हमेशा मुझे याद आती रहेंगी।