मधु लिमये : लीक से अलग चलनेवाला समाजवादी – सुरेन्द्र मोहन

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क ऐसा व्यक्ति सार्वजनिक जीवन को रिक्त कर गया जो भारत की प्राचीन ऋषि संस्कृति की अन्यतम धरोहर को अपने व्यक्तित्व में सँजोये हुए था। एक ऐसा राजनीतिज्ञ जो अपनी टेक पर ही चला और किसी तरह की फिसलन, अवसर या लचक को स्वीकार नहीं करता था। ऐसा सांसद जिसने संसदीय प्रविधियों, प्रक्रियाओं व नियमों के कुशल प्रयोग केवल सरकार को बार-बार कठघरे में ही खड़ा नहीं किया, चौकसी के नए आयाम ही निर्धारित नहीं किए, बल्कि उनमें कुछ वृद्धियां करके भारतीय संसदीय परंपरा व विधिशास्त्र को भी समृद्ध किया। एक ऐसा कार्यकर्ता जो संघर्ष की हरेक दस्तक पर बराबर आगे बढ़ आया, जिसने केंद्र सरकार के मंत्रिपद को ठुकरा दिया और जब वह सांसद नहीं रहा, दमे और हृदय रोग से पीड़ित भी था तो एक छोटे-से दो कमरों के फ्लैट में रहकर अपने स्वतंत्र चिंतन और लेखन द्वारा लोक-शिक्षण के कार्य में लग गया।

मधु लिमये प्रखर समाजवादी चिंतक थे। बीस वर्ष की वय प्राप्त करते-करते वे सर्वसत्तात्मक कम्युनिज्म और इस छद्म अंतरराष्ट्रीयता का भरम समझ चुके थे जो समाजवादी आंदोलन को दिग्भ्रमित करने का प्रयास कर रही थी और उदारमना राषट्रवादी कार्यकर्ताओं को भी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से विमुख कर रही थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कथनी और करनी के अंतर को उन्होंने 1951 में ही पुस्तकाकार रूप में प्रस्तुत कर दिया था। वे उन पहले पर्यववेक्षकों में थे जिन्होंने 1960 के आरंभ में ही रूस के नेतृत्व में चलनेवाले अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के विभाजन का आकलन कर लिया था।

किंतु कम्युनिस्टों की सभी दार्शनिक कमजोरियों और राजनीतिक त्रुटियों को जानने के बावजूद वे कभी पश्चिमी पूंजीवाद के नेतृत्व वाले अटलांटिक ब्लॉक के पक्षधर नहीं बने और समाजवादी आंदोलन में ऐसे हरेक रुझान का उन्होंने सख्ती के साथ मुकाबला किया। दूसरी ओर वे तटस्थ विदेश नीति के नाम पर नेहरू सरकार की उस चालाकी के भी विरोधी थे जिसके द्वारा वह बारी-बारी से दोनों कैंपों – अटलांटिक और वारसा – की दलाली करती थी। यूरोप के लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन की कमजोरियों के वे आलोचक थे और उससे भी स्वतंत्र रहना चाहते थे।

कांग्रेस के पूंजीवाद, यथास्थितिवाद और भ्रष्टाचार के वे सतत विरोधी रहे। उसके विकल्प के तौर पर उन्होंने कुछ अनिच्छा से ही डॉ लोहिया के गैरकांग्रेसवाद को माना। सत्ता परिवर्तन जरूरी होने पर भी वे उसके औजार की सुस्पष्ट रचनात्मक प्रतिबद्धता के लिए बराबर प्रयत्नशील रहते थे। गैरकांग्रेसवाद उनके लिए एक बिना पतवार की नाव न थी। वे किसी भी हालत में राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की मान्यताओं पर कोई समझौता करने को तैयार न थे।

कांग्रेस के खिलाफ लड़ते हुए भी, जब उन्होंने संघ परिवार को विपक्षी एकता पर हावी होते देखा तो उसका पर्दाफाश भी किया। वास्तव में राजनीतिक संतुलन कुछ ऐसा था कि कांग्रेस की निरंकुश सत्ता और उसके एकाधिकार को हटाने में पूरी विपक्षी एकता या गठजोड़ की जरूरत थी और उसको एक गुट-विशेष अपने संकुचित स्वार्थ में इस्तेमाल न करे, इससे भी बचना था। मधु लिमये जो गैर-संघी लोकतांत्रिक विपक्ष के शीर्षस्थ और सिद्धांतकार नेताओं में अग्रणी थे, उनको इस संतुलन को सँभालना पड़ता था और यह अत्यंत कठिन कार्य था। इसके चलते वे विवादास्पद भी बने, विशेषकर 1978-87 के घटनाक्रम के दौरान।

किंतु ज्यों-ज्यों संघ परिवार में वाजपेयी जैसे मध्यमार्गी की भूमिका नगण्य बनी और मुसलिम विरोध की राजनीति को हिंदुत्व का नाम देकर भाजपा ने कट्टरवाद को अपना सिद्धांत बनाया, मधु लिमये ने अपने विश्लेषणात्मक लेखों द्वारा उसका तीव्रतम विरोध किया। यहां भी किसी नमनीयता की बात न थी, अलबत्ता वे भाजपा आदि को यह सीख भी देते थे कि अपने कार्यकलाप में मौलिक बदलाव लाएं।

राष्ट्रीयता और उसकी सुरक्षा के लिए समर्थ आधुनिक राष्ट्र के वे पक्षधर थे। इस भूमिका के चलते उन्हें अपने पुराने मित्रों चंद्रशेखर और जार्ज फर्नांडीज आदि की भी आलोचना करनी पड़ी। वे इस बात से असंतुष्ट थे कि खालिस्तानी तत्त्वों या कश्मीर के अलगाववादियों के प्रति ज्यादा नरमी दिखाई जाए।

आधुनिकता के प्रश्न पर भी वे अपने अन्य समाजवादी मित्रों से पूर्णतः प्रसन्न न थे। वे मानते थे कि प्रौद्योगिकी पिछड़ापन देश के हितों के लिए उचित नहीं है। यह जरूरी था कि इन सभी बातों पर खुली बहस होती जो उनकी अस्वस्थता के कारण संभव न थी।

मधु लिमये ने आधुनिक भारतीय इतिहास का विश्लेषण करके, अपने बहुत-से पुराने विचारों में संशोधन किया। वास्तव में उन्होंने इसके द्वारा भारतीय इतिहास की मूल्यवान सेवा की। सरदार पटेल, बाबासाहब आंबेडकर, मुहम्मद अली जिन्ना और ऐसे ही मनीषियों की भूमिका पर उन्होंने नया प्रकाश डाला। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन और स्वाधीन भारत के राजनीतिक घटनाक्रम का भी उन्होंने शास्त्रीय विश्लेषण किया।

उनके जीवन में अपरिग्रह और स्वभाव में सादगी और सज्जनता का जो आदर्श था वह आजकल के राजनीतिक व्यवहार के पूर्णतः उलट था और इसीलिए प्रेरणादायक भी।

सत्रह वर्ष में ही पुणे में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सचिव पद को हासिल करके युवा मधु लिमये ने अपनी प्रतिबद्धता, प्रचंडता और परिश्रमी स्वभाव का परिचय दे दिया था। तब पुणे के समाजवादी आंदोलन में नाना साहब गोरे, एसएम जोशी, विनायक राव कुलकर्णी और शिरुभाई लिमये जैसे प्रमुख नेता सक्रिय थे। उन सबको युवा मधु लिमये की कर्मठता और लगन पर गहरा विश्वास था।

अध्ययनशील स्वभाव और बौद्धिक अंतर्दृष्टि के कारण मधुजी ने जल्द ही समाजवाद के लोकतांत्रिक पक्ष और कम्युनिस्ट आंदोलन के सर्वसत्तात्मक चरित्र के अंतर को पहचान लिया था, और उस छद्म अंतरराष्ट्रीयता को भी, जिसका गुणगान करके कम्युनिस्ट, सोवियत संघ के हितों के रक्षार्थ भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम को महत्त्व नहीं देते थे। उनके इन विचारों के कारण उन दिनों भी बहुत-से उदीयमान नेता कम्युनिस्ट प्रचार तंत्र से अप्रभावित रहे। यहां तक कि साने गुरुजी जैसे महान समाज सुधारक और राष्ट्र सेवा दल के प्रेरणा-स्रोत को भी कारावास में मधुजी से बातचीत के कारण बहुत संबल मिला था।

‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में वे साने गुरुजी के नेतृत्व में खानदेश में भूमिगत संघर्ष में गिरफ्तार कर लिये गए। रिहाई के बाद वे राज्य स्तर पर पार्टी संगठन करने लगे, किंतु उनकी रिहाई के बाद पार्टी के महामंत्री जयप्रकाश नारायण और अन्य शीर्षस्थ समाजवादी नेताओं ने 1947 में, जब मधुजी केवल पच्चीस वर्ष के थे, उन्हें सोशलिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त मंत्री नियुक्त किया। पंजाब के समाजवादी नेता प्रेम भसीन भी एक वर्ष पहले, संयुक्त मंत्री बनाए गए।

पार्टी ने उनकी अंतरराष्ट्रीय मुआमलों संबंधी सूझबूझ के चलते, उन्हें 1948 में यूरोप भेजा ताकि वे विश्व-भर के समाजवादियों के संपर्क में आएं। उन्हीं दिनों उन्होंने अंग्रेजी में एक सारगर्भित पुस्तिका भी लिखी जो ‘समाजवादी नीति का विकास’ के नाम से कई भाषाओं में छपी। 1952 में उनकी एक अन्य पुस्तक ‘कम्युनिस्ट पार्टी : कथनी और करनी’ छपी। जब एशियाई समाजवादी कॉन्फ्रेंस की स्थापना की तैयारी हो रही थी तब मधु लिमये ने रंगून में रहकर उसकी तैयारी की।

1952 के बाद पार्टी में जो विचार विग्रह हुआ, उसमें मधु लिमये डॉ. लोहिया के साथ रहे; और जब 1955 के अंत में डॉक्टर साहब ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से अलग सोशलिस्ट पार्टी स्थापित की तो वे उसके प्रखरतम नेता व अभिवक्ता बने। उन्होंने 1955 के गोवा मुक्ति संग्राम में भारी योगदान किया और गोवा की पुर्तगाली सरकार ने उन्हें तेरह वर्ष के कारावास का दंड दिया। उन्हें शारीरिक उत्पीड़न भी सहना पड़ा।

1958 से वे पार्टी अध्यक्ष के तौर पर संगठन और संघर्ष में संलग्न रहे। 1963 में डॉ. लोहिया फर्रुखाबाद क्षेत्र से संसदीय उपचुनाव जीते और 1964 में मधु लिमये मुंगेर से। इधर डॉ. लोहिया ने 1963 में कलकत्ता सम्मेलन में वृहद कांग्रेस विरोधी विपक्षी एकता का सुझाव दिया जिसकी परिधि में ही समाजवादियों की एकता की बात भी आती थी। मधुजी वृहद विपक्षी एकता के पक्षधर तो न थे, तो भी वे समान दूरी के सिद्धांत में कुछ लचीलापन जरूर चाहते थे। 1964 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी व सोशलिस्ट पार्टी के बिना शर्त विलय से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी स्थापित हुई। परंतु विपक्षी एकता और गैर-कांग्रेसवाद पर डॉ. लोहिया व प्रसोपा नेताओं के मतभेद के चलते एक वर्ष से पहले ही उसका विभाजन भी हो गया। किंतु आगामी दो वर्षों के भीषण अकाल, सुरक्षा, महंगाई जिसमें भारत-पाक युद्ध का भी योगदान था, और कुछ भ्रष्टाचार संबंधी मुआमलों के चलते, जनता में कांग्रेस-विरोध बढ़ा। दूसरी ओर, पिछड़ों को विशेष अवसर और देशी भाषाओं को अपनाने जैसे कार्यक्रमों ने संसोपा को विस्तृत जनाधार दिया। गैर-कांग्रेसवाद की पाक्षित जीत 1967 के चुनावों के बाद हो गई जब कई राज्यों में सभी गैर-कांग्रेसी दलों को न्यूनतम कार्यक्रम सहमति के आधार पर संयुक्त विधायक दलों की सरकारें बनानी पड़ीं।

किंतु इस बदलाव के छह मास बाद ही इसके सिद्धांतकार व नेता डॉ. लोहिया का निधन हो गया। 1967 में डॉ लोहिया के आकस्मिक निधन के बाद मधु लिमये उनके उत्तराधिकारी और आंदोलन के प्रमुख सिद्धांतकार बने। वे 1967 में सांसद बने, और हालांकि वे 1971 के आम चुनाव में हारे, वे 1973 में बाँका संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में जीतकर फिर संसद में पहुंचे। उन्होंने समाजवादी एका कराने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और सोशलिस्ट पार्टी का नीति वक्तव्य भी तैयार किया। वे 1974 की रेल हड़ताल और जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में आगे-आगे थे; आपातकाल में उन्नीस मास जेल में भी रहे और जब लोकसभा के कार्यकाल में एक वर्ष की वृद्धि की गई तो जेल से ही उन्होंने त्यागपत्र भी दिया। जेल में ही दुबारा विपक्षी एकता के प्रयासों में योगदान देने लगे और जब 1977 में जनता पार्टी बनी तो वे उसके महासचिव और प्रमुख सांसद बने। किंतु प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के आग्रह पर भी उन्होंने मंत्रिपद स्वीकार न किया। जनता पार्टी की आर्थिक नीति और सरकार के प्राथमिक कार्यक्रमों की योजना आदि के रचनाकार भी वही थे।

किंतु जनता पार्टी और उसकी सरकार के कार्यों से वे असंतुष्ट हो गए और जुलाई 1979 में जो विभाजन हुआ, उसमें उन्होंने अलग होकर चौधरी चरण सिंह के साथ लोकदल का गठन किया। वे 1980 के आम चुनाव में असफल हुए और 1982 में अस्वस्थता के कारण सक्रिय राजनीति से अलग हो गए। तो भी 1981-82 में वे प्रयासरत थे कि जनता पार्टी व लोकदल में एका स्थापित हो जाए।

1982 से मधुजी ने सैकड़ों लेख पत्र-पत्रिकाओं में लिखकर राजनीति को दिशा-निर्देश देने का प्रयास किया। निधन से दो दिन पूर्व तक वे लेखन कार्य करते रहे। इन बारह वर्षों के अध्ययन, लेखन व प्रकाशन से उनकी ख्याति बहुत बढ़ी।

मधु लिमये ने तेरह वर्ष के संसदीय कार्यकाल में संसदीय प्रक्रिया को परिष्कृत बनाने, भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने और मेहनतकशों के अधिकारों को बढ़ाने के साथ-साथ बराबर सरकार को सफाई देने के लिए बाध्य किया। वे संसदीय प्रक्रिया के प्रकांड पंडित थे।

उनकी संघर्षशीलता, अध्येता स्वभाव और प्रखरता के साथ-साथ जीवन-भर की सादगी, ईमानदारी, सच्चरित्रता और निःस्वार्थता ने उन्हें राजनेताओं में अद्वितीय स्थान प्रदान किया था। वे सार्वजनिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणादायक अनुकरणीय उदाहरण पेश कर गए। उनकी निर्भीकता भी बेमिसाल थी और सौजन्य व मैत्री-भाव से परिपूर्ण, मिलनसार व हँसमुख स्वभाव भी। उनके निधन से भारत का एक नितांत निर्भ्रष्ट नेता, संघर्षमय परंपराओं का धनी, उद्भट विद्वान, न्याय का प्रहरी और प्रतिबद्ध समाजवादी चला गया, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन, गोवा मुक्ति, कांग्रेस की अबाध निरंकुश सत्ता के खंडन और लोकतंत्र की बहाली के लिए निरंतर लड़ाइयां लड़ीं और अपने दल की त्रुटियों को उजागर करने में भी कोई समझौता नहीं किया।

(‌स्व. सुरेन्द्र मोहन का यह लेख राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनकी किताब ‘समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय’ में संकलित है )

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