— अनिल नौरिया —
बीसवीं शताब्दी के एक दिग्गज केनेथ कौंडा नहीं रहे। उनकी गिनती अफ्रीकी मुक्ति संघर्ष के पहली पांत के नेताओं में होती थी। वह उन महान शख्सियतों में थे जो बीसवीं सदी में उपनिवेशवाद की मुखालफत के प्रतीक बन गए। कौंडा के निधन के साथ ही एक युग का अंत हो गया।
निस्संदेह यह जाम्बिया के लिए बहुत बड़ी क्षति है पर कुल मिलाकर यह पूरे अफ्रीका की, और सिर्फ वही क्यों, अफ्रीका और भारत समेत सारी दुनिया की गहरी क्षति है।
वह अफ्रीका और भारत के रिश्तों में शक्तिपुंज की तरह थे। जिन लोगों ने 1960 के दशक में होश सँभाला, जाहिर है, न सिर्फ महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद जैसे नेताओं के नैतिक प्रभाव और नेतृत्व में चले भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की छाया में बड़े हुए बल्कि केनेथ कौंडा, जोमो केन्याटा, क्वामे क्रूमा, एलबर्ट लुथिलि और जूलियस न्येरेरे जैसे अफ्रीकी नेताओं का भी प्रभाव उन पर पड़ा होगा।
तब नेलसन मंडेला, वाल्टर सिसुलु और ओलिवर टैम्बो की भी चर्चा होने लगी थी और बाद के दशकों में ये भी अफ्रीका के महान नेताओं में गिने जाने लगे।
जैसा कि मैंने अपनी किताब (द अफ्रीकन एलिमेंट इन गांधी) में जिक्र किया है, केनेथ कौंडा ने, जो बाद में जाम्बिया के राष्ट्रपति बने, अपने देश के लोगों की आजादी का रास्ता 1940 के बाद के वर्षों में ही खोजना शुरू कर दिया था।
अफ्रीकी मुक्ति संघर्ष ने कई तरह के रास्ते अख्तियार किए। लेखक फर्ग्युस मैकफर्सन ने केनेथ कौंडा से 1947 में हुई एक बातचीत का हवाला दिया है जिसमें कौंडा कहते हैं कि महात्मा गांधी का ‘अहिंसक सकारात्मक कार्रवाई’ का रास्ता ही शायद समाधान है। तब कौंडा कोई चौबीस-पच्चीस बरस के थे। (उस बातचीत के लिए देखें फर्ग्युस मैकफर्सन की किताब- Kenneth Kaunda of Zambia : The Time and the Man, Oxford University Press, Lusaka, 1974, p.70)।
आगे चलकर एक समय आया कि ब्रिटेन के सोशलिस्ट फेनर ब्रॉकवे ने कौंडा का जिक्र ‘अफ्रीकन गांधी’ कहकर किया। (Fenner Brockway, Outside the Right, George Allen & Unwin, London, 1963, p. 158)
केनेथ कौंडा अब 97 साल की आयु में इतिहास में चले गए। पर क्या हम भारत के लोग उन्हें कभी भूल सकते हैं?
उनकी स्मृति सदा बनी रहे।
समता मार्ग की ओर से श्रद्धांजलि
केनेथ कौंडा अपने देश की स्वाधीनता का संघर्ष शुरू किया, उसका नेतृत्व किया और आजादी मिलने पर 1964 में प्रथम राष्ट्रपति बने और इस पद पर 1991 तक रहे। इस तरह, स्वाधीनता की लड़ाई के मंजिल पर पहुंचने के बाद, उन्होंने जाम्बिया के नवनिर्माण का भी नेतृत्व किया। यही नहीं, दक्षिण अफ्रीका, अंगोला, मोजाम्बिक, नामीबिया, रोडेशिया जैसे अन्य अफ्रीकी देशों के मुक्ति अभियानों को भी वह खुलकर समर्थन और सहयोग देते रहे। जब अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस पर दक्षिण अफ्रीका की गोरी हुकूमत ने पाबंदी लगा दी, तो कौंडा की मदद से तीन साल तक जाम्बिया में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस का ठिकाना रहा। इसलिए स्वाभाविक ही कौंडा की लोकप्रियता अपने देश तक सीमित नहीं थी, उन्हें अन्य अफ्रीकी देशों में भी मुक्ति नायक की तरह देखा जाता था।
राष्ट्रपति पद से हटने के बाद कौंडा एचआईवी/एड्स उन्मूलन अभियान में सक्रिय हो गए थे। उनके जैसी बड़ी हस्ती के जुड़ने से इस अभियान को काफी बल मिला, खासकर अफ्रीका में। कौंडा के निधन की खबर आते ही जाम्बिया समेत पूरे अफ्रीका में शोक की लहर दौड़ गई। जाम्बिया सरकार ने इक्कीस दिनों के शोक की घोषणा की है। समता मार्ग की श्रद्धांजलि।