— अरुण कुमार त्रिपाठी —
आज 46 साल बाद यह कहना और देखना सुखद है कि देश में दोबारा आपातकाल लागू नहीं हुआ। वह 21 महीनों का दुःस्वप्न अब इतिहास का विषय बन चुका है और आज सत्ता में बैठे दल और उसके नेता यह दावा करते नहीं थकते कि हमने आपातकाल से लड़ाई लड़ी थी इसलिए हमें आजादी की कीमत मालूम है। लेकिन दिक्कत यह है कि इस देश का मध्यवर्ग और आम जनता न तो आपातकाल को समझने को तैयार है और न ही ऐसी व्यवस्था करने के लिए सतर्क है कि वैसी स्थितियां दोबारा न आएं। यही बदहवासी हमारे दौर की सबसे बड़ी त्रासदी है।
यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि आपातकाल या गुलामी का दौर इसलिए नहीं आता कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री हैं या कांग्रेस पार्टी सत्ता में है। वह इसलिए भी नहीं आता कि जेपी जैसा नैतिक शक्ति वाला लोकनायक उन्हें चुनौती देता है। वह जिन प्रवृत्तियों के कारण आता है वह अगर हमारे समाज में मौजूद रहती हैं तो उसके आने का खतरा सदैव बना रहता है। यही कारण है कि आपातकाल घोषित न होते हुए भी किसी न किसी रूप में रहता है और आपातकाल की घोषणा के बावजूद उसकी बेड़ियां टूटती रहती हैं।
महात्मा गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में कहा था कि अंग्रेजों ने हमें गुलाम नहीं बनाया बल्कि हमने अपनी आजादी उन्हें सौंप दी। वे इसकी वजह लालच में देखते थे। उनका कहना था कि जो समाज लालची हो जाएगा उसके लिए आजादी बचा पाना मुश्किल है। इसी के साथ वे भय वाले तत्त्व को भी जोड़ते थे।
आजाद रहने और आजादी की रक्षा करने के लिए लालच और भय से मुक्त रहना बहुत जरूरी है। गांधी ने भारतीय समाज की इन्हीं दोनों कमजोरियों को तोड़ा और तब वे देश को आजादी दिला पाए।
समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया इस बात से परेशान रहते थे लोगों ने जितने जोश से आजादी की लड़ाई लड़ी उतने जोश से बराबरी की लड़ाई लड़ने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए जातिवाद और आर्थिक गैर-बराबरी के विरुद्ध उनकी लड़ाई परवान नहीं चढ़ सकी या जितनी चढ़ी उससे डॉ लोहिया संतुष्ट नहीं थे। अन्याय और गैरबराबरी के खिलाफ उस लड़ाई को जयप्रकाश नारायण आगे ले जाना चाहते थे लेकिन वे पहले आपातकाल और बाद में अपने लोगों में व्याप्त पद के लालच में उलझ कर चूक गए। इसी बात को कुछ दिनों पहले आपातकाल दिवस पर भाजपा के ‘मार्गदर्शक मंडल’ के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था। उनका कहना था कि वे जिन स्थितियों के कारण देश में आपातकाल लगा था वे स्थितियां आज भी मौजूद हैं। उन्हीं की बात को आगे बढ़ाते हुए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जेएस खेहर ने एनजेएसी (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग) संबंधी निर्णय देते हुए कहा था कि देश में वे स्थितियां आज भी मौजूद हैं जिनके कारण आपातकाल लगा था। इन स्थितियों से न तो पूंजी के सहारे चलनेवाला मीडिया निपट सकता है और न ही एनजीओ। वैसी स्थितियों को घटित होने को रोकना है तो स्वतंत्र न्यायपालिका का होना बहुत जरूरी है।
लेकिन क्या भारत का नागरिक यह बात दावे के साथ कह सकता है कि उसके नागरिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए न्यायपालिका सक्षम और तत्पर है? शायद हां शायद न।
ऐसा इसलिए क्योंकि न्याय का प्रसिद्ध सिद्धांत है कि देरी से किया गया न्याय, न्याय न करने के बराबर है (जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड)। हाल में दिल्ली हाई कोर्ट ने जब दिल्ली दंगों के सिलसिले में यूएपीए (अवैध गतिविधियां निरोधक कानून) के तहत गिरफ्तार आसिफ इकबाल तन्हा, नताशा नरवाल और देवांगना कलीता को जमानत दी तो यह उम्मीद बनी कि नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए हमारी अदालतें समर्थ हैं। लेकिन उसी के साथ उनकी रिहाई से पहले जिस तरह पुलिस ने उनके राज्य और घर तक जाकर छानबीन की, वह न्यायपालिका की उपेक्षा और तौहीन करने जैसा ही काम था।
दिल्ली पुलिस के व्यवहार पर टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मदन बी लोकुर ने कहा है कि उसका व्यवहार अमिताभ बच्चन की फिल्म शहंशाह जैसा था। जिस तरह उस फिल्म में अमिताभ बच्चन एक खलनायक को अदालत में फांसी से लटका देते हैं वैसे ही दिल्ली पुलिस ने 24 मई को एक वर्चुअल सुनवाई के दौरान जमानत मिलने के बाद भी अभियुक्तों को अदालत से ही नया मुकदमा लगाकर गिरफ्तार कर लिया था। उनका कहना था कि वह घटना प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध थी। अभिव्यक्ति की आजादी से सख्ती से निपटा जा रहा है और हजारों युवा जो सरकार के विरुद्ध बोलने का साहस करते हैं उन्हें जेल में डाल दिया गया है। इसी तरह की टिप्पणी करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने भी उन युवाओं को जमानत दी है। अदालत का कहना है कि यूएपीए कानून जो कि आतंकवादी गतिविधियों से निपटने का दावा करता है उसे उन युवाओं पर लगाना अनुचित है जो अहिंसक तरीके से विरोध प्रदर्शन के अपने संवैधानिक अधिकार का उपयोग कर रहे हैं।
निश्चित तौर पर आज देश में आपातकाल नहीं है। लोगों ने सीएए और एनआरसी के विरुद्ध आंदोलन किए। कृषि कानूनों के विरुद्ध भी सात महीनों से डटे हैं।
लेकिन यूएपीए, राजद्रोह कानून, महामारी अधिनियम और दूसरे दमनकारी कानूनों का जिस तरह से हर उस नागरिक पर प्रयोग किया जा रहा है जो सरकार की आलोचना और विरोध करने का साहस करता है, एक प्रकार से लघु आपातकाल की स्थिति निर्मित करता है।
ऊपर से लव जेहाद कानून, धर्म परिवर्तन रोकने संबंधी कानून और आइटी कानून वगैरह जितनी तेजी से इस्तेमाल किए जाते हैं वे सब अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने का काम कर रहे हैं। यह सही है कि आपातकाल के दौरान न तो दक्षिण के लोग ज्यादा नाराज हुए थे और न ही भारत का मध्यवर्ग। भारतीय नौकरशाही और नौकरीपेशा वर्ग में शायद ही इस्तीफे हुए हों। जबकि महात्मा गांधी ने जब असहयोग आंदोलन छेड़ा तो लोगों ने अपनी नौकरियां छोड़ दी थीं। फिर भी 1975 से 1977 के बीच लगे आपातकाल ने एक ओर प्रेस की आजादी का दमन किया तो दूसरी ओर विपक्ष के प्रमुख नेताओं को जेल में डाल दिया। संविधान को संशोधनों में बदल दिया। उसके बारे में आचार्य जेबी कृपलानी का वह कथन बहुत मशहूर है कि आज हमारे पास कोई संविधान नहीं है बल्कि सिर्फ संशोधन हैं।
उसी तरह कहा जा सकता है कि आज संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार महज कागजी हैं और उनपर प्रतिबंध लगानेवाले कानून वास्तविक हैं।
कानून के बारे में मशहूर समाजशास्त्रीय सिद्धांत है कि वे कहीं होते नहीं। वे जब तोड़े जाते हैं तब प्रकट होते हैं। सवाल उठता है कि जो सुप्रीम कोर्ट यूपीए सरकार के दौरान आईटी कानून की धारा 66 ए को खारिज करने का साहस दिखा सकती है वह इस समय क्यों नहीं निवारक नजरबंदी कानूनों के खतरनाक हिस्सों को उड़ा देती। इसी तरह के राजद्रोह वगैरह के कानून लोगों को परेशान करने और डराने के लिए लगाए जाते हैं। न्यायालयों का उनपर दिया जानेवाला फैसला एक तो काफी देर से आता है दूसरे, कार्यपालिका उससे कोई सबक लेने को तैयार नहीं है।
इसलिए आज आपातकाल से लड़ने की शक्तियां कमजोर हैं। उसकी वजह है कि मीडिया लालच में डूबा हुआ है और विपक्ष अपने परिवारवाद और भ्रष्टाचार में। जबकि न्यायपालिका और कार्यपालिका भयभीत हैं।
भय और लालच के इस वातावरण में समता के लिए जनता के सचेत होने का तो सवाल ही नहीं है, वह स्वतंत्रता और बंधुत्व के लिए भी जागरूक नहीं है। गांधी जिस बात पर बहुत जोर देते थे वो यह कि अगर आप हिंदू और मुस्लिम एकता कायम कर दो तो हम एक साल में आजादी दिला कर दिखा देंगे। इस बात को थोड़ा पलट कर सोचें तो कहा जा सकता है कि बिना सांप्रदायिक एकता के आजादी बेमानी है। आज वही स्थिति है। गहरे सामाजिक विभाजन के बीच आज लोग आपातकाल का यह कहकर स्वागत कर सकते हैं कि वह तो दूसरे संप्रदाय को सबक सिखाने के लिए लगाया गया है।
इसलिए आज सबसे ज्यादा जरूरी है आपातकाल को समझना और उन कारणों पर विचार करना जिनके कारण वह लगाया गया था।
उस समय भी देश में बेरोजगारी और महंगाई थी। भ्रष्टाचार चरम पर था। लोग सरकार से निराश थे। आज महामारी के दौर में जनता दो बार लाकडाउन झेल चुकी है। महामारी की दो लहर झेलकर तीसरी लहर की आशंका में जी रही है। इतनी सारी परेशानियों के बीच वह अपने मौलिक अधिकारों को भूलती जा रही है। सत्ता में बैठे लोग सारी बहस को या तो धार्मिक दायरे में ला रहे हैं या फिर जो कुछ कर रहे हैं उसे अहसान जताते हुए। जनता या तो इस सब को अपना भाग्य मान रही है या विधि का विधान।
ध्यान रहे कि आपातकाल सदैव संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत ही नहीं आता। वह सदैव जेपी और इंदिरा गांधी के टकराव के रूप में भी नहीं आता। उसका मूल भाव जनता और उसके शासक के बीच का टकराव है। जनता में भय और लालच जितना होगा उसके आने और कायम रहने की उतनी ही आशंका रहेगी। लेकिन जनता भय और लालच से जितना मुक्त होगी उतना ही कमजोर होगा आपातकाल।